आचार्य संदीप कुमार त्यागी "दीप"
भूखी थी दुत्कार खा गई, और अनचाहा प्यार पा गई।
जवाँ भिखारिन बनी ज़िन्दगी कदम कदम पर मार खा गई।।
पेट पालने के चक्कर में पलने लगा पेट में कोई,
पल पल पीती घूँट जहर के भूखी प्यासी खोई खोई।
रोई चीखी सन्नाटों में गहरी-सी चीत्कार छा गई।।
जितने जिस्म बिके दुनिया में बदमाशों के बाज़ारों में
हाथों हाथ खरीदे रौंदे कुचले सब इज्जतदारों ने ।
आज शरीफों की महफिल में कहकर गश लाचार खा गई।।
नहीं भरोसा कुछ सांसों का, अरमानों की इन लाशों का,
बोझ नहीं अब उठता हाय! प्यासी से खाली ग्लासों का ।
पानी फिर भी झरे आँख से लगता फिर फटकार खा गई।।
Sunday, January 18, 2009
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment