Tuesday, January 20, 2009

प्रेम की व्युत्पत्ति

आचार्य संदीप कुमार त्यागी "दीप"

मौन भाषा जटिल व्याकरण प्रेम का,
है बहुत ही कठिन आचरण प्रेम का।
कर लिया वासना ने हरण प्रेम का,
दिल की सच्चाई रोके क्षरण प्रेम का।

जब किसी से नयन चार होने लगें,
स्वप्न-संसार साकार होने लगें।
और खोने लगे दिल किसी के लिए
तब समझना नया अंकुरण प्रेम का।

तन से तन का मिलन तो क्षणिक खेल है,
मन से मन का मिलन ही सही मेल है।
मेल जब ये परम आत्मिक हो चले,
तब ही सजता है वातावरण प्रेम का।

प्रेम है एक तपस्या नहीं पर सरल,
प्रेम है हर समस्या का हल दरअसल।
कब कुटिल मन बना उद्धरण प्रेम का,
पालना है न आसान प्रण प्रेम का।

राह तलवार की धार-सी तेज है,
इसकी जहरीले काँटों भरी सेज है।
पाप से ढोंग से सख़्‍त परहेज़ है,
मत बढ़ा औ’ बुज़दिल चरण प्रेम का।।

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