आचार्य संदीप कुमार त्यागी "दीप"
कही संतों की तू, अरे! मान सच ले ।
महाठगनी जगन्माया से बच ले ।।
नहीं भरमा स्वयं को और इसमें ।
जतन ऐसा कोई कर मन न मचले ।।
हरेक भोला भला मासूम चेहरा ।
न जाने कब कुटिलतम चाल रच ले ।।
मूँदके आँख मत विश्वासकर तू ।
मान वो बात जो सच्ची हो जँच ले ।।
नशे में नाचती हर इक जवानी ।
कहाँ बिरला बुढ़ापा है? जो नच ले ।।
कभी ना भूल क्षण भंगुर है जीवन ।
गया हर कर्ण आया जो कवच ले ।।
Sunday, January 18, 2009
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