आचार्य संदीप कुमार त्यागी "दीप"
स्वर्णिम कुच कलशों पर कुंचित,
कच कामिनी क्यों लटकाती हो।
अलि युगल बना दौवारिक उर
गज गामिनी क्यों इठलाती हो।
सद्यःस्नाता तन्वी अनुपम
देह दामिनी क्यों दमकाती हो।
अभिलषित समागम यदि सुन्दर-
भ्रू भामिनी क्यों मटकाती हो॥
नव तरुणी तव अरुणाभ अधर
मधुरिम मधुरिम तरुणाए हैं।
कोमल कमनीय कमल कलि के
नव पाँखुर से अरुणाए हैं॥
पीने को प्रेम पराग रसिक
मन भ्रमर भाव अकुलाए हैं।
संस्पर्श सुखद सौवर्णी सुधा
चुम्बन को हम ललचाए हैं॥
सामीप्य समागम की वेला
में तन से तन आलिंगित हो।
मन मिलन मधुर हो रुचिर सुचिर
तादात्म्य परम का इंगित हो॥
कर लें आओ हम बीज वपन
आनन्द भुवि अनुप्राणित हो।
जीवन में प्रेम संजीवन है
जगती में स्वतः प्रमाणित हो॥
Tuesday, January 20, 2009
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