देशवासियों तन्द्रा तोड़ो।
आखें खोलो आलस छोड़ो।
उठो जगो बढ़ चढ़ो दुश्मनों
के रुण्डो मुण्डों को फोड़ो।
खुली चुनौती मिली मुम्बई
की कर लो स्वीकार ।
बचना पाये तुमसे कोई
घुसपैठी गद्दार
अगर हिफ़ाजत करे दुश्मनों
की कोई सरकार।
जड़ से उसे उखाड़ फेंकना
और करना ये हुँकार-
भारतमाता की जय।
आस्तीन में छिपे भुजंगों
के फण त्वरित मरोड़ो
जहर भरा है जितना भी
सबका सब आज निचोड़ो
छोड़ो छोड़ो देशवासियों
कायरता सब छोड़ो।
पर मत छोड़ो देशद्रोहियों
को यूँ खुला ना छोड़ो।
वर्ना साल गुलामी के
फिर फिर आयेंगे करोड़ों
पृथ्वीराज के वंशज तुम
पर क्षमा इन्हें मत करना ।
भारतमाता को वरना फिर
नरक पड़ेगा भरना॥
वीर शिवाजी से सीखो
दुश्मन की छाती चढ़ना।
चेतक से राणा प्रताप से
सीखो रण में बढ़ना॥
विश्वपटल पर स्वच्छ छवि की
छोड़ो चिंता छोड़ो।
तोप टैंक ले चढ़ो शत्रु पर
भ्रम सब इसके तोड़ो
दौड़ो दौड़ो धरा गगन में
बादल दल पर दौड़ो।
लेकर विजयी विश्व तिरंगा
त्रिभुवन का रुख मोड़ो॥
Saturday, January 31, 2009
आन्दोलन आँधी सा गजब उठाता गाँधी॥
सत्य अहिंसा मूलमंत्र उद्गाता गाँधी।
राष्ट्रप्रेम का यज्ञानल धधकाता गाँधी॥
अमरहुतात्मसपूतों में स्वातंत्र्यभाव भर
आन्दोलन आँधी सा गजब उठाता गाँधी॥
उन्नीस सौ इक्कीस ब्रिटिश सत्ता का पत्ता-
पत्ता तितर बितर हो गया गिरी महत्ता
सारी की सारी ही खो गई बुद्धिमत्ता
धू धू कर जल उठीं दुकानें कपड़ा लत्ता
ध्वस्त हो गया माल विदेशी पानी पत्ता।
नहीं आगरा दिल्ली बाम्बे या कलकत्ता।
झुलस गये लंदन तक के गोरे अलबत्ता
भाँप गये विद्रोह विकट भड़काता गाँधी
पुतली बाई की पुतली सा प्यारा प्यारा
कर्मचंद गाँधी के नैनो का उजियारा॥
तप: पूत अवधूत महात्मा गाँधी न्यारा।
मोहनदास करमचंद गाँधी बना हमारा।।
राष्ट्रपिता बापू भारत का हृदय दुलारा ।
जिसने तन मन धन जीवन सारा का सारा॥
वारा भारत माँ की आज़ादी हित वारा
गूँज रहा है हृदयों में उसका ही नारा
देशजातिसेवा की याद दिलाता गाँधी॥
राष्ट्रप्रेम का यज्ञानल धधकाता गाँधी॥
अमरहुतात्मसपूतों में स्वातंत्र्यभाव भर
आन्दोलन आँधी सा गजब उठाता गाँधी॥
उन्नीस सौ इक्कीस ब्रिटिश सत्ता का पत्ता-
पत्ता तितर बितर हो गया गिरी महत्ता
सारी की सारी ही खो गई बुद्धिमत्ता
धू धू कर जल उठीं दुकानें कपड़ा लत्ता
ध्वस्त हो गया माल विदेशी पानी पत्ता।
नहीं आगरा दिल्ली बाम्बे या कलकत्ता।
झुलस गये लंदन तक के गोरे अलबत्ता
भाँप गये विद्रोह विकट भड़काता गाँधी
पुतली बाई की पुतली सा प्यारा प्यारा
कर्मचंद गाँधी के नैनो का उजियारा॥
तप: पूत अवधूत महात्मा गाँधी न्यारा।
मोहनदास करमचंद गाँधी बना हमारा।।
राष्ट्रपिता बापू भारत का हृदय दुलारा ।
जिसने तन मन धन जीवन सारा का सारा॥
वारा भारत माँ की आज़ादी हित वारा
गूँज रहा है हृदयों में उसका ही नारा
देशजातिसेवा की याद दिलाता गाँधी॥
Tuesday, January 20, 2009
राम का नाम ले
आचार्य संदीप कुमार त्यागी "दीप"
खुमारी अद्भुत चढ़ाये जाम ले।
खुशी से झूम झूम मचा धूमधाम ले॥
सुबह ले शाम ले शाम ले या आठों याम ले,
राम के नाम का जाम तू थाम ले॥
साध सब काम ले, राम का नाम ले॥
राम नाम की पी पी मदिरा, मस्त-मस्त मुनिजन देखे,
बाल्मिकी तुलसी कबीर आदि से सुधी सन्तन देखे।
चढ़ा चढ़ाकर यही सुराही सुरपुर में सुरगण देखे,
देखें हैं आबाल-वृद्ध समृद्ध सभी जनमन देखे॥
उलटे-सीधे, सीधे-उलटे हो जैसे ले नाम ले॥
राम नाम के नशे-नशे में लाँघ लिये हनुमन् सागर,
लंकिनी, त्रिजटा, सुरसा-मुख भी लगी रामरस की गागर।
भक्त विभीषण से जा बोले प्याला तू भी थाम ले,
तर जायेगा बंधु अवश्यम् पी रस नाम ललाम ले।
सिय सुध पाई लंका जलाई रामदूत ने नाम ले॥
खुमारी अद्भुत चढ़ाये जाम ले।
खुशी से झूम झूम मचा धूमधाम ले॥
सुबह ले शाम ले शाम ले या आठों याम ले,
राम के नाम का जाम तू थाम ले॥
साध सब काम ले, राम का नाम ले॥
राम नाम की पी पी मदिरा, मस्त-मस्त मुनिजन देखे,
बाल्मिकी तुलसी कबीर आदि से सुधी सन्तन देखे।
चढ़ा चढ़ाकर यही सुराही सुरपुर में सुरगण देखे,
देखें हैं आबाल-वृद्ध समृद्ध सभी जनमन देखे॥
उलटे-सीधे, सीधे-उलटे हो जैसे ले नाम ले॥
राम नाम के नशे-नशे में लाँघ लिये हनुमन् सागर,
लंकिनी, त्रिजटा, सुरसा-मुख भी लगी रामरस की गागर।
भक्त विभीषण से जा बोले प्याला तू भी थाम ले,
तर जायेगा बंधु अवश्यम् पी रस नाम ललाम ले।
सिय सुध पाई लंका जलाई रामदूत ने नाम ले॥
माँ! शारदे तुमको नमन
आचार्य संदीप कुमार त्यागी "दीप"
शारदे तुमको नमन माँ, शारदे तुमको नमन।
श्वेत हिम-वसने अनुपमे शरद ऋतु सम सुखसदन॥
शुभ्र शोभा रजत वर्णी स्वर्ण पर्णी सौख्यदा।
सार हो संसार का हे शारदे अशरण – शरण॥
तव वल्लकी का नाद अनह्द गूँजता अविराम है।
कर रहा झँकृत मेरे उर तार को जिसका श्रवण॥
काव्य की तुम प्रेरणा आधार जीवन का तुम्हीं।
हो स्वर मेरे संगीत का पीयूष का ज्यों आचमन॥
हूँ अकिंचन “दीप” अति मैं क्या करूँ तुमको समर्पित।
बस हृदय की वाटिका के भेंट ये श्रद्धा-सुमन॥
शारदे तुमको नमन माँ, शारदे तुमको नमन।
श्वेत हिम-वसने अनुपमे शरद ऋतु सम सुखसदन॥
शुभ्र शोभा रजत वर्णी स्वर्ण पर्णी सौख्यदा।
सार हो संसार का हे शारदे अशरण – शरण॥
तव वल्लकी का नाद अनह्द गूँजता अविराम है।
कर रहा झँकृत मेरे उर तार को जिसका श्रवण॥
काव्य की तुम प्रेरणा आधार जीवन का तुम्हीं।
हो स्वर मेरे संगीत का पीयूष का ज्यों आचमन॥
हूँ अकिंचन “दीप” अति मैं क्या करूँ तुमको समर्पित।
बस हृदय की वाटिका के भेंट ये श्रद्धा-सुमन॥
मधुरिम मधुरिम हो लें
आचार्य संदीप कुमार त्यागी "दीप"
परिणय के धागे में प्रियतम प्रणय-प्रसून पिरो लें ।
मधु-मानस-मण्डप में अब हम मधुरिम-मधुरिम लें ।।
सस्वर मंत्रगान सा करते बन पर्जन्य-पुरोहित,
अभिमंत्रित अमृत वर्षण कर करते ताप तिरोहित ।
मधुर-मिलन के परम वचन हम सप्तपदी पर बोलें ।।
देखो हरित् धरित्री पर अति हर्षित नील गगन है ,
क्षितिज पार आलिंगन करता कैसा मुदित मगन है ।
आओ हम भी बीज आज अद्वैत प्रेम का बो लें ।।
देख रही ये अपलक सुभगा ले हिय प्रिय उन्माद
मदिर मदिर ये अधर चाहते केवल प्रेम-प्रसाद ।
हीरक-हार हृदय सुन्दरतम हर अवगुण्ठन खोलें ।।
परिणय के धागे में प्रियतम प्रणय-प्रसून पिरो लें ।
मधु-मानस-मण्डप में अब हम मधुरिम-मधुरिम लें ।।
सस्वर मंत्रगान सा करते बन पर्जन्य-पुरोहित,
अभिमंत्रित अमृत वर्षण कर करते ताप तिरोहित ।
मधुर-मिलन के परम वचन हम सप्तपदी पर बोलें ।।
देखो हरित् धरित्री पर अति हर्षित नील गगन है ,
क्षितिज पार आलिंगन करता कैसा मुदित मगन है ।
आओ हम भी बीज आज अद्वैत प्रेम का बो लें ।।
देख रही ये अपलक सुभगा ले हिय प्रिय उन्माद
मदिर मदिर ये अधर चाहते केवल प्रेम-प्रसाद ।
हीरक-हार हृदय सुन्दरतम हर अवगुण्ठन खोलें ।।
प्रेम धुर से जुड़ा जीवन धरम
आचार्य संदीप कुमार त्यागी "दीप"
केंद्र में स्वार्थ परिधि पै धरकर अहम्।
खींचना प्रेम का वृत्त केवल वहम।।
व्यास है वासना-पूर्ण-वृत्ति विकट।
होती संकीर्णता हाय हरेक प्रकट।।
चाप चुपचाप हा ! पापमय हैं धरे
चक्रवत् घूमें - विक्षिप्त सब श्वान -सम।।
प्रेम-त्रिज्या बिना बिंदु बिंदु रहे
सिकता सिंधु में ना नाव बंधु बहे।
वक्र निष्ठुर शनि के वलय सी गति
हा! गति! वृत्त-जीवन गया है सहम।।
क्रोध से मोह और मोह से विस्मरण,
विस्मरण की वजह बुद्धि का अपहरण।
बुद्धि के अपहरण से मरण के करण
निम्नयोनि में और फिर जनम पर जनम।।
चलती चक्रारपंक्ति सी क्यूँ ज़िदगी,
मौत से जाती यूँ हार क्यूँ ज़िदगी।
सब का सब राज़ पूरा खुला आज है,
प्रेम धुर से जुड़ा सारा जीवन धरम।।
केंद्र में स्वार्थ परिधि पै धरकर अहम्।
खींचना प्रेम का वृत्त केवल वहम।।
व्यास है वासना-पूर्ण-वृत्ति विकट।
होती संकीर्णता हाय हरेक प्रकट।।
चाप चुपचाप हा ! पापमय हैं धरे
चक्रवत् घूमें - विक्षिप्त सब श्वान -सम।।
प्रेम-त्रिज्या बिना बिंदु बिंदु रहे
सिकता सिंधु में ना नाव बंधु बहे।
वक्र निष्ठुर शनि के वलय सी गति
हा! गति! वृत्त-जीवन गया है सहम।।
क्रोध से मोह और मोह से विस्मरण,
विस्मरण की वजह बुद्धि का अपहरण।
बुद्धि के अपहरण से मरण के करण
निम्नयोनि में और फिर जनम पर जनम।।
चलती चक्रारपंक्ति सी क्यूँ ज़िदगी,
मौत से जाती यूँ हार क्यूँ ज़िदगी।
सब का सब राज़ पूरा खुला आज है,
प्रेम धुर से जुड़ा सारा जीवन धरम।।
प्रेम की व्युत्पत्ति
आचार्य संदीप कुमार त्यागी "दीप"
मौन भाषा जटिल व्याकरण प्रेम का,
है बहुत ही कठिन आचरण प्रेम का।
कर लिया वासना ने हरण प्रेम का,
दिल की सच्चाई रोके क्षरण प्रेम का।
जब किसी से नयन चार होने लगें,
स्वप्न-संसार साकार होने लगें।
और खोने लगे दिल किसी के लिए
तब समझना नया अंकुरण प्रेम का।
तन से तन का मिलन तो क्षणिक खेल है,
मन से मन का मिलन ही सही मेल है।
मेल जब ये परम आत्मिक हो चले,
तब ही सजता है वातावरण प्रेम का।
प्रेम है एक तपस्या नहीं पर सरल,
प्रेम है हर समस्या का हल दरअसल।
कब कुटिल मन बना उद्धरण प्रेम का,
पालना है न आसान प्रण प्रेम का।
राह तलवार की धार-सी तेज है,
इसकी जहरीले काँटों भरी सेज है।
पाप से ढोंग से सख़्त परहेज़ है,
मत बढ़ा औ’ बुज़दिल चरण प्रेम का।।
मौन भाषा जटिल व्याकरण प्रेम का,
है बहुत ही कठिन आचरण प्रेम का।
कर लिया वासना ने हरण प्रेम का,
दिल की सच्चाई रोके क्षरण प्रेम का।
जब किसी से नयन चार होने लगें,
स्वप्न-संसार साकार होने लगें।
और खोने लगे दिल किसी के लिए
तब समझना नया अंकुरण प्रेम का।
तन से तन का मिलन तो क्षणिक खेल है,
मन से मन का मिलन ही सही मेल है।
मेल जब ये परम आत्मिक हो चले,
तब ही सजता है वातावरण प्रेम का।
प्रेम है एक तपस्या नहीं पर सरल,
प्रेम है हर समस्या का हल दरअसल।
कब कुटिल मन बना उद्धरण प्रेम का,
पालना है न आसान प्रण प्रेम का।
राह तलवार की धार-सी तेज है,
इसकी जहरीले काँटों भरी सेज है।
पाप से ढोंग से सख़्त परहेज़ है,
मत बढ़ा औ’ बुज़दिल चरण प्रेम का।।
प्रणय गीत
आचार्य संदीप कुमार त्यागी "दीप"
मन पंछी के कभी कल्पना पंखों को सहलाये,
बन कर कभी किरण आशा की अरुण नभस पर छाये।
स्वप्न-सुन्दरी सपनों में तू प्रेम सुधा बरसाये,
रचना गीत प्रणय के कविवर! कह मुझको उकसाये।।
कुंचित स्वर्ण केश अवगुंठन तेरे चंद्र वदन का,
यदि देख ले भरमा जाये चंदा नील गगन का।
इठलाये इतराये जब तू मन ही मन मुसकाये,
कामदेव का तरकस खाली तीरों से हो जाये।।
कोमल कमल करों में कंचन कामिनी कलश उठाकर,
छलक छलक छलकाकर मदिरा रूप मधुप मन भाकर।
नम्र पयोधर तृषित अधर धर नव उल्लास जगाये,
रोम रोम में प्यास प्रेम की तू अद्भुत भड़ाकाये।।
प्राण प्रिये सच! प्रण करता हूँ प्रणय गीत प्रणयन का,
रसिक बना ले पर मुझको तू निज सौंदर्य सुमन का।
गूँजे प्रणय गीत मेरा यति, गति, लय, सुर मिल जाये,
प्रेम ताल पै यदि झूम तू बाँहों में आ जाये।।
मन पंछी के कभी कल्पना पंखों को सहलाये,
बन कर कभी किरण आशा की अरुण नभस पर छाये।
स्वप्न-सुन्दरी सपनों में तू प्रेम सुधा बरसाये,
रचना गीत प्रणय के कविवर! कह मुझको उकसाये।।
कुंचित स्वर्ण केश अवगुंठन तेरे चंद्र वदन का,
यदि देख ले भरमा जाये चंदा नील गगन का।
इठलाये इतराये जब तू मन ही मन मुसकाये,
कामदेव का तरकस खाली तीरों से हो जाये।।
कोमल कमल करों में कंचन कामिनी कलश उठाकर,
छलक छलक छलकाकर मदिरा रूप मधुप मन भाकर।
नम्र पयोधर तृषित अधर धर नव उल्लास जगाये,
रोम रोम में प्यास प्रेम की तू अद्भुत भड़ाकाये।।
प्राण प्रिये सच! प्रण करता हूँ प्रणय गीत प्रणयन का,
रसिक बना ले पर मुझको तू निज सौंदर्य सुमन का।
गूँजे प्रणय गीत मेरा यति, गति, लय, सुर मिल जाये,
प्रेम ताल पै यदि झूम तू बाँहों में आ जाये।।
तुम्हारे प्यार से
आचार्य संदीप कुमार त्यागी "दीप"
पुर सकूँ होती है रुह मेरी तेरे दीदार से।
बन गये आँसू मेरे मोती, तुम्हारे प्यार से।।
मैं निष्ठुर तन्हाई के सूखे में व्याकुल था मगर।
तुम सघन-सावन-सरिस, बरसे सरस-रसधार-से।।
ज़िन्दगी मे छा रहा था इक अजब पतझार-सा।
आ खिलाये फूल खुशियों के बसंत बहार से।।
हम पुकारें तुमको क्या कहकर हमें बतलाइये।
लगते हो वैसे तो तुम मुझको मेरे संसार से।।
रोशनी कब तक अरे! रहती भला इस दीप की।
जल रहा यह "दीप" तेरे स्नेह के आधार से।।
पुर सकूँ होती है रुह मेरी तेरे दीदार से।
बन गये आँसू मेरे मोती, तुम्हारे प्यार से।।
मैं निष्ठुर तन्हाई के सूखे में व्याकुल था मगर।
तुम सघन-सावन-सरिस, बरसे सरस-रसधार-से।।
ज़िन्दगी मे छा रहा था इक अजब पतझार-सा।
आ खिलाये फूल खुशियों के बसंत बहार से।।
हम पुकारें तुमको क्या कहकर हमें बतलाइये।
लगते हो वैसे तो तुम मुझको मेरे संसार से।।
रोशनी कब तक अरे! रहती भला इस दीप की।
जल रहा यह "दीप" तेरे स्नेह के आधार से।।
तेरी मर्जी
आचार्य संदीप कुमार त्यागी "दीप"
उधर ही चलेंगे जिधर ले चले तू।
हमें इससे क्या कि किधर ले चले तू॥
सही ले चले तू गलत ले चले तू।
न हो तेरी मर्जी तो मत ले चले तू॥
नहीं ना नुकुर या कोई नाज नख़रा।
करेंगे कभी जिस डगर ले चले तू॥
पड़े बस रहेंगे यूँहि तेरे दर पर।
जो दर दर की ठोकर में सर ले चले तू॥
जमीं से जहन्नुम जहन्नुम से जन्नत।
है तेरी खुशी जिस भी घर ले चले तू॥
बड़े नासमझ हम ना समझें इशारा।
हिफ़ाजत में अपनी मगर ले चले तू॥
कि कर ही चुके नैय्या तेरे हवाले।
किनारे लगा या भँवर ले चले तू॥
उधर ही चलेंगे जिधर ले चले तू।
हमें इससे क्या कि किधर ले चले तू॥
सही ले चले तू गलत ले चले तू।
न हो तेरी मर्जी तो मत ले चले तू॥
नहीं ना नुकुर या कोई नाज नख़रा।
करेंगे कभी जिस डगर ले चले तू॥
पड़े बस रहेंगे यूँहि तेरे दर पर।
जो दर दर की ठोकर में सर ले चले तू॥
जमीं से जहन्नुम जहन्नुम से जन्नत।
है तेरी खुशी जिस भी घर ले चले तू॥
बड़े नासमझ हम ना समझें इशारा।
हिफ़ाजत में अपनी मगर ले चले तू॥
कि कर ही चुके नैय्या तेरे हवाले।
किनारे लगा या भँवर ले चले तू॥
जीवन में प्रेम संजीवन है
आचार्य संदीप कुमार त्यागी "दीप"
स्वर्णिम कुच कलशों पर कुंचित,
कच कामिनी क्यों लटकाती हो।
अलि युगल बना दौवारिक उर
गज गामिनी क्यों इठलाती हो।
सद्यःस्नाता तन्वी अनुपम
देह दामिनी क्यों दमकाती हो।
अभिलषित समागम यदि सुन्दर-
भ्रू भामिनी क्यों मटकाती हो॥
नव तरुणी तव अरुणाभ अधर
मधुरिम मधुरिम तरुणाए हैं।
कोमल कमनीय कमल कलि के
नव पाँखुर से अरुणाए हैं॥
पीने को प्रेम पराग रसिक
मन भ्रमर भाव अकुलाए हैं।
संस्पर्श सुखद सौवर्णी सुधा
चुम्बन को हम ललचाए हैं॥
सामीप्य समागम की वेला
में तन से तन आलिंगित हो।
मन मिलन मधुर हो रुचिर सुचिर
तादात्म्य परम का इंगित हो॥
कर लें आओ हम बीज वपन
आनन्द भुवि अनुप्राणित हो।
जीवन में प्रेम संजीवन है
जगती में स्वतः प्रमाणित हो॥
स्वर्णिम कुच कलशों पर कुंचित,
कच कामिनी क्यों लटकाती हो।
अलि युगल बना दौवारिक उर
गज गामिनी क्यों इठलाती हो।
सद्यःस्नाता तन्वी अनुपम
देह दामिनी क्यों दमकाती हो।
अभिलषित समागम यदि सुन्दर-
भ्रू भामिनी क्यों मटकाती हो॥
नव तरुणी तव अरुणाभ अधर
मधुरिम मधुरिम तरुणाए हैं।
कोमल कमनीय कमल कलि के
नव पाँखुर से अरुणाए हैं॥
पीने को प्रेम पराग रसिक
मन भ्रमर भाव अकुलाए हैं।
संस्पर्श सुखद सौवर्णी सुधा
चुम्बन को हम ललचाए हैं॥
सामीप्य समागम की वेला
में तन से तन आलिंगित हो।
मन मिलन मधुर हो रुचिर सुचिर
तादात्म्य परम का इंगित हो॥
कर लें आओ हम बीज वपन
आनन्द भुवि अनुप्राणित हो।
जीवन में प्रेम संजीवन है
जगती में स्वतः प्रमाणित हो॥
जाग मनवा जाग
आचार्य संदीप कुमार त्यागी "दीप"
जाग जाग जाग मनवा जाग जाग जाग,
नींद ये अज्ञान की तू त्याग त्याग त्याग।
देह गेह में सुलग रही है देख काम –
वासना की आग से बच भाग भाग भाग॥
लोभ क्रोध मोह मद हैं दुष्ट भस्मासुर
भोले भाले भोले शंभू होले तू चतुर।
मोहिनी उमा बनेंगे विष्णु नहीं आज
चेत चेत डस न लें तुझे तेरे ही नाग॥
धर्म चेतना विवेक सच्चे मित्र हैं
भ्रम नहीं भव सिंधु में भँवर विचित्र हैं।
है आग का दरिया न लिपट लपटों में लंपट
माया से रहना सावधान संग नहीं लाग॥
तृष्णा तुझे दौड़ा रही मृग सी हरेक दम
जग मृग मरीचिका से बच ले तू कदम कदम।
वरना तेरा वज़ूद जल्द खो ये जाएगा।
पापों के गर्त में गिराएगा तुझे रँग राग॥
जाग जाग जाग मनवा जाग जाग जाग,
नींद ये अज्ञान की तू त्याग त्याग त्याग।
देह गेह में सुलग रही है देख काम –
वासना की आग से बच भाग भाग भाग॥
लोभ क्रोध मोह मद हैं दुष्ट भस्मासुर
भोले भाले भोले शंभू होले तू चतुर।
मोहिनी उमा बनेंगे विष्णु नहीं आज
चेत चेत डस न लें तुझे तेरे ही नाग॥
धर्म चेतना विवेक सच्चे मित्र हैं
भ्रम नहीं भव सिंधु में भँवर विचित्र हैं।
है आग का दरिया न लिपट लपटों में लंपट
माया से रहना सावधान संग नहीं लाग॥
तृष्णा तुझे दौड़ा रही मृग सी हरेक दम
जग मृग मरीचिका से बच ले तू कदम कदम।
वरना तेरा वज़ूद जल्द खो ये जाएगा।
पापों के गर्त में गिराएगा तुझे रँग राग॥
Sunday, January 18, 2009
कुछ मंदिरों के अंदर
आचार्य संदीप कुमार त्यागी "दीप"
बगुले भगत हैं मंदिरों में टूटने।
देखो प्रसाद के लिए सर फूटने लगे।
दंगा फ़साद है कहीं, कहीं पै हो हल्ला।
भगवान के, भक्तों के छक्के छूटने लगे॥
काजू की बर्फीयों के डब्बे ले उड़ा कोई।
कोई खड़ा चने लिए है जूठनें लगे॥
बकबक करे कोई, कोई और दे रहा धक्का
गंदे कोई हैं हाथ कलश घूँटने लगे॥
पण्डित सभी खण्डित, जनेऊ है नहीं शिखा।
पढ़ते हैं ऐसे मंत्र, वेद रूठने लगे॥
पूजा में ध्यान मंत्र से बढ़कर है दक्षिणा।
चक्कर में दक्षिणा के चाल कूटने लगे॥
विद्वान विप्र संत का कटता टिकट हवई।
परधान बने चोर सब खसूटने लगे॥
कैसे टिकेंगे देवता देवालयों में आज।
हैं लाज सब भगवान की भी लूटने लगे॥
बगुले भगत हैं मंदिरों में टूटने।
देखो प्रसाद के लिए सर फूटने लगे।
दंगा फ़साद है कहीं, कहीं पै हो हल्ला।
भगवान के, भक्तों के छक्के छूटने लगे॥
काजू की बर्फीयों के डब्बे ले उड़ा कोई।
कोई खड़ा चने लिए है जूठनें लगे॥
बकबक करे कोई, कोई और दे रहा धक्का
गंदे कोई हैं हाथ कलश घूँटने लगे॥
पण्डित सभी खण्डित, जनेऊ है नहीं शिखा।
पढ़ते हैं ऐसे मंत्र, वेद रूठने लगे॥
पूजा में ध्यान मंत्र से बढ़कर है दक्षिणा।
चक्कर में दक्षिणा के चाल कूटने लगे॥
विद्वान विप्र संत का कटता टिकट हवई।
परधान बने चोर सब खसूटने लगे॥
कैसे टिकेंगे देवता देवालयों में आज।
हैं लाज सब भगवान की भी लूटने लगे॥
कहाँ भारतीयपन पनपा है हम में
आचार्य संदीप कुमार त्यागी "दीप"
परतन्त्रता की कट गईं शृंखलाएँ किंतु
परजीवीपन खूब पनपा है हम में॥
लालाटिक बन ताकते विदेशी ताक़तों को
अभी निजपन कहाँ पनपा है हम में॥
आँख हैं हमारी किंतु ख़्वाब सारे अमरीकी
अपना सपन कहाँ पनपा है हम में॥
पनपा बंगाली सिंधी मराठी पंजाबीपन
कहाँ भारतीयपन पनपा है हम में॥
भारत हुआ है बूढ़ा, सोया हिन्दुस्तान जवाँ
इंडिया हसीना हाय! बड़ी छेड़छाड़ है॥
चीन ने ली चुनरी उतार, तार तार करी
पाक चोली दाग दाग हुई मार धाड़ है॥
दहशतगर्द पाक-नाम ले जेहाद का यूँ
खून कर रहा हर, मजहबी आड़ है॥
मारकर सेंध देखो घुस आया कँगला बंग्ला
साफ साफ दामन को ताकने की ताड़ है॥
परतन्त्रता की कट गईं शृंखलाएँ किंतु
परजीवीपन खूब पनपा है हम में॥
लालाटिक बन ताकते विदेशी ताक़तों को
अभी निजपन कहाँ पनपा है हम में॥
आँख हैं हमारी किंतु ख़्वाब सारे अमरीकी
अपना सपन कहाँ पनपा है हम में॥
पनपा बंगाली सिंधी मराठी पंजाबीपन
कहाँ भारतीयपन पनपा है हम में॥
भारत हुआ है बूढ़ा, सोया हिन्दुस्तान जवाँ
इंडिया हसीना हाय! बड़ी छेड़छाड़ है॥
चीन ने ली चुनरी उतार, तार तार करी
पाक चोली दाग दाग हुई मार धाड़ है॥
दहशतगर्द पाक-नाम ले जेहाद का यूँ
खून कर रहा हर, मजहबी आड़ है॥
मारकर सेंध देखो घुस आया कँगला बंग्ला
साफ साफ दामन को ताकने की ताड़ है॥
कलयुग की मार
आचार्य संदीप कुमार त्यागी "दीप"
ज़िन्दगी मर गई बस मौत यहाँ ज़िन्दा है,
क्या वो अल्लाह ही इस दुनिया का कारिन्दा है।
चर्चा दीनों-ईमान की जमीं पे मत करना,
मजहबी हरकतों से आसमां शर्मिन्दा है।
मुल्क के मुल्क जल रहे जिहादी भट्टी में,
मुर्दों की याद में दफनाए ज़िन्दा मट्टी में।
कहीं पे लाश अरे! मिल सकी नहीं पुख़्ता,
लहू में लोथड़े सने हैं, हाय! दिल दुखता।।
हाथ हैं पैर हैं मगर कहीं नहीं सर है,
धड़ ही धड़ है लुढ़क रहा कहीं जमीं पर है,
मारे दहशत के बना आदमी पुलिन्दा है।।
गुण्डे बदमाश वहशी मन्दिरों के हिस्से हैं,
कलयुगी साधुओं के पाप भरे किस्से हैं।
भोली जनता को खुलआम खूब ठगते हैं,
हुक्म से इनके ही भगवान सोते-जगते हैं।
धर्म के नाम पर घटिया सियासती धन्धे,
रहनुमा कर रहे हैं पाप गन्दे से गन्दे।
बैठा इन्साफ़ की हर कुर्सी पे दरिन्दा है।।
मछलियों-सी तड़पती औरतें लिए अस्मत,
निगलें घड़ियाल घर के हाय! फूटी है किस्मत।
ताक में बैठे हैं बगुले बहुत बाहर जल के,
आवें कैसे किनारे पर उछलके या छलके?
रोज़ हे सोखता कानून का सूरज पानी,
जाल में मुश्किलों के फँसी मछली रानी।
सोचती है - बहुत अच्छा है, जो परिन्दा है।।
ज़िन्दगी मर गई बस मौत यहाँ ज़िन्दा है,
क्या वो अल्लाह ही इस दुनिया का कारिन्दा है।
चर्चा दीनों-ईमान की जमीं पे मत करना,
मजहबी हरकतों से आसमां शर्मिन्दा है।
मुल्क के मुल्क जल रहे जिहादी भट्टी में,
मुर्दों की याद में दफनाए ज़िन्दा मट्टी में।
कहीं पे लाश अरे! मिल सकी नहीं पुख़्ता,
लहू में लोथड़े सने हैं, हाय! दिल दुखता।।
हाथ हैं पैर हैं मगर कहीं नहीं सर है,
धड़ ही धड़ है लुढ़क रहा कहीं जमीं पर है,
मारे दहशत के बना आदमी पुलिन्दा है।।
गुण्डे बदमाश वहशी मन्दिरों के हिस्से हैं,
कलयुगी साधुओं के पाप भरे किस्से हैं।
भोली जनता को खुलआम खूब ठगते हैं,
हुक्म से इनके ही भगवान सोते-जगते हैं।
धर्म के नाम पर घटिया सियासती धन्धे,
रहनुमा कर रहे हैं पाप गन्दे से गन्दे।
बैठा इन्साफ़ की हर कुर्सी पे दरिन्दा है।।
मछलियों-सी तड़पती औरतें लिए अस्मत,
निगलें घड़ियाल घर के हाय! फूटी है किस्मत।
ताक में बैठे हैं बगुले बहुत बाहर जल के,
आवें कैसे किनारे पर उछलके या छलके?
रोज़ हे सोखता कानून का सूरज पानी,
जाल में मुश्किलों के फँसी मछली रानी।
सोचती है - बहुत अच्छा है, जो परिन्दा है।।
उद्बोधन:आध्यात्मिक
आचार्य संदीप कुमार त्यागी "दीप"
कही संतों की तू, अरे! मान सच ले ।
महाठगनी जगन्माया से बच ले ।।
नहीं भरमा स्वयं को और इसमें ।
जतन ऐसा कोई कर मन न मचले ।।
हरेक भोला भला मासूम चेहरा ।
न जाने कब कुटिलतम चाल रच ले ।।
मूँदके आँख मत विश्वासकर तू ।
मान वो बात जो सच्ची हो जँच ले ।।
नशे में नाचती हर इक जवानी ।
कहाँ बिरला बुढ़ापा है? जो नच ले ।।
कभी ना भूल क्षण भंगुर है जीवन ।
गया हर कर्ण आया जो कवच ले ।।
कही संतों की तू, अरे! मान सच ले ।
महाठगनी जगन्माया से बच ले ।।
नहीं भरमा स्वयं को और इसमें ।
जतन ऐसा कोई कर मन न मचले ।।
हरेक भोला भला मासूम चेहरा ।
न जाने कब कुटिलतम चाल रच ले ।।
मूँदके आँख मत विश्वासकर तू ।
मान वो बात जो सच्ची हो जँच ले ।।
नशे में नाचती हर इक जवानी ।
कहाँ बिरला बुढ़ापा है? जो नच ले ।।
कभी ना भूल क्षण भंगुर है जीवन ।
गया हर कर्ण आया जो कवच ले ।।
अभिनन्दन
आचार्य संदीप कुमार त्यागी "दीप"
दिया नेक वारि-दान वट-द्रुम-दल-को औ,
गुरुकुल वाटिका जिलाये खूब हरि हैं।
हरियाली हरि-तृतीया है ये निराली अहो,
महिमा अनूठी दिखलायें खूब हरि हैं।।
काट छाँट डाले कोटि-कोटि कष्ट कण्टक हैं,
फूल खुशियों के ये खिलाये खूब हरि हैं।
सहृदय हृदय है हरि दर्श पाके ’दीप’
हरे हरि हरि से मिलाये खूब हरि हैं।।
हरि के इशारे बिना इस जहाँ में किसी के,
जीवन का नहीं चला स्यंदन है करता।
प्राणों का भी प्राण प्राणी पाते सभी त्राण हरि,
बिन कौन प्राणी यहाँ स्पन्दन करता।।
चन्द नहीं चन्दन है हरि भाव चन्दन है,
धूपदीप बिना ’दीप’ वन्दन है करता।
आनन्दित हो उठा है हरि दर्श पाके तव,
नन्दन सुमन अभिनन्दन है करता।।
दिया नेक वारि-दान वट-द्रुम-दल-को औ,
गुरुकुल वाटिका जिलाये खूब हरि हैं।
हरियाली हरि-तृतीया है ये निराली अहो,
महिमा अनूठी दिखलायें खूब हरि हैं।।
काट छाँट डाले कोटि-कोटि कष्ट कण्टक हैं,
फूल खुशियों के ये खिलाये खूब हरि हैं।
सहृदय हृदय है हरि दर्श पाके ’दीप’
हरे हरि हरि से मिलाये खूब हरि हैं।।
हरि के इशारे बिना इस जहाँ में किसी के,
जीवन का नहीं चला स्यंदन है करता।
प्राणों का भी प्राण प्राणी पाते सभी त्राण हरि,
बिन कौन प्राणी यहाँ स्पन्दन करता।।
चन्द नहीं चन्दन है हरि भाव चन्दन है,
धूपदीप बिना ’दीप’ वन्दन है करता।
आनन्दित हो उठा है हरि दर्श पाके तव,
नन्दन सुमन अभिनन्दन है करता।।
Valentine
I did not buy a rose, card or any gift.
For sure a heavy golden ring, I could never lift.
To shift their valentine’s heart.
Crazy lovers tried today to be smart.
Business minds, multi national companies,
Played well ha ha ha, weird symphonies.
Today every mall, was full with brands.
Every penny was going to buy love grants.
But I didn’t bring any of those things.
To win my love’s love, I gave a string.
And tied from her heart to my heart.
Not only for today, for we will never part.
I showed to her my hunger
During practice of yoga’s Iyengar
Midnight 12:00 O’ clock, within our talk.
She told me together, forever we will walk.
For sure a heavy golden ring, I could never lift.
To shift their valentine’s heart.
Crazy lovers tried today to be smart.
Business minds, multi national companies,
Played well ha ha ha, weird symphonies.
Today every mall, was full with brands.
Every penny was going to buy love grants.
But I didn’t bring any of those things.
To win my love’s love, I gave a string.
And tied from her heart to my heart.
Not only for today, for we will never part.
I showed to her my hunger
During practice of yoga’s Iyengar
Midnight 12:00 O’ clock, within our talk.
She told me together, forever we will walk.
SeaDeep
May be up there is so much to see in the sea.
Sweetie up here is much too to see if you see.
Salty Warm Ocean waters if attracting you.
Carefully play my Sweetheart so much I love you.
Enjoy yours tropical days O my Snow white.
I’m so cool, may be that’s why? You went there, right?
Up here no heat of hugs everything’s so cold.
Volcano of your absence no more, I can’t hold.
Can you imagine? During snowfall , in the freezing rain.
Heart is melting like an ocean, tear are falling again.
Sweetie up here is much too to see if you see.
Salty Warm Ocean waters if attracting you.
Carefully play my Sweetheart so much I love you.
Enjoy yours tropical days O my Snow white.
I’m so cool, may be that’s why? You went there, right?
Up here no heat of hugs everything’s so cold.
Volcano of your absence no more, I can’t hold.
Can you imagine? During snowfall , in the freezing rain.
Heart is melting like an ocean, tear are falling again.
IT IS LOVE
Once you realize you have it, you will never loose .
It is alive as you awaken and even while you snooze.
It can not be separate, there’s no distance between.
Galaxies can merge into it, yet space you still may choose.
It’s ancient, evergreen and fresh,
like a baby sun Rising with news
It is minute of huge life, beyond language,
Expression of heart. Makes happy soul’s tissues,
It is not light love, it’s love’s light
To delight divine path, It may you choose.
~DeepOne
It is alive as you awaken and even while you snooze.
It can not be separate, there’s no distance between.
Galaxies can merge into it, yet space you still may choose.
It’s ancient, evergreen and fresh,
like a baby sun Rising with news
It is minute of huge life, beyond language,
Expression of heart. Makes happy soul’s tissues,
It is not light love, it’s love’s light
To delight divine path, It may you choose.
~DeepOne
Hope of Rope, Rope of Hope
Hope is a rope, to be free.
Life is a mountain, not just a tree.
Keep head safe, from stones of doubt.
Hook on strong will, no cry, no shout.
Don’t think problems are just knots.
Get a grip, stand on, hold no thoughts.
Of course climbing is very tough.
Transcend fear of not being enough.
Deep one faith will make you free.
Climb life’s mountain just like a tree.
Life is a mountain, not just a tree.
Keep head safe, from stones of doubt.
Hook on strong will, no cry, no shout.
Don’t think problems are just knots.
Get a grip, stand on, hold no thoughts.
Of course climbing is very tough.
Transcend fear of not being enough.
Deep one faith will make you free.
Climb life’s mountain just like a tree.
Fire of desire
You inspire my fire of desire
To see the entire universe in love.
Stars, fish, deer,
Shine, swim, cheer,
on kisses of the dove.
Hot rebellious rivers
break ice with waves that shiver.
To become lost in wondrous waves
make each heart quiver.
I admire emotions require
Existence of replier
In Love…
Like a blossoming flower
Expects power
Of honey bee from above.
I heard a choir without wire
No amplifier
Chirping without tire
In forest, for rest
Of life in best, In Love.
To see the entire universe in love.
Stars, fish, deer,
Shine, swim, cheer,
on kisses of the dove.
Hot rebellious rivers
break ice with waves that shiver.
To become lost in wondrous waves
make each heart quiver.
I admire emotions require
Existence of replier
In Love…
Like a blossoming flower
Expects power
Of honey bee from above.
I heard a choir without wire
No amplifier
Chirping without tire
In forest, for rest
Of life in best, In Love.
Oh Holy Candle ! Continue….
Continue, Continue Oh Holy Candle Continue
Every Moment, Every Pulse, Illuminate something new.
Open heart, don’t be tight, fly so high like a kite.
Everywhere spread your light, your pure spirit ever bright.
Matters not, day or night, Glory of Thee keep in you.
String of strength is your wick, fuel of feeling’s poetic.
tic, tic, tic; click, click, click, passing time, candlestick.
Hold in you, hold in you, oh holy candle hold in you.
Autumn winter seclusion, spring and summer explosion
Every Season with Reason, Every Reason with Season
Reason Season, See! In you, you enlight every view.
Thunderstorms, Tidal waves, Shaking Cosmos Chaos craves.
Wild winds grab All slaves, So be strong free from graves.
Deepest Deep try to keep, Never Lose ~Deepone True.
~DeepOne
Every Moment, Every Pulse, Illuminate something new.
Open heart, don’t be tight, fly so high like a kite.
Everywhere spread your light, your pure spirit ever bright.
Matters not, day or night, Glory of Thee keep in you.
String of strength is your wick, fuel of feeling’s poetic.
tic, tic, tic; click, click, click, passing time, candlestick.
Hold in you, hold in you, oh holy candle hold in you.
Autumn winter seclusion, spring and summer explosion
Every Season with Reason, Every Reason with Season
Reason Season, See! In you, you enlight every view.
Thunderstorms, Tidal waves, Shaking Cosmos Chaos craves.
Wild winds grab All slaves, So be strong free from graves.
Deepest Deep try to keep, Never Lose ~Deepone True.
~DeepOne
Please lead me”
Please lead me, yes lead me, now lead me, Captain (x2)
Now lead me Captain, through your free will…
Admire, No desire, No wish, Nor my will
Please lead me, yes lead me, now lead me, Captain
~
I have left completely, in your hands my boat.
If you feel drown me down, uplift me, or float.
I find joy by the shore, dancing waves, fullfill.
Oh Captain, yes lead me, now lead me, through your will.
~
With laughter I enjoy good times, bad times I smiled,
I kept on, from your sign, my journey’s been mild.
I found in heaven, as well as hell’s hill,
devotees plead, often need, to reach their destinies.
So many pray at your door, adorable Lord, on bended knees.
But I find etternally, joy within your will.
~
Lead me here, Lead me there, Wherever you feel, Lead me there.
Lead me right, Lead me wrong. If you don’t care, lead me nowhere.
Your company is blissful, when moving or still…
Please lead me, yes lead me, now lead me, Captain….
Now lead me Captain, through your free will…
Admire, No desire, No wish, Nor my will
Please lead me, yes lead me, now lead me, Captain
~
I have left completely, in your hands my boat.
If you feel drown me down, uplift me, or float.
I find joy by the shore, dancing waves, fullfill.
Oh Captain, yes lead me, now lead me, through your will.
~
With laughter I enjoy good times, bad times I smiled,
I kept on, from your sign, my journey’s been mild.
I found in heaven, as well as hell’s hill,
devotees plead, often need, to reach their destinies.
So many pray at your door, adorable Lord, on bended knees.
But I find etternally, joy within your will.
~
Lead me here, Lead me there, Wherever you feel, Lead me there.
Lead me right, Lead me wrong. If you don’t care, lead me nowhere.
Your company is blissful, when moving or still…
Please lead me, yes lead me, now lead me, Captain….
How Deep
A floating cloud reflecting in the sea
One fish says “How deep?”
“I don’t know You are in the ocean”
She replied “Of my question, you’ve not a notion”
Maybe you’re right I thought
But think like me…
Am I floating in you or are you floating in me?
How is it possible I’m SOOO far.
Can’t you see me?
Yes I can see you, See you in the sea.
That’s why I ask “How deep is thee?”
Why do you think you are Sooo far?
Are you not a sea’s son?
Soon if you’ll search the theory of monsoon
You will realize you’re not just a cloud
You are thy son and for me a boon.
I live in you, you live in me
You melt for me
I felt for you
You are nearest near
You are dearest dear
Around me, you are here.
If you don’t believe, and want to prove
Ask for birds or butterflies, they will approve.
You are in me, I am in you.
So feel How Deep…
One fish says “How deep?”
“I don’t know You are in the ocean”
She replied “Of my question, you’ve not a notion”
Maybe you’re right I thought
But think like me…
Am I floating in you or are you floating in me?
How is it possible I’m SOOO far.
Can’t you see me?
Yes I can see you, See you in the sea.
That’s why I ask “How deep is thee?”
Why do you think you are Sooo far?
Are you not a sea’s son?
Soon if you’ll search the theory of monsoon
You will realize you’re not just a cloud
You are thy son and for me a boon.
I live in you, you live in me
You melt for me
I felt for you
You are nearest near
You are dearest dear
Around me, you are here.
If you don’t believe, and want to prove
Ask for birds or butterflies, they will approve.
You are in me, I am in you.
So feel How Deep…
Love is leading
Love is leading us, on the path to Infinite bliss
Time is reading us, a tale of an Endless kiss
Behind each cloud is, God’s rays of Golden sun
Each grain of sand holds, prints since we’ve began
Thy is feeding us, An Omnipresent wish
To fill each heart, with a Universal dish…
Time is reading us, a tale of an Endless kiss
Behind each cloud is, God’s rays of Golden sun
Each grain of sand holds, prints since we’ve began
Thy is feeding us, An Omnipresent wish
To fill each heart, with a Universal dish…
योग भगाये रोग
कपालभाति भस्त्रिकानुलोम औ विलोम सब
प्राणायाम करके मस्त तन्दरुस्ती पाइये।
आइये हुजूर ईस्ट एबनेज़र गोर रोड
प्लाज़ा यूनिट थर्टी टू में योग करने आइये।
बच्चे बूढ़े और जवान उम्र के हिसाब से
योग हैं अलग अलग आज आजमाइये।
योगा फ़ोर यू सिक्स फ़ोर सेवन टूएट टू
टू फ़ाइव टू नाइन फ़ोन पर डिजिट सभी घुमाइये।
याफ़िर फ्रीडमयोगा डॉट सीए वैबसाइट पर
जाके जानकारी अजी पूरी पूरी पाइये।
प्राणायाम करके मस्त तन्दरुस्ती पाइये।
आइये हुजूर ईस्ट एबनेज़र गोर रोड
प्लाज़ा यूनिट थर्टी टू में योग करने आइये।
बच्चे बूढ़े और जवान उम्र के हिसाब से
योग हैं अलग अलग आज आजमाइये।
योगा फ़ोर यू सिक्स फ़ोर सेवन टूएट टू
टू फ़ाइव टू नाइन फ़ोन पर डिजिट सभी घुमाइये।
याफ़िर फ्रीडमयोगा डॉट सीए वैबसाइट पर
जाके जानकारी अजी पूरी पूरी पाइये।
दीपावल्यै नमो नम:
आचार्य संदीप कुमार त्यागी “दीप”
www.freedomyoga.ca
विश्व की समस्त संस्कृतियों पर आधारित आज तक अस्तित्व में आईं सभी मानव सभ्यताओं का सदैव यह प्रयास रहा है कि जीवन को किस तरह एक उत्सव बनाया जा सके।बस इसी वजह से संसार के समस्त सभ्य सामाजिक परिवेश में व्रत पर्वों की परिकल्पना साकार हुई। भारतीयेतर विकसित संस्कृतियों से पनपी मुस्लिम सभ्यता में ईद,शबरात तथा ईसाइयों में क्रिसमस आदि अनेकानेक पर्वों का प्रचलन भी इसी बात की प्रबल पुष्टि करता है कि जीवन केवल एक कठिन यात्रा ही नहीं बल्कि एक अनन्त आनन्दपूर्ण उत्सव भी है।
मानव जाति का अखिल अध्यात्म धर्म-दर्शन साहित्य एवं इतिहास सदा से ही संकेत करता है कि मानव मन में योग और विज्ञान आदि सकल कलात्मक उपायों के प्रति इतनी उत्सुकता का कारण केवल इह एवं पारलौकिक जीवन को एक उत्सव के रूप में अनुभव करना है।संभवत: उपनिषद् के ऋषियों की श्रेय एवं प्रेयमार्गी साधना के पीछे भी यही साध्य रहा होगा।
भारतीय मनीषियों ने जीवन में एक अनन्त उत्सवमयता भरने के लिए ही जीवन का प्रत्येक वर्ष,मास,पक्ष तथा दिन का प्रत्येक पल एक आनन्दमय महोत्सव के रूप में स्वीकार कर सोत्साह जिया है।वर्षारम्भ में चैत्रमास के वासन्तीय नवरात्रों के पश्चात रामनवमी, हनुमज्जयंती, वैशाखी, अक्षय-तृतीया, गंगादशहरा,गुरु-व्यास पूर्णिमा,रक्षाबंधन, कृष्णजन्माष्टमी,पितृ-पक्ष, शारदीयनवरात्र, विजयादशमी,दीपावली,गंगास्नान,मकरसंक्रांति,वसन्तपंचमी,महाशिवरात्री एवं होलिकोत्सव जैसे धार्मिक सांस्कृतिक एवं सामाजिक त्यौहारों के अलावा स्वतंत्रता-दिवस,गणतंत्र-दिवस, गाँधी-शास्त्री-जयंती,शिक्षक-दिवस,नेताजी सुभाषचंद्र बोस जयंती,चंद्र्शेखर आजाद-बलिदान-दिवस एवं सरदार भगतसिंह जैसे अनेकों राष्ट्रिय महापुरुषों के जीवन की स्मृतियाँ सँजोने वाली तिथियों तारीखों को राष्ट्रिय-पर्वों के रूप में यथोचित भावना से मनाते हैं।
सत्यसनातन वैदिक धर्मावलम्बी हम भारतीयों ने जन्म एवं मृत्यु की मध्यावधि को ही जीवन न मानकर उसके पूर्वापर समय में भी स्वर्गादिक सुखद लोक-लोकान्तरों की कल्पना करके जीवन के प्रति अत्यंत सकारात्मक एवं आशावादी दृष्टिकोण प्रकट किया है। उत्सवधर्मी जीवन दर्शन के कारण वैसे तो स्पष्ट ही हो चुका है कि हम भारतीयों के जीवन का हर दिन होली और रात दिवाली होती है,लेकिन फ़िर भी इस वर्ष की कार्त्तिकी अमावस्या अर्थात दीपावली २८अक्टूबर को होने से आजकल विशेषरूप से सजे सुंदर वातावरण में दीपावली के संबंध में कुछ कहने का हम लोभ संवरण नहीं कर पा रहे हैं।
किसी भी त्यौहार के संबंध में जब हम कुछ जानना चाहते हैं तो हमारे सामने उसके धार्मिक ,सामाजिक, सांस्कृतिक, ऎतिहासिक राजनैतिक,आर्थिक, वैज्ञानिक एवं पर्यावरणपरक आदि सभी पक्ष आते हैं जिनके रहस्यों की विश्लेषणात्मक टोह लिये बिना हम किसी भी पर्व के परम्परागत परिवेश से पूर्ण परिचित नहीं हो सकते हैं।दीपावली के संदर्भ में भी जब हम शास्त्रों एवं लोकपरम्पराऒं की गहराई में उतरते जाते हैं तॊ पाते हैं कि परत दर परत “दीपावली” की जड़ें भी मानव-सृष्टि के प्रारम्भ से जुड़ी मिलती हैं।परमपिता परमात्मा की अप्रतिम संतति इस मनुष्य का ममतामयी प्रकृति माँ की गोद में अतिप्रसन्नतापूर्वक प्रेम एवं श्रद्धातिरेक से जब जब हृदय आलोडित हुआ है तब तब होली दीपावली जैसे महापर्वोत्सवों का प्रचलन प्रारम्भ हो चला है। सर्वप्रथम दीपावली को वैदिक आर्ष भारतीय जनमानस ने शारदीय नवसस्येष्टि यज्ञ के रूप में मनाकर देवान्न अ़क्षत(धान,चावल) कपास आदि प्राणप्रदायिनी फ़सलों के लिए प्रभु को नैसर्गिक अहॊभाव से भरकर पावन अंतर्मन से पुकारा है।प्रतिवर्ष रबी और खरीफ़ की फ़सलॊं के पहली बार गृहप्रवेश पर शारदीय एवं वासंतीय नवसस्येष्टि यागों को भव्य मेलॊं-महोत्सवॊं के रूप में बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाया है।
त्वं ज्योतिस्त्वंरविश्चंद्रो विद्युदग्निश्चतारका।सर्वेषां ज्योतिषां ज्योति: दीपावल्यै नमो नम:॥
दीपमालिका, दीवाली या दिवाली, आदि नामों से संबोधित दीपावली का तात्पर्य होता है,”दीपों की अवली या पंक्ति”। जो लोग दीपावली को प्रकाशपर्व (Festival of Light) बताकर जहरीली मोमबत्तियाँ जलाकर या बिजली से जलते लट्टुओं पर लट्टू हो हो कर देश की विद्युत ऊर्जा बरबाद कर विश्व को globle warming में झोकते हैं,उन्हें जानना चाहिये कि दीपावली दीपों का पर्व है प्रकाश का पर्व नहीं। दीपक प्रकाश का उत्पादक या पिता होने से प्रकाश से कहीं गहरा प्रतीक है। “A candle loses nothing by lighting another candle.”के स्थान पर बल्ब ,ट्यूब लाइट,मर्करी या अन्य विद्युत संचालित उपकरण क्या वही भाव स्पंदित कर सकता है। आधुनिकतावाद की आड़ में अंधे पाश्चात्यानुरागी भटके तथाकथित भारतीयों से हमारा निवेदन है कि कृपया दीपावली को दीपों का पर्व दीपावली ही रहने दें ,Festival of Light बनाकर इस पर्व की वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक प्रतीकात्मक संरचना से खतरनाक खिलवाड ना करें।
दीपॊं के इस पर्व दीपावली पर अमावस्या की घनघोर कालीरात को दीपकों की पंक्तियां तारों जड़ी पूनम की झलमलाती रात में बदल देती हैं। पांच दिनों तक लगातार इस महोत्सव की धूमधाम बस देखते ही बनती है।
दीपावली महोत्सव का पहला दिन कार्तिक मास कृष्णपक्ष की त्रयोदशी तिथि को आयुर्वेद के प्रवर्तक महर्षि धनवंतरी की जन्म-जयन्ती के रूप में मनाया जाता है,पौराणिक उपाख्यानों के अनुसार भगवान धनवंतरी समुद्र मंथन से प्राप्त चौदह रत्नों में से एक रत्न हैं। धन की अधिष्ठात्री देवी महालक्ष्मी के धनवंतरी इस तरह बड़े भाई हुए । उनकी जयंती धनवंतरी त्रयोदशी का संक्षिप्त हिंदी अपभ्रंश धनतेरस पर्व लोक में नये बर्तन वस्त्राभूषणादि की खरीद फ़रोख्त के लिए विशेषरूप से शुभ माना जाता है।
और दूसरे दिन को छोटी दीपावली मनाई जाती है। द्वापर युग में श्रीकृष्ण ने इसी दिन नरकासुर नामक राक्षस का वध किया था ,चतुर्दशी तिथि होने के कारण छोटी दीपावली को नरक - चतुर्दशी भी कहते हैं। भारतीय धर्म साहित्येतिहास में भक्त एवं भगवान दोनों ही रूपों में स्तुत्य उत्साह एवं समर्पण के साक्षात अवतार सर्वसंकटमोचन हनुमान जी की पूजा का इस दिन विशेष महत्त्व है।
पंचदिवसीय पर्वों की इस सुन्दर शृंखला में तीसरा दिन अतीव महत्त्वशाली है। यह दिन वो दिन है,जिसको हर भारतवासी हर रोज मनाना चाहता है।इस दिन भारतवर्ष की परम्परा से प्रेम करने वालों की उत्सवप्रियता अपनी पराकाष्ठा के पार होती है।धनवैभव की देवी भगवान विष्णु की पत्नी महालक्ष्मी के महापूजन के साथ साथ इस दिन धनकुबेर-पूजन ,तुला-पूजन,मसि-लेखनी तथा व्यापार-लेखा बही पुस्तिका का पूजन करके भारतीय आर्थिक नववर्ष का शुभारम्भ होता है। देवासुर-समुद्र-मंथन की पुराण प्रसिद्ध कथानुसार इसी दिन देवी लक्ष्मी का प्राकट्य हुआ था।कहते हैं कि चौदह वर्षों के पश्चात लंका-विजयोपरान्त जब भगवान श्रीराम का अयोध्या आगमन हुआ तो समस्त अयोध्यावासियों ने ही नहीं बल्कि पूरे आर्यावर्त्त ने दीपावली मनाई। ऎतिह्यप्रामाणिक तथ्यों की असंगति के बावजूद राम की अयोध्या वापसी की तिथि दिवाली ही लोक स्वीकृत है।
गुप्तवंश के महानशासक विक्रमादित्य द्वारा हूणों को हराने पर दिवाली को ही नवसंवत्सर प्रचलित किया गया। ऎतिहासिक घटनाओं में सर्वथा अविस्मरणीय स्वर्णमंदिर अमृतसर की स्थापना भी सिक्खों के चौथे गुरुश्री रामदास जी द्वारा की गई।साथ ही इसी दिन छ्ठें गुरु हरगोविंद जी जहाँगीर की क्रूर कारा से मुक्त हुए थे।
भारतीय जनमानस की उत्सवधर्मिता केवल जन्मोत्सवों तक ही सीमित नहीं है,बल्कि मृत्यु को भी एक पर्व के रूप में मनाने का अद्भुत साहस हम भारतीयों में सदा से पाया जाता है।विगत वर्षों में आतंकवाद के घृणित कारनामे भी हमारी अडिग श्रद्धा को विचलित नहीं कर पाये। १८८३ ईस्वी में दीपावली के दिन ही भारतीय संस्कृति के महान उन्नायक स्वतंत्रता के मंत्र के सर्वप्रथमगायक, आर्यसमाज के संस्थापक महर्षिदयानंद सरस्वती का जीवनदीप कोटि कोटि बुझे मानस-दीपों को आत्मज्योति देकर असमय ही संसार से विदा हो गया था ।जैनधर्म के प्रवर्त्तक महावीर स्वामी ने भी दीपावली को ही निर्वाण प्राप्त किया था। भारतीय योगविद्या का पाश्चात्य लोकमानस में लोहा मनवाने स्वामी रामतीर्थ का जन्म भी दिवाली को ही हुआ था।
दीपमालिका से अगले दिन गोवर्धन पूजा को अपना कर युगों पहले ही हम भारतीयों ने श्रीकृष्ण के माध्यम से नदी पर्वत पौधों को सदैव सुरक्षित तथा पशुधन को मांसोत्पादक एक संसाधन न मानकर बल्कि पूर्णतया वैज्ञानिक तरीके से संरक्षित कर पर्यावरणप्रदूषण जैसी विश्व विनाशक समस्या का सर्वदा समीचीन समाधान खोजा।
शुभ दीपावली महोत्सव का समापन भातृ-द्वितीया अर्थात भैय्या दूज के पारिवारिक वातावरण में होता है।
इस तरह हम कह सकते हैं कि दीपावली हमें सब खुशियाँ देकर जाती है । लेकिन बाह्यात
आक्रामक सभ्यताओं के दुष्प्र्भाव के कारण हमारे समाज में खतरनाक आतिशबाजी ,चोरी तथा जुआ जैसी गलत रीतियाँ भी कोढ़ सी फ़ैल रही हैं । जिनसे समाज को बचाना हमारा प्रथम कर्त्तव्य है।
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विश्व की समस्त संस्कृतियों पर आधारित आज तक अस्तित्व में आईं सभी मानव सभ्यताओं का सदैव यह प्रयास रहा है कि जीवन को किस तरह एक उत्सव बनाया जा सके।बस इसी वजह से संसार के समस्त सभ्य सामाजिक परिवेश में व्रत पर्वों की परिकल्पना साकार हुई। भारतीयेतर विकसित संस्कृतियों से पनपी मुस्लिम सभ्यता में ईद,शबरात तथा ईसाइयों में क्रिसमस आदि अनेकानेक पर्वों का प्रचलन भी इसी बात की प्रबल पुष्टि करता है कि जीवन केवल एक कठिन यात्रा ही नहीं बल्कि एक अनन्त आनन्दपूर्ण उत्सव भी है।
मानव जाति का अखिल अध्यात्म धर्म-दर्शन साहित्य एवं इतिहास सदा से ही संकेत करता है कि मानव मन में योग और विज्ञान आदि सकल कलात्मक उपायों के प्रति इतनी उत्सुकता का कारण केवल इह एवं पारलौकिक जीवन को एक उत्सव के रूप में अनुभव करना है।संभवत: उपनिषद् के ऋषियों की श्रेय एवं प्रेयमार्गी साधना के पीछे भी यही साध्य रहा होगा।
भारतीय मनीषियों ने जीवन में एक अनन्त उत्सवमयता भरने के लिए ही जीवन का प्रत्येक वर्ष,मास,पक्ष तथा दिन का प्रत्येक पल एक आनन्दमय महोत्सव के रूप में स्वीकार कर सोत्साह जिया है।वर्षारम्भ में चैत्रमास के वासन्तीय नवरात्रों के पश्चात रामनवमी, हनुमज्जयंती, वैशाखी, अक्षय-तृतीया, गंगादशहरा,गुरु-व्यास पूर्णिमा,रक्षाबंधन, कृष्णजन्माष्टमी,पितृ-पक्ष, शारदीयनवरात्र, विजयादशमी,दीपावली,गंगास्नान,मकरसंक्रांति,वसन्तपंचमी,महाशिवरात्री एवं होलिकोत्सव जैसे धार्मिक सांस्कृतिक एवं सामाजिक त्यौहारों के अलावा स्वतंत्रता-दिवस,गणतंत्र-दिवस, गाँधी-शास्त्री-जयंती,शिक्षक-दिवस,नेताजी सुभाषचंद्र बोस जयंती,चंद्र्शेखर आजाद-बलिदान-दिवस एवं सरदार भगतसिंह जैसे अनेकों राष्ट्रिय महापुरुषों के जीवन की स्मृतियाँ सँजोने वाली तिथियों तारीखों को राष्ट्रिय-पर्वों के रूप में यथोचित भावना से मनाते हैं।
सत्यसनातन वैदिक धर्मावलम्बी हम भारतीयों ने जन्म एवं मृत्यु की मध्यावधि को ही जीवन न मानकर उसके पूर्वापर समय में भी स्वर्गादिक सुखद लोक-लोकान्तरों की कल्पना करके जीवन के प्रति अत्यंत सकारात्मक एवं आशावादी दृष्टिकोण प्रकट किया है। उत्सवधर्मी जीवन दर्शन के कारण वैसे तो स्पष्ट ही हो चुका है कि हम भारतीयों के जीवन का हर दिन होली और रात दिवाली होती है,लेकिन फ़िर भी इस वर्ष की कार्त्तिकी अमावस्या अर्थात दीपावली २८अक्टूबर को होने से आजकल विशेषरूप से सजे सुंदर वातावरण में दीपावली के संबंध में कुछ कहने का हम लोभ संवरण नहीं कर पा रहे हैं।
किसी भी त्यौहार के संबंध में जब हम कुछ जानना चाहते हैं तो हमारे सामने उसके धार्मिक ,सामाजिक, सांस्कृतिक, ऎतिहासिक राजनैतिक,आर्थिक, वैज्ञानिक एवं पर्यावरणपरक आदि सभी पक्ष आते हैं जिनके रहस्यों की विश्लेषणात्मक टोह लिये बिना हम किसी भी पर्व के परम्परागत परिवेश से पूर्ण परिचित नहीं हो सकते हैं।दीपावली के संदर्भ में भी जब हम शास्त्रों एवं लोकपरम्पराऒं की गहराई में उतरते जाते हैं तॊ पाते हैं कि परत दर परत “दीपावली” की जड़ें भी मानव-सृष्टि के प्रारम्भ से जुड़ी मिलती हैं।परमपिता परमात्मा की अप्रतिम संतति इस मनुष्य का ममतामयी प्रकृति माँ की गोद में अतिप्रसन्नतापूर्वक प्रेम एवं श्रद्धातिरेक से जब जब हृदय आलोडित हुआ है तब तब होली दीपावली जैसे महापर्वोत्सवों का प्रचलन प्रारम्भ हो चला है। सर्वप्रथम दीपावली को वैदिक आर्ष भारतीय जनमानस ने शारदीय नवसस्येष्टि यज्ञ के रूप में मनाकर देवान्न अ़क्षत(धान,चावल) कपास आदि प्राणप्रदायिनी फ़सलों के लिए प्रभु को नैसर्गिक अहॊभाव से भरकर पावन अंतर्मन से पुकारा है।प्रतिवर्ष रबी और खरीफ़ की फ़सलॊं के पहली बार गृहप्रवेश पर शारदीय एवं वासंतीय नवसस्येष्टि यागों को भव्य मेलॊं-महोत्सवॊं के रूप में बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाया है।
त्वं ज्योतिस्त्वंरविश्चंद्रो विद्युदग्निश्चतारका।सर्वेषां ज्योतिषां ज्योति: दीपावल्यै नमो नम:॥
दीपमालिका, दीवाली या दिवाली, आदि नामों से संबोधित दीपावली का तात्पर्य होता है,”दीपों की अवली या पंक्ति”। जो लोग दीपावली को प्रकाशपर्व (Festival of Light) बताकर जहरीली मोमबत्तियाँ जलाकर या बिजली से जलते लट्टुओं पर लट्टू हो हो कर देश की विद्युत ऊर्जा बरबाद कर विश्व को globle warming में झोकते हैं,उन्हें जानना चाहिये कि दीपावली दीपों का पर्व है प्रकाश का पर्व नहीं। दीपक प्रकाश का उत्पादक या पिता होने से प्रकाश से कहीं गहरा प्रतीक है। “A candle loses nothing by lighting another candle.”के स्थान पर बल्ब ,ट्यूब लाइट,मर्करी या अन्य विद्युत संचालित उपकरण क्या वही भाव स्पंदित कर सकता है। आधुनिकतावाद की आड़ में अंधे पाश्चात्यानुरागी भटके तथाकथित भारतीयों से हमारा निवेदन है कि कृपया दीपावली को दीपों का पर्व दीपावली ही रहने दें ,Festival of Light बनाकर इस पर्व की वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक प्रतीकात्मक संरचना से खतरनाक खिलवाड ना करें।
दीपॊं के इस पर्व दीपावली पर अमावस्या की घनघोर कालीरात को दीपकों की पंक्तियां तारों जड़ी पूनम की झलमलाती रात में बदल देती हैं। पांच दिनों तक लगातार इस महोत्सव की धूमधाम बस देखते ही बनती है।
दीपावली महोत्सव का पहला दिन कार्तिक मास कृष्णपक्ष की त्रयोदशी तिथि को आयुर्वेद के प्रवर्तक महर्षि धनवंतरी की जन्म-जयन्ती के रूप में मनाया जाता है,पौराणिक उपाख्यानों के अनुसार भगवान धनवंतरी समुद्र मंथन से प्राप्त चौदह रत्नों में से एक रत्न हैं। धन की अधिष्ठात्री देवी महालक्ष्मी के धनवंतरी इस तरह बड़े भाई हुए । उनकी जयंती धनवंतरी त्रयोदशी का संक्षिप्त हिंदी अपभ्रंश धनतेरस पर्व लोक में नये बर्तन वस्त्राभूषणादि की खरीद फ़रोख्त के लिए विशेषरूप से शुभ माना जाता है।
और दूसरे दिन को छोटी दीपावली मनाई जाती है। द्वापर युग में श्रीकृष्ण ने इसी दिन नरकासुर नामक राक्षस का वध किया था ,चतुर्दशी तिथि होने के कारण छोटी दीपावली को नरक - चतुर्दशी भी कहते हैं। भारतीय धर्म साहित्येतिहास में भक्त एवं भगवान दोनों ही रूपों में स्तुत्य उत्साह एवं समर्पण के साक्षात अवतार सर्वसंकटमोचन हनुमान जी की पूजा का इस दिन विशेष महत्त्व है।
पंचदिवसीय पर्वों की इस सुन्दर शृंखला में तीसरा दिन अतीव महत्त्वशाली है। यह दिन वो दिन है,जिसको हर भारतवासी हर रोज मनाना चाहता है।इस दिन भारतवर्ष की परम्परा से प्रेम करने वालों की उत्सवप्रियता अपनी पराकाष्ठा के पार होती है।धनवैभव की देवी भगवान विष्णु की पत्नी महालक्ष्मी के महापूजन के साथ साथ इस दिन धनकुबेर-पूजन ,तुला-पूजन,मसि-लेखनी तथा व्यापार-लेखा बही पुस्तिका का पूजन करके भारतीय आर्थिक नववर्ष का शुभारम्भ होता है। देवासुर-समुद्र-मंथन की पुराण प्रसिद्ध कथानुसार इसी दिन देवी लक्ष्मी का प्राकट्य हुआ था।कहते हैं कि चौदह वर्षों के पश्चात लंका-विजयोपरान्त जब भगवान श्रीराम का अयोध्या आगमन हुआ तो समस्त अयोध्यावासियों ने ही नहीं बल्कि पूरे आर्यावर्त्त ने दीपावली मनाई। ऎतिह्यप्रामाणिक तथ्यों की असंगति के बावजूद राम की अयोध्या वापसी की तिथि दिवाली ही लोक स्वीकृत है।
गुप्तवंश के महानशासक विक्रमादित्य द्वारा हूणों को हराने पर दिवाली को ही नवसंवत्सर प्रचलित किया गया। ऎतिहासिक घटनाओं में सर्वथा अविस्मरणीय स्वर्णमंदिर अमृतसर की स्थापना भी सिक्खों के चौथे गुरुश्री रामदास जी द्वारा की गई।साथ ही इसी दिन छ्ठें गुरु हरगोविंद जी जहाँगीर की क्रूर कारा से मुक्त हुए थे।
भारतीय जनमानस की उत्सवधर्मिता केवल जन्मोत्सवों तक ही सीमित नहीं है,बल्कि मृत्यु को भी एक पर्व के रूप में मनाने का अद्भुत साहस हम भारतीयों में सदा से पाया जाता है।विगत वर्षों में आतंकवाद के घृणित कारनामे भी हमारी अडिग श्रद्धा को विचलित नहीं कर पाये। १८८३ ईस्वी में दीपावली के दिन ही भारतीय संस्कृति के महान उन्नायक स्वतंत्रता के मंत्र के सर्वप्रथमगायक, आर्यसमाज के संस्थापक महर्षिदयानंद सरस्वती का जीवनदीप कोटि कोटि बुझे मानस-दीपों को आत्मज्योति देकर असमय ही संसार से विदा हो गया था ।जैनधर्म के प्रवर्त्तक महावीर स्वामी ने भी दीपावली को ही निर्वाण प्राप्त किया था। भारतीय योगविद्या का पाश्चात्य लोकमानस में लोहा मनवाने स्वामी रामतीर्थ का जन्म भी दिवाली को ही हुआ था।
दीपमालिका से अगले दिन गोवर्धन पूजा को अपना कर युगों पहले ही हम भारतीयों ने श्रीकृष्ण के माध्यम से नदी पर्वत पौधों को सदैव सुरक्षित तथा पशुधन को मांसोत्पादक एक संसाधन न मानकर बल्कि पूर्णतया वैज्ञानिक तरीके से संरक्षित कर पर्यावरणप्रदूषण जैसी विश्व विनाशक समस्या का सर्वदा समीचीन समाधान खोजा।
शुभ दीपावली महोत्सव का समापन भातृ-द्वितीया अर्थात भैय्या दूज के पारिवारिक वातावरण में होता है।
इस तरह हम कह सकते हैं कि दीपावली हमें सब खुशियाँ देकर जाती है । लेकिन बाह्यात
आक्रामक सभ्यताओं के दुष्प्र्भाव के कारण हमारे समाज में खतरनाक आतिशबाजी ,चोरी तथा जुआ जैसी गलत रीतियाँ भी कोढ़ सी फ़ैल रही हैं । जिनसे समाज को बचाना हमारा प्रथम कर्त्तव्य है।
"जवाँ भिखारिन-सी"
आचार्य संदीप कुमार त्यागी "दीप"
भूखी थी दुत्कार खा गई, और अनचाहा प्यार पा गई।
जवाँ भिखारिन बनी ज़िन्दगी कदम कदम पर मार खा गई।।
पेट पालने के चक्कर में पलने लगा पेट में कोई,
पल पल पीती घूँट जहर के भूखी प्यासी खोई खोई।
रोई चीखी सन्नाटों में गहरी-सी चीत्कार छा गई।।
जितने जिस्म बिके दुनिया में बदमाशों के बाज़ारों में
हाथों हाथ खरीदे रौंदे कुचले सब इज्जतदारों ने ।
आज शरीफों की महफिल में कहकर गश लाचार खा गई।।
नहीं भरोसा कुछ सांसों का, अरमानों की इन लाशों का,
बोझ नहीं अब उठता हाय! प्यासी से खाली ग्लासों का ।
पानी फिर भी झरे आँख से लगता फिर फटकार खा गई।।
भूखी थी दुत्कार खा गई, और अनचाहा प्यार पा गई।
जवाँ भिखारिन बनी ज़िन्दगी कदम कदम पर मार खा गई।।
पेट पालने के चक्कर में पलने लगा पेट में कोई,
पल पल पीती घूँट जहर के भूखी प्यासी खोई खोई।
रोई चीखी सन्नाटों में गहरी-सी चीत्कार छा गई।।
जितने जिस्म बिके दुनिया में बदमाशों के बाज़ारों में
हाथों हाथ खरीदे रौंदे कुचले सब इज्जतदारों ने ।
आज शरीफों की महफिल में कहकर गश लाचार खा गई।।
नहीं भरोसा कुछ सांसों का, अरमानों की इन लाशों का,
बोझ नहीं अब उठता हाय! प्यासी से खाली ग्लासों का ।
पानी फिर भी झरे आँख से लगता फिर फटकार खा गई।।
कुत्ता! बापू की समाधि जा चढ़ा
आचार्य संदीप कुमार त्यागी "दीप"
भेड़िये ओसामा या सद्दाम-से,
देख घुस जाता है अपनी भाड़ में॥
भेड़ किंतु पाक भारत को समझ
हाँकने की नित रहे जुगाड़ में॥
भाड़े के हैं टट्टू इस पै बेशुमार
भीड़ को भुनवाये ये जालिम-जिग़र।
रोज़ तोपों से उजड़वाये हजारों
बंकरों का नाम ले मासूम घर॥
हर फटे बम में मिला बारूद इसका
हाथ इसका ही मिला हर राड़ में॥
कौन चँद करमों के कारण करमचंद
गाँधी मोहनदास की पुण्यस्थली॥
पर अपावन पाँव इसके पड़ गये
और न दहली हाय! बिल्कुल देहली॥
कर बहाना बम्ब का बेइज्जत किया।
क्यों अहिंसक बापू को खिलवाड़ में॥
सूँघ सब कमबख़्त! है आया वहाँ
खेल गंदा खेलने की ताड़ में॥
कुत्ता! बापू की समाधि जा चढ़ा,
हाय! अमरीकी सियासती आड़ में।
दरअसल हर एक कुत्ते की तरह
जी फँसा इसका भी सूखे हाड़ में॥
भेड़िये ओसामा या सद्दाम-से,
देख घुस जाता है अपनी भाड़ में॥
भेड़ किंतु पाक भारत को समझ
हाँकने की नित रहे जुगाड़ में॥
भाड़े के हैं टट्टू इस पै बेशुमार
भीड़ को भुनवाये ये जालिम-जिग़र।
रोज़ तोपों से उजड़वाये हजारों
बंकरों का नाम ले मासूम घर॥
हर फटे बम में मिला बारूद इसका
हाथ इसका ही मिला हर राड़ में॥
कौन चँद करमों के कारण करमचंद
गाँधी मोहनदास की पुण्यस्थली॥
पर अपावन पाँव इसके पड़ गये
और न दहली हाय! बिल्कुल देहली॥
कर बहाना बम्ब का बेइज्जत किया।
क्यों अहिंसक बापू को खिलवाड़ में॥
सूँघ सब कमबख़्त! है आया वहाँ
खेल गंदा खेलने की ताड़ में॥
कुत्ता! बापू की समाधि जा चढ़ा,
हाय! अमरीकी सियासती आड़ में।
दरअसल हर एक कुत्ते की तरह
जी फँसा इसका भी सूखे हाड़ में॥
फुँफकारती कुण्डलियाँ
आचार्य संदीप कुमार त्यागी "दीप"
गूफ़लाल के गैंग में आ पहुँचे ब्लफलाल।
सोचा दोनों ने चलो हो लें मालामाल॥
हो लें मालामाल, काम छेड़ा फाईनेंसी।
नोट छापने लगे भई! अच्छी एजेंसी॥
धंधा अच्छा, गंदा है, कुछ ना किया खयाल
रेड़ पड़ी पकड़े गये गूफ़लाल ब्लफ़लाल।
चलाचला चक्की अकल गई जेल में जाग।
पछताये, खुद फोड़कर दोनों अपने भाग।।
दोनों अपने भाग, जगाने की सोची फिर।
नई गजब तरकीब एक सूझी थी आखिर॥
रिहा जेल से होते ही जा खोला मंदर।
बन बैठे परधान सिकटरी दोनों बंदर॥
अंधी जनता की खुली गाँठ मिली क्या खूब।
रोज मलाई मारते प्रभु आगे धरें दूब॥
प्रभु आगे धरें, दूब गूफ, ब्लफ़लाल निराले।
भाग – “रिया-सत” दे गये, पढ़ें लोग रिसाले॥
मौन “अभय-मुद्रा” धरी संत बन रहे आज।
दोनों की भगवान संग आरती करे समाज॥
गूफ़लाल के गैंग में आ पहुँचे ब्लफलाल।
सोचा दोनों ने चलो हो लें मालामाल॥
हो लें मालामाल, काम छेड़ा फाईनेंसी।
नोट छापने लगे भई! अच्छी एजेंसी॥
धंधा अच्छा, गंदा है, कुछ ना किया खयाल
रेड़ पड़ी पकड़े गये गूफ़लाल ब्लफ़लाल।
चलाचला चक्की अकल गई जेल में जाग।
पछताये, खुद फोड़कर दोनों अपने भाग।।
दोनों अपने भाग, जगाने की सोची फिर।
नई गजब तरकीब एक सूझी थी आखिर॥
रिहा जेल से होते ही जा खोला मंदर।
बन बैठे परधान सिकटरी दोनों बंदर॥
अंधी जनता की खुली गाँठ मिली क्या खूब।
रोज मलाई मारते प्रभु आगे धरें दूब॥
प्रभु आगे धरें, दूब गूफ, ब्लफ़लाल निराले।
भाग – “रिया-सत” दे गये, पढ़ें लोग रिसाले॥
मौन “अभय-मुद्रा” धरी संत बन रहे आज।
दोनों की भगवान संग आरती करे समाज॥
सच्ची बात लगे बुरी
आचार्य संदीप कुमार त्यागी "दीप"
भोली सूरत नीयत बुरी।
मुँह में राम बगल में छुरी॥
ढोंगी बदलें काँचुरी।
चल सपनीली चातुरी॥
छाती पै ही दलते मूँग।
हर मछली पै मारें ठूँग॥
चक्का जाम किया भक्ति का
बगुले भक्त, हैं धर्मधुरी।
कुत्ते सब कुछ सूँघ रहे।
भगत आलसी ऊँघ रहे।
नहीं किसी को खबर कोई,
बजे चैन की बाँसुरी॥
जम जाते मंचों पै भाँड,
पी पी करके फ़ोरेन ब्रांड।
हरे खेत में जैसे सांड,
सच्ची बात लगे बुरी॥
भौंडे भजन फिलमिया धुन।
कान पक गये हैं सुन-सुन॥
धंधा है जागे की रात,
खुलें पर्स की पाँखुरी॥
भोली सूरत नीयत बुरी।
मुँह में राम बगल में छुरी॥
ढोंगी बदलें काँचुरी।
चल सपनीली चातुरी॥
छाती पै ही दलते मूँग।
हर मछली पै मारें ठूँग॥
चक्का जाम किया भक्ति का
बगुले भक्त, हैं धर्मधुरी।
कुत्ते सब कुछ सूँघ रहे।
भगत आलसी ऊँघ रहे।
नहीं किसी को खबर कोई,
बजे चैन की बाँसुरी॥
जम जाते मंचों पै भाँड,
पी पी करके फ़ोरेन ब्रांड।
हरे खेत में जैसे सांड,
सच्ची बात लगे बुरी॥
भौंडे भजन फिलमिया धुन।
कान पक गये हैं सुन-सुन॥
धंधा है जागे की रात,
खुलें पर्स की पाँखुरी॥
आचार्य संदीप कुमार त्यागी "दीप"
नाम : आचार्य संदीप कुमार त्यागी "दीप", पितृनाम : श्री यशपाल सिंह त्यागी
जन्म-स्थान : 18 सितम्बर 1977 ई.
ग्राम व पत्रालय-सिसौना, तहसील-चाँदपुर,जनपद-बिजनौर (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा : विद्याभास्कर : (गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर (हरिद्वार)
सिद्धान्त-शास्त्री : उपदेशक महाविद्यालय ज्वालापुर(हरिद्वार)
एम.ए, संस्कृत (प्र.) : गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय ( हरिद्वार )
साहित्याचार्य : संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय (वाराणसी)
संगीत-प्रभाकर : प्रयाग संगीत समिति (इलाहाबाद)
अध्यापन-कार्य : संरक्षक व धर्मशिक्षा-हिन्दी-संस्कृत-साहित्याध्यापक - गुरुकुल महाविद्याल ज्वालापुर (हरिद्वार ) सन् 1996 से 20मई, 1997ई. तथा जुलाई 1998 से 20मई 1999 तक
गुरुकुल कण्वाश्रम कोटद्वार (पौड़ी गढ़वाल) उत्तरांचल, 16जुलाई सन् 1997 से 20मई 1998 तक
धार्मिक प्रवक्ता एवं योगाचार्य:
* हिन्दू सभा, 9225गोर रोड ब्राम्प्टन(ओन्टारियो) कनाडा
30मई 1999 से 14नवम्बर, 2003 तक ।
*सत्य ज्योति सांस्कृतिक सभा, ( मिसीससागा) कनाडा 15नवम्बर, 2003से सम्प्रति ।
* योगा लोफ्ट (ब्राम्प्टन ) 2003 से सम्प्रति ।
*आर्य समाज पील (ब्राम्प्टन) मार्च2004 से सम्प्रति ।
* श्री दत्ता योगा सेंटर (ब्राम्प्टन) मार्च 2006 से सम्प्रति ।
* इंस्टीच्यूट योगा थैरेपी ( टोरंटो )
साहित्यक
गतिविधियाँ : लगभग 200 स्फुट कविताओं का सृजन। हिन्दी और संस्कृत दोनों भाषाओं में काव्य सृजन व लेखन। आकाशवाणी केंद्र एवं उत्तरी अमेरिकीय टी.वी. चैनलों पर कवि सम्मेलनों के माध्यम से समय समय पर काव्यपाठ। देश-विदेश की स्तरीय विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन। देश-विदेश के अन्तर्राष्ट्रीय कार्यक्रमों में काव्यपाठ एवं भाषण। भारतीय धर्म, दर्शन, संस्कृति साहित्य एवं भाषा(संस्कृत, हिंदी) आदि के प्रचार प्रसार में संलग्न।
प्रकाशन : प्रमुख कृतियाँ :
1. चन्द्रशेखर \'आज़ाद\'-शतक (क्रांति-काव्य )
2. साँझ (गीत-संग्रह )
3. Spirit of Love (आंग्लभाषीय कविताएँ)
पुरस्कार : *दूरदर्शी मिशन न्यास,(पं.जी.)ज्वालापुर हरिद्वार में आयोजित राष्ट्रीय कवि-सम्मेलन में 8अप्रैल 2001 ।
*लावणी साहित्य परिषद् (हरिद्वार) द्वारा आयोजित "दीप-अभिनंदन-समारोह" में सम्मानित, 29अप्रैल 2001 ई.।
संस्थापक : *स्वातंत्र्य-योगपीठ (Freedom Yoga)
ग्रेटर टोरंटो क्षेत्र में विभिन्न स्थानों पर दैनिक योग कक्षाओं को संचालित करने वाली एवं कनाडा में नवीन योग शिक्षकों को प्रशिक्षित करने वाली योगा-अलायंस द्वारा पंजीकृत एक सुविख्यात संस्था ।
*महर्षि कणाद विद्यापीठ सिसौना (बिजनौर) उ.प्र.
460 ग्राम्यांचलीय गरीब विद्यार्थियों को सुविधापूर्ण सुरक्षित व सांस्कृतिक वातावरण में प्राच्य एवं आधुनिक विषयों की शिक्षा प्रदान करने वाली संस्था।
सम्पर्क : omfreedomyoga@yahoo.ca
www.freedomyoga.ca
अनुपमा
समझ घन चिलमन को चुपचाप,
आ छुपा चन्दा पूनम का।
प्रभा है दिव्य दामिनी सी,
अंग अंग दमका हमदम का।।
श्याम अलि कुल सा केश कलाप,
मदन के चाप सदृश भ्रू चाप।
झील से नील नयन नत आप,
कोकिला कण्ठ मधुर आलाप,
लसे शुक चंचु सम नासा,
रूप अनुपम है प्रियतम का।।
गले में मुक्ता मणि की माल,
होंठ ये बिम्बाफल से लाल।
सुकोमल कर ज्यों कमल मृणाल,
डालते मुझपे मोहक जाल।।
नहीं मालूम मुझे ये स्पर्श,
सनम का है या शबनम का।।
आ छुपा चन्दा पूनम का।
प्रभा है दिव्य दामिनी सी,
अंग अंग दमका हमदम का।।
श्याम अलि कुल सा केश कलाप,
मदन के चाप सदृश भ्रू चाप।
झील से नील नयन नत आप,
कोकिला कण्ठ मधुर आलाप,
लसे शुक चंचु सम नासा,
रूप अनुपम है प्रियतम का।।
गले में मुक्ता मणि की माल,
होंठ ये बिम्बाफल से लाल।
सुकोमल कर ज्यों कमल मृणाल,
डालते मुझपे मोहक जाल।।
नहीं मालूम मुझे ये स्पर्श,
सनम का है या शबनम का।।
असल बाप आतंकवाद का
असल बाप आतंकवाद का
अरब है या अमरीका है।
हुआ रूस के चक्कर में
भारत भी अदू सरीखा है।
मंसूबे नापाक पाक
उकसाया काश्मीर देखो
सरहद पार तराशे सब
खालिस्तानी तीर देखो
संदेहास्पद आइ एस आइ का
हर एक तौर तरीका है।
बना सिमि सीमा के भीतर
होकर अब आइ एम मजबूत।
लोकतंत्र को दफ़नाने को
मज़हब बना रहा ताबूत।
इस्लामिक उन्माद ही क्यों
हर आतंकी में दीखा है।
हर सवाल का अल जवाहिरी
देता है अब वैब जवाब
तालिबान पढ़ें अलकायदा
कट्टरपंथी गढ़े हैं ख्वाब।
बेरोजगार जवानों ने
बारुदी इल्म ही सीखा है।
मुम्बई जयपुर अहमदाबाद
हुई हाय दिल्ली बर्बाद।
देशद्रोह को जाफ़र की
औलाद कहे फ़िर भी जेहाद॥
फ़ांसी के फ़तवे जारी
होते जो होती टीका है॥
नौ ग्यारह के बाद हुआ
नौ दौ ग्यारह लादेन कहाँ।
क्या कहना अब भी मुश्किल
ना पाक इरादे मुल्क जहाँ॥
खिसियाई बिल्ली सा बुश का
हो गया चेहरा फ़ीका है॥
अरब है या अमरीका है।
हुआ रूस के चक्कर में
भारत भी अदू सरीखा है।
मंसूबे नापाक पाक
उकसाया काश्मीर देखो
सरहद पार तराशे सब
खालिस्तानी तीर देखो
संदेहास्पद आइ एस आइ का
हर एक तौर तरीका है।
बना सिमि सीमा के भीतर
होकर अब आइ एम मजबूत।
लोकतंत्र को दफ़नाने को
मज़हब बना रहा ताबूत।
इस्लामिक उन्माद ही क्यों
हर आतंकी में दीखा है।
हर सवाल का अल जवाहिरी
देता है अब वैब जवाब
तालिबान पढ़ें अलकायदा
कट्टरपंथी गढ़े हैं ख्वाब।
बेरोजगार जवानों ने
बारुदी इल्म ही सीखा है।
मुम्बई जयपुर अहमदाबाद
हुई हाय दिल्ली बर्बाद।
देशद्रोह को जाफ़र की
औलाद कहे फ़िर भी जेहाद॥
फ़ांसी के फ़तवे जारी
होते जो होती टीका है॥
नौ ग्यारह के बाद हुआ
नौ दौ ग्यारह लादेन कहाँ।
क्या कहना अब भी मुश्किल
ना पाक इरादे मुल्क जहाँ॥
खिसियाई बिल्ली सा बुश का
हो गया चेहरा फ़ीका है॥
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