रुक जाये ये सूर्य, चाँद चाहे रुक जाये।
रुक जाये ये सृष्टि चक्र चाहे रुक जाये।।
रुक जाये ये वायु वेग जल का रुक जाये
रुक जाये प्रश्वास श्वास चाहे रुक जाये
जो मुझमें संदीप ज्योति वह नहीं बुझेगी
हो जाये सरकलम कलम ये नहीं रुकेगी।।
उदय अस्त न होवें चाहे सूरज चाँद सितारे,
गंगा यमुना सूखें चाहे सूखें सागर सारे।।
उथल पुथल हो धरती चाहे काल खड़ा हो द्वारे ,
हो जाये सर कलम कलम ना कभी रुकेगी।।
Saturday, February 28, 2009
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बहुत सशक्त भाव है संदीप जी, सच्चाई लिखने के लिए बहुत बडा साहस चाहिए और लेखन का काम बिना साहस के हो नहीं सकता चाहे वे आज की तस्लीमा नसरीन हों या आज़ादी के लिए लडने वालों के गीत हों।
ReplyDeleteआज फिर उसी साहस की आवश्यकता है ताकि लेखक सच को सही तरह से प्रस्तुत कर सके।
सुंदर और सशक्त भावों के लिए बधाई!!
शैलजा सक्सेना