Wednesday, February 11, 2009

अनुशंसा

नमस्ते कनाडा
उत्तरी अमेरिका का प्रथम हिन्दी-अंग्रेजी सामाचार-विचार साप्ताहिक
जिस प्रकार कुबुद्धि संसार ने नारी को अबला की संज्ञा दी है उसी प्रकार कविता को भी केवल कोमल भावनाओं की अभिव्यक्ति का माध्यम मान लिया है। यह सच है कि अधिकतर कवियों ने कविता को मुख्यरूप से शृंगार और प्रेम जैसी कोमल भावनाओं के प्राकटन हेतु एक सेतु के रूप में प्रयोग किया है परंतु कुछ ऐसे भी कवि हैं जिनकी कविता संरचना का उद्देश्य कवि की कोमल भावनाओं की अभिव्यक्ति के अतिरिक्त समाजोपयोगी संदेशों की सीढ़ी के रूप में प्रयोग करना है। ऐसे कवियों ने ही नारी को सबला और कविता को सुशक्ति संदेश की सरिता के रूप में स्थापित किया है। जब-जब ऐसे कवियों ने अपनी कलम उठाई है कविता रसिकों को नारी देह की गहराइयों से बाहर निकाल कर नारी शक्ति की सच्चाइयों से अवगत कराया है और ऐसे ही कवियों ने कविता को हृदयोद्गारों की अभिव्यक्ति के साथ-साथ समाजोत्थान और देशप्रेम जैसे सार्थक सुप्रयासों में भी प्रयुक्त किया है।
ऐसी ही देशप्रेम की भावना से परिपूर्ण कविताओं के रचयिता हैं आचार्य संदीप कुमार त्यागी। आचार्य संदीप, जिन्हें मैंने सदा ही अपने छोटे भाई के रूप में देखा है, से मेरा परिचय कुछ ज्यादा पुराना नहीं है पर जितना है वह वर्षों की पहचान से कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। जितनी बार मैं उनसे मिला हूँ, उन्होनें अपने जीवन-यात्रा के अनुभव के पृष्ठ मुझ पर खोले हैं और सदैव मैंने उनसे प्रेरणा हासिल की है। कुदरत का कैसा अनोखा खेल है कि मैं शहीद भगत सिंह का प्रशंसक हूँ और वे शहीद चन्द्रशेखर के। भगत सिंह ने चन्द्रशेखर को अपने भाई के रूप में देखा और मैंने आचार्य संदीप को।
आचार्य संदीप की यह प्रथम प्रस्तुति चंद्रशेखर आज़ाद शतक उनके चन्द्रशेखर के प्रति प्रेम की अनुभूति की अप्रतिम प्रस्तुति है। संदीप ने इस रचना हेतु घनाक्षरी छंद का प्रयोग किया है जो वीर रस के काव्य हेतु सर्वथा उपयुक्त है। उनके काव्य में शब्द चयन की सार्थकता, भाषा की सहजता और ओजमय विचारों की चमक देखते ही बनती है। इतिहास के पन्नों से उकेरे चंद्रशेखर की जीवनयात्रा के प्रातः स्मरणीय उद्धरणों से सजी-धजी इस काव्य मंजूषा में आचार्य संदीप की लेखनी का जादू सर्वत्र दिखाई पड़ता है। मुझे विश्वास है एक बार प्रारंभ करके इस पुस्तक को पाठक छोड़ नहीं पायेगा, जब तक इसके तमाम पृष्ठों का रसास्वादन न करले। उनकी रचना शैली की बानगी के रूप में ये दो छंद मैं विशेष रूप से उद्धृत कर रहा हूँ --------
ललमुहों को थे ललकार रहे लाल यह
छलियों दो छोड देश, न तो देंगे सिसका।
होशियार हो सियार, शेर जाग गया अब
लगेगा पता है हक हिन्द पर किसका ?
* * * * * * * * * * * *
ऐसा चला चोला था पहन वसंती एक
टोला बालकों का, नेता शेखर था जिसका,
लेके हाथों में तिरंगे, जंगे आजादी के मैदां
बीच कूद पडे वीर देख रिपु खिसका।
गर्जना से गूंज उठा गगन, भूगोल डोल
गया औ दहल गया महल ब्रिटिश का।
चलता ही गया वो कुचलता फिरंगियों को
उसको न रोक पाया पहरा पुलिस का।
* * * * * * * * * * * *
गली गली आजादी का अलख जगाते हुए
शेखर का आर्य वीर दल बढ़ रहा था।
वतन पे तन-मन-धन सब वार, बाँधे
सर से कफन प्रति पल बढ़ रहा था।
अगर खुली दृष्टि से देखा जाये तो आचार्य संदीप का काव्य साहित्यिक संपूर्णता और भाषायी परिपक्वता से ओतप्रोत है, और ऐसे काव्य का सृजक अपनी पहचान खुद बना लेता है।
मुझे विश्वास है आचार्य संदीप का भविष्य आगे आने वाले समय के हाथों न केवल सुरक्षित है अपितु आगे आने वाली पीढ़ियों को सामाजिक सुरक्षा का कवच पहनाने को भी सक्षम है।
सरन घई
संपादक-प्रकाशकः नमस्ते कनाडा
१९१५ मार्टिन ग्रोव रोड, अपार्टमेंट ५०८,

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