Tuesday, March 3, 2009

योग और लोग



यों तो योग के नाम से लगभग हर आदमी परिचित है,विशेषतया स्वास्थ्य के प्रति जागरुक प्रत्येक व्यक्ति ।लेकिन योग के जानकार या साधक दुनिया में कितने हैं गणना करना बहुत मुश्किल है,क्योंकि सारी दुनिया में आज असंख्य लोग योग की क्रियाओं, आसन,प्राणायाम एवं ध्यानादि की विविध विधियों में किसी न किसी का प्रयोग कर स्वयं को शारीरिक,मानसिक एवं आत्मिक स्तर पर स्वस्थ रखने का सफल प्रयास कर रहे हैं।और तो और जो लोग योग या योगप्रवर्त्तक महर्षि पतंजलि के नाम से परिचित नहीं भी हैं वे भी नैसर्गिकरुप से किसी न किसी रूप में प्रतिदिन योग का अभ्यास करते हैं।भले ही वे लोग कभी भी योग चटाई Yoga Mat पर आसन प्राणायाम की विधियों का अभ्यास न करते हों।यहाँ तक कि मलयेशिया या इण्डोनेशिया जैसे देश जो कुछ अज्ञानी कठमुल्लों के कारण योग के अभ्यास को तथाकथित मजहब विशेष के अस्तित्त्व के लिये खतरा करार देते हैं योगप्रेमी नागरिकों से भरे पूरे हैं।वास्तव में दैनिक जीवन में योग का पालन बहुत ही शुभ लक्षण है मानव सभ्यता के सुखद भविष्य के लिये।
योग का कार्यक्षेत्र इतना विस्तीर्ण है कि लोक परलोक धर्म विज्ञान कला संस्कृति आदि मानवीय या परा मानवीय ज्ञात और अज्ञात सभी तथ्यों के सत्य इसमें समाहित हो जाते हैं।जीवन का हर कर्म या क्रिया कलाप असल में योग साधना के बिना सर्वथा असंभव है।योग हमें हमारे वैयक्तिक और वैश्विक जीवन के प्रति जागरुक बनाता है।चित्त की एकाग्रता योग साधना का प्रथम सोपान है,जो कि समस्त अगम्य गुह्य तत्त्वों को भी उद्‍घाटित करने की बड़ी ही सुगम्य कुंजी है।चित्त की समस्त वृत्तियों को अनुशासित किये बगैर दुनिया का छोटे से छोटा काम भी सही ढंग से नहीं किया जा सकता है,यहाँ तक कि खाना खाने की क्रिया भी अगर एकाग्र होकर नहीं की जाये तो अनवधानता से श्वासनली में अन्नकण चले जाने से आदमी को यम तक के दर्शन हो जाते हैं।मन की एकाग्रता भंग होने से हर रोज हज़ारों की संख्या में होनेवाले हादसों दुर्घटनाओं की वज़ह से क्या सारे ही अखबार ,टी.वी आदि भरे नहीं मिलते हैं।?इसके विपरीत चित्त की एकाग्रता के अभ्यास से महामूर्ख व्यक्ति भी महाकवि कालिदास जैसा अप्रतिम विद्वान बन जाता है।

यदि कोई व्यक्ति किसी भी प्राणी को पीड़ित देखकर स्वयं को पीड़ित सा महसूस करता है तथा मनसा वाचा कर्मणा किसी को कष्ट नहीं पहुँचाता है तो वह योग के प्रथम अंग यम “अहिंसा” का पालन करता हुआ योग का अपने जीवन में उपयोग करता हैं।हमारा इस प्रकार के साधकों से मात्र इतना और कहना है कि किसी भी प्रकार की हिंसा को रोकना भी अहिंसा ही है, जो कि कायर कमज़ोर या कामुक प्राणी के बस की बात नहीं है।अत:एव स्वयं को यदि तन मन और आत्मा से सशक्त बना लिया जाय तो हर हिंसा को अहिंसा में परिवर्तित किया जा सकता है उदाहरण के लिये अंगुलिमाल जैसे नर पिशाच को जो मृतकों की अँगुलियों की माला बनाकर गले में लटकाये रखता था,निमिषमात्र में किसी अल्कमिस्ट की भाँति गौतमबुद्ध द्वारा बदल दिया जाना क्या योग की अलौकिकता सिद्ध नहीं करता है?
कुछ भोले भाले सीधे सच्चे लोगों को योगदर्शन या अन्य धर्मशास्त्र पढ़े बिना ही सत्य और ईमानदारी से लगाव होता है।जो हमारी दृष्टि में नैसर्गिक योगमय जीवन जीते हैं।जब कोई किसी भी बाहरी दबाब के बिना चोरी जारी या आवश्यकता से अधिक धन का संचय करने जैसी बुराइयों के चक्कर में नहीं पड़ता है और जीवन की चदरिया कोरी की कोरी कबीर की तरह ज्यों की त्यों प्रभु के आगे धर देता है।तो योग उसके जीवन की आधार शिला बन जाता है। ।
तन से मन और मन से आत्मा की शक्ति अपेक्षया बलवती होती है।इसी से योग की साधना में हमें चरणबद्ध तरीके से उन्नति पथ पर अग्रसर होना चाहिये अर्थात योग द्वारा अपने तन मन व आत्मा का उद्धार करना चाहिये ।कुछ साधक लोग योग से केवल शारीरिक बीमारियों की समूल समाप्ति करना ही उद्देश्य समझ लेते हैं।जबकि योग हमारे मानसिक जगत को संतुलित रखने के साथ साथ आध्यात्मिक जगत की समस्त संभावनाओं को भी स्पष्टरूप से हस्तामलकवत प्राप्त करा देता है।
सिद्ध ऋषि मुनियों के अध्यात्म का धवलध्वज फहराने वाला योग आज के व्यावसायिक युग में व्यवसायिक दृष्टि से भी दूसरे सभी व्यवसायों से कहीं आगे है।जीवन में योग की उपयोगिता केवल धार्मिक या स्वास्थ्य्की दृष्टि से ही नहीं,बल्कि व्यापारिक दृष्टि से भी
अत्यधिक महत्वपूर्ण सिद्ध हुई है।लेकिन योग के इस व्याव्सायिक स्वरूप का हम भारतीयों ने कम ही लाभ लिया है।कारण स्पष्ट है कि योग हमारे लिये व्यापार नहीं बल्कि पूर्वज ऋषियों द्वारा प्रतिपादित जीवनचर्या है।लेकिन आज हम प्रमादवशात् इस जीवनचर्या से दूर होते जा रहे हैं।हम समझते और कहते हैं कि योग तो एक भारतीय विद्या है हम ही योग के नियामक हैं योग हमारा है।किन्तु जानते तक नहीं योग का सही स्वरूप क्योंकि स्वाध्याय का स्थान गपोड़ियों ने की बे-सिर पैर की कथाओं ने ले लिया है।दैनिक योगाभ्यास के बजाय टेलीविज़न में आँखे गड़ाये रखने से लाभ के स्थान पर हानि ही उपलब्ध होती है।
कोई भी विद्या किसी देश विशेष की नहीं होती बल्कि जो भी उस विद्या का अर्जन एवं संरक्षण करता है,विद्या उसी की हुआ करती है।आज अमेरिकन योग को पेटेण्ट कराने की भरपूर कोशिश में हैं,और भारतीय सरकार अपने शिक्षण संस्थानों में योग को लागू करने से डरती है,क्योंकि कुछ लोग सूर्यनमस्कार आदि के अभ्यास को धर्मनिरपेक्षता पर प्रहार मानते हैं।जो घृणित अनर्गल राजनैतिक प्रलाप के सिवा और कुछ नहीं है।वास्तव में आज यदि स्वामी रामदेव जैसा निर्भीक स्नातक गुरुकुल ने ना दिया होता तो विश्व पटल पर योग का कुछ ओर ही परिदृश्य दिखाई देता।
स्वयं को योगशिक्षक की बजाय योगा टीचर कहलाने में गौरव अनुभव करने वाले तथाकथित योगियों को योगशास्त्रों के श्लोकों या सूत्रों का पाश्चात्य विद्वानों द्वारा किया विषैला अनुवाद क्या समाधि तक ले जा सकता है?यदि नहीं तो क्यों न हम आर्ष भाष्यों के अध्ययन के लिये सन्नद्ध हों। गोरांग महाप्रभुओं ने देखो कितनी मेहनत की है कि सात समन्दर पार करके हिमालय की कंदराओं जा जाकर तपस्वियों से योग सीखा और आज पूरी दुनिया में ही नही अपितु ऋषिकेश जैसी सभी भारतीय योग नगरियों तक में भारतीयों को अंग्रेजी भाषा में योगासनादि की कक्षाएं पढ़ा रहे हैं।क्या हम भारतीय होने के नाते योग को व्यवसाय की बजाय अपना अध्यवसाय नहीं बना सकते हैं?क्या हम हिन्दी संस्कृत आदि भारतीय भाषाओं में असली योग विद्या का अभ्यास एवं विकास नहीं कर सकते ? यदि हाँ तो हमें भी अपना साथी मानिए और भारतमाता की ममता देश विदेश में बाँटिए।

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