Wednesday, February 11, 2009

प्ररोचना

- डॉ० सत्यव्रत शर्मा ‘‘अजेय’’
एम०ए०, पी-एच०डी०, साहित्याचार्य
अध्यक्ष-लावणी साहित्य परिषद्
४८३, आर्य नगर (पानी की टंकी के पीछे)
ज्वालापुर, हरिद्वार-२४९७०७

जन्म-जन्मान्तर की साहित्य-साधना के संस्कार युवाकवि संदीप कुमार ‘दीप’ में देदीप्यमान हुये हैं। वह अतीत से प्रेरणा प्राप्त कर युगानुरूप नव-निर्माण में संलग्न हुआ है। वह परम्परावादी भी है और स्वच्छन्दतावादी भी। उसकी कला में क्रियाशील स्वीकृति और विद्रोह के स्वर साथ-साथ प्रतिबिम्बित हुये हैं। वह नव नवोन्मेषशालिनी प्रतिभा से सम्पन्न क्रान्तदर्शी कवि है और वह प्रत्यक्ष रूप में भूत, भविष्य और वर्तमान को प्रत्यक्ष चित्र के रूप में दिखाने में सक्षम है। उसकी काव्य-कला जीवन की आलोचना है, उसमें एक आत्मा का दूसरी आत्मा के लिए निवेदन है। मैथ्यू आरनल्ड ने ठीक ही कहा है -
"Poetry is at bottom a criticism of life" अर्थात् कविता जीवन की व्याख्या है।
संदीप का ओजस्वी काव्य कायरों में वीरता एवं वीरों में उत्साह का संचार करता है। ‘‘आजाद-शतक’’ मुक्तक काव्य है, संदीप ने ‘‘आजाद-शतक‘‘ में प्रबन्ध काव्य के समान ही रस का अभिनिवेश किया है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने प्रबन्ध काव्य और मुक्तक काव्य में भेद प्रदर्शित करते हुये लिखा है ‘‘............................... यदि प्रबन्ध काव्य एक विस्तृत वनस्थल है तो मुक्तक एक चुना हुआ गुलदस्ता है।’’ संदीप ने अमर शहीद चन्द्रशेखर आज़ाद के जीवन के कुछ प्रेरक प्रसंग चुनकर ऐसा स्तवक कल्पित किया है, जिसे देखकर सहृदय भावक भाव-विभोर हो जाता है। उसका व्यंग्य-प्रयोग, सरसता, कल्पना की समाहार शक्ति, शब्द-सौष्ठव, मार्मिक घटनाओं का चयन, नाद-सौन्दर्य एवं अर्थद्योतन का सामर्थ्य देखते ही बनता है।
वर्तमान-काल में लिखा जाने वाला अधिकांश काव्य छन्द-बन्ध-विनिर्मुक्त स्वच्छन्द हो गया है, न मात्राओं की नाप-तोल, न वर्ण की गणना। जैसे आधुनिक बालाओं ने बालकों की वेशभूषा धारण कर स्त्री-पुरूषों की पृथक पहिचान को मिटा दिया है उसी प्रकार ‘‘नई कविता’’ ने गद्य-पद्य को समरूप बना दिया है। कविवर जगन्नाथ दास ‘‘रत्नाकर’’ ने ऐसे नयें कवियों के लिए लिखा था कि- ‘‘अनुप्रास-प्रतिबन्ध कठिन जिनके उर माँही’’ और जो कविताओं में छन्दशास्त्र के नियमों के पालन को न मानते हुए पद्य-रचना करते हैं, वे सीधे-सीधे गद्य ही क्यों नहीं लिखते। परन्तु जमाने की हवा रंग ला रही है और ‘‘नई कविता’’ या ‘अकविता’ की भरमार हो रही है। ऐसी कविताएँ नीरस और निष्प्राण होती हैं, वे पाठकों या श्रोताओं को तो क्या स्वयं रचयिताओं को भी कण्ठस्थ नहीं होती । ऐसी कविताओं में न तो काव्य के आन्तरिक तत्त्व पाये जाते हैं, न बाह्य। उनमें से कुछ अच्छी रचनाओं में विचार-वैदग्ध्य अवश्य होता है अतः ऐसी रचनाओं को कविता न कहकर ‘वैचारिकी’ कहना समीचीन होगा।
कवि संदीप हमारे अखाड़े (कवि-मण्डल) का उद्भट भट है, उसकी भाषा-शैली पर अखाड़े की छाप स्पष्टतया परिलक्षित होती है अतः वह इस नई कविता से कोसों दूर है, उसने अपने प्रस्तुत काव्य के प्रणयन में ‘‘घनाक्षरी’’ छन्द को चुना है, ‘कवित्त’ और ‘मनहरण’ भी इसी छन्द के अन्य नाम हैं। इसमें चार पंक्तियाँ होती है और प्रत्येक पंक्ति में ३१, ३१ वर्ण होते हैं। क्रमशः ८, ८, ८, ७ पर यति और विराम का विधान है, परन्तु सिद्धहस्त कतिपय कवि प्रवाह की परिपक्वता के कारण यति-नियम की परवाह नहीं भी करते हैं। यह छन्द यों तो सभी रसों के लिए उपयुक्त है, परन्तु वीर और शृंगार रस का परिपाक उसमें पूर्णतया होता है। इसीलिए हिन्दी साहित्य के इतिहास के चारों कालों में इसका बोलबाला रहा है। मैं इस छन्द को छन्दों का छत्रपति मानता हूँ।
मैंने सन् १९९२ ई० में ‘‘अमर हुतात्मा चन्द्रशेखर ‘आजाद’ संस्कृत टेलीफिल्म’’ (नाटिका) की रचना की थी। जो ‘‘भारतोदय’’ मासिक पत्रिका में क्रमशः प्रकाशित हो चुकी है, उससे प्रेरित होकर ‘संदीप’ ने अपने इस हिन्दी काव्य का उपादान ‘आज़ाद’ को चुना। उसका यह चुनाव उसके व्यक्तित्व के अनुरूप है।
इस काव्य में उसकी आन्तरिक भावनाएँ व्यक्त हुई हैं, वह चाहता है कि प्रत्येक मनुष्य के मन में देश भक्ति के भाव भरे हों, सत्य, धर्म, संस्कृति और सभ्यता का सदा विकास होता रहे, इन्हीं मांगलिक भावनाओं के साथ कवि आगे बढता है और तत्कालीन समाज की परिस्थितियों का सजीव चित्रण करता है-
‘‘भारतीय सभ्यता का पश्चिम में डूब गया-
भानु, घिरा चहुँओर घोर अँधियार था।
विकराल काली कालरात्रि से थे सब त्रस्त,
जनता में मचा ठौर-ठौर हाहाकार था।।’’
ऐसी विकट संकट बेला में मुक्ति दिलाने वीर चन्द्रशेखर आज़ाद का अवतरण होता है-
क्रान्ति का संदीप ले के गुलामी का अंधकार,
मेटने को आया चन्द्रशेखर आज़ाद था।
उक्त पँक्ति में ‘संदीप’ शब्द का श्लिष्ट प्रयोग सराहनीय है।
वीर रस के इस काव्य में वात्सल्य आदि रसों के भी छींटे कहीं-कहीं दृष्टिगोचर होते हैं। वीप्सा, अनुप्रास तथा मालोपमा-मण्डित बाल-छवि का चित्रण दृष्टव्य है-
प्यारा-प्यारा गोल-गोल, मुख चन्द्र सदृश था
अतिकृश होने पै भी सुन्दर था लगता।
उसके नयन थे विशाल, मृग-दृग-सम,
मोहक, निराले, सदा मोद था बरसता।।
कोमल-कमल-नाल-सम नन्हें-नन्ह हाथ,
धूल-धूसरित-गात और भी था फबता।
मिश्रीघोली मीठी बोली लगती थी अति प्यारी,
देख उस बालक को मन था हरषता।।
संदीप ने आजाद की बाल छवि को कला-मय कलापक (चार मुक्तकों का समूह) के माध्यम से निरूपित किया है। इसी प्रकार कहीं ‘युग्मक’ (दो छन्द) कहीं संदानितक (तीन-तीन छंदों का समूह), और कहीं कुलक (पाँच-पाँच छंदों का समूह) द्वारा उसने कथानक के तारतम्य को अक्षुण्ण बनाया है। यद्यपि ‘आज़ाद-शतक’ के मुक्तक पाठ्य मुक्तकों की कोटि में आते हैं। परन्तु उन्हें गाया भी जा सकता है अतः वे गेय भी हैं।
घटनाओं के समन्वय को कथानक कहते हैं, ‘आजाद शतक’ की घटनाओं का प्रबल प्रभाव हृदय पर पड़ता है, प्रकाशनोपरान्त देश और काल भी उस प्रभाव से अछूते नहीं रह सकेंगे। ‘आजाद-शतक’ की प्रमुख घटनाएँ इस प्रकार हैं - ब्रिटिश गवर्नमेन्ट के समय भारत की दुर्दशा का चित्रण, बालक चन्द्रशेखर का जन्म, वात्सल्य, अलीराजपुर में भीलों की संगति, धनुष-बाण-साधना, वाराणसी में संस्कृत का अध्ययन, जलियाँवाला बाग-काण्ड से शेखर का स्वातन्त्र्य-संग्राम में प्रवेश, बालक आजाद का ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध असहयोग आन्दोलन में भाग लेना और गिरफ्तार होना, जज के समक्ष अपना नाम ‘आजाद’ बताना और सदैव आजाद रहने की दृढ़ प्रतिज्ञा करना, हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ का सक्रिय सदस्य होना। काकोरी-काण्ड (काकोरी रेलवे स्टेशन पर ट्रेन रोककर सरकारी खजाने को लूटना), मुखबिरों द्वारा घटना का भेद अंग्रेजी सरकार को मिलना, क्रान्तिकारियों पर मुकदमा चलना और उसमें से कुछ को फाँसी व कुछ को अन्य सजाएँ दी जाना, आज़ाद का फरार होना, मोटर ड्राईविंग सीखना, रियासत खनियाधाना के राजा कालका जी सिंह देव से मित्रता, शेखर का झाँसी से बम्बई जाना, जहाजों पर माल लादने का कार्य करना, सरदार भगतसिंह से भेंट। हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी का गठन और कानपुर में आज़ाद का अपनी माँ से मिलन, भगत सिंह द्वारा सांडर्स-वध कर लाला लाजपतराय का बदला चुकाना, बम बनाने की कला कलकत्ता में सीखना, असेम्बली, दिल्ली में बम विस्फोट, अल्फ्रेड पार्क में अंग्रेजों के साथ युद्ध, अन्त मे आज़ाद का शहीद होना। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के इतिहास में घटने वाली घटनाएँ, भौतिक संघर्ष और विभिन्न विकास इन घटनाओं से कुछ न कुछ अनुप्राणित अवश्य हैं।
‘आज़ाद शतक’ का कार्य उदात्त है। इसका अंगी रस ‘वीर’ है उसका नायक महासत्त्व, निगूढ अहंकारवान् और दृढ़व्रत है।
काव्य की शैली में असाधारणता है, इसीलिए उसमें अद्भुत अलंकार-योजना, पद-योजना, बिम्ब-विधान की समृद्धि है। सन्दर्भ के अनुरूप भाषा में सुष्ठु शब्दावली का संयोजन हुआ है।
शतक परम्परा में ‘आजाद शतक’ एक अद्भुत साहित्यिक उपलब्धि है। हमारी कामना है कि-
‘‘दीपः द्युतिं वै प्रकटीकरोतु,
दूरीकरोतु प्रभयाऽन्धकारम्।
देशे-विदेशे लभतां प्रकामं,
स्नेहं सुकीर्ति गुरु-गौरवञच।।’’

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