Thursday, March 26, 2009

हरीतिमा:आचार्य पं.हरिसिंह त्यागी

हरि-महिमा
तव महिमा से दिनकर द्योतित।
तव आभा से शशि है शोभित।।
नक्षत्रों से गगन विरंजित।
विभुवर ! तुम करते हो मण्डित।।१।।

तुमने बनाई पर्वत श्रेणी।
शोभित ज्यों धरती की वेणी।।
कल-कल करती सरिता बहती।
पल-पल तेरी महिमा कहती।।२।।

है गाम्भीर्य भरा शुचि सागर।
रत्नों से है वह रत्नाकर।।
इसमें आकर मिलती गंगा।
परम प्रहर्षित तरल-तंरगा।।३।।

धरणी पर छाई वन-श्रेणी।
हरित धरा रहती सुख देनी।।
कण-कण में प्रभु का है वासा।
पूर्ण करो हरि! ‘‘हरि’’ की आशा।।४।।
आये थे दयानन्द
उद्धार करने वेद का, आये थे दयानन्द।
उपकार करने देश का, आये थे दयानन्द।।

ऋषि ने अनाथों को, सदा सीने से लगाया।
विधवाओं के उत्थान में, जीवन है बिताया।।
भव-भीतियाँ मिटाने को, आये थे दयानन्द।।।१।।

जिज्ञासुओं को वेद का, रस-पान कराया।
पाषाण-पूजकों को सत्य-ज्ञान सिखाया।।
अँधियार मिटाने को ही आये थे दयानन्द।।।२।।

राष्ट्र की बिगड़ी दशा देखी जो ऋषि ने।
भारत की पराधीनता देखी जो ऋषि ने।।
स्वाधीनता जगाने को आये थे दयानन्द।।।३।।

सत्यार्थ के प्रकाश को ऋषि ने प्रकट किया।
वैदिक ‘‘व्यवहारभानु’’ को लिखकर अमिट किया।।
वेदादिभाष्य करने को आये थे दयानन्द।।।४।।
ऋषि बोध
रखा व्रत पिता सँग, जगा रात भर वह।
सभी सो चुके थे न सोया मगर वह।।
चुहें देख ये मूलशंकर ने जाना,
चुहे को हटाता न जो, शिव नहीं है।।१।।

ये पत्थर है कोरा चूहे का खिलौना।
चढ़े फूल-माला भी उसका बिछौना।।
हैं मिष्टान्न-मेवे भी भोजन चुहे का,
कि शिव ने उन्हें तो छुआ तक नहीं है।।।२।।

पिता सो रहे हो उठो तो पिताजी।
ये मेरी समस्या है सुलझा दो जल्दी।।
ये कैसा है शिव जो करे नात्मरक्षा,
चुहे को हटाता जरा भी नहीं है।।।३।।

पिता ने सुना तो बहुत क्रोध आया।
उसे शम्भु की भक्ति का पथ जताया।।
धरम-काम में तर्क करना ना बेटा,
यही शिव हमारा यही शिव यही है।।।४।।

ज्यों अवसर मिला चल दिये छोड़ सब कुछ।
ये घर-बार उनको लगा आज है तुच्छ।।
बहुत दिन के पश्चात् मथुरा पुरी में,
गुरू पा लिया मानों शिव भी वही है।।।५।।

गुरुकुल प्रणाली के रक्षक वही थे।
कि विधवा, अनाथों के सेवक वही थे।।
स्वाधीनता के थे प्रेरक दयानंद,
‘हरि’ कीर्ति उनकी यहाँ छा रही है।।।६।।
आये थे श्रद्धानंद
वैदिक-प्रचार के लिए, आये थे श्रद्धानंद।
शुद्धि-प्रसार के लिए, आये थे श्रद्धानंद।।
चण्डी की पुण्य-भूमि में, खोला था गुरुकुल।
ऋषिवर के मार्ग चलने को, वह थे बड़े व्याकुल।।
आजाद करने देश को, आये थे श्रद्धानंद।।।१।।।
खोला था सीना आपने, खालेंगे गोलियाँ।
‘‘गोरों चले जाओ’’, यहाँ बोली थीं बोलियाँ।।
उनकों भगाने के लिए, आये थे श्रद्धानंद।।।२।।।
जो कुछ बचा था कार्य दयानंद स्वामी से।
पूरा करूँगा मैं उसे, तन-मन से औ जी से।।
गुरुकुल प्रणाली खोलने, आये थे श्रद्धानंद।।।३।।।
शुद्धि-प्रचार का यहाँ, डंका बजा दिया।
लाखों ही मुसलमानों को, हिन्दू बना दिया।।
अमरत्व प्राप्त करने को, आये थे श्रद्धानंद।।।४।।।
वैदिक-महाकासार के, सच्चे मराल थे।
सारी मनुष्य-जाति के, वह उच्च भाल थे।।
‘हरि’ भक्ति में समाने को, आये थे श्रद्धानंद।।।५।।।
दर्शनानन्द आये थे
सत्यासत्य तोलने की, न्याय्य बात बोलने की,
गुरुकुल खोलने की, चाह उमगाये थे।
तेज में दिवाकर आहलाद में सुधाकर,
गंभीरता के अब्धि अथाह कहलाये थे।।
शास्त्रार्थ-महारथी सुसारथी समाज - रथ,
भूलें भटकों को धर्म-पथ दिखलाये थे।
मानव-सुहंस-सम, वंशों में सुवंश-सम,
भूषणावतंस-सम ‘‘हरि’’ मन भाये थे।।

दर्शनों की ज्योति ले के, ईश्वर प्रतीति लेके,
गुरुकुल प्रीति लेके, सुभग सुहाये थे।
पाखण्ड के खण्डन को, वेद-विधि मण्डन को,
मूर्ति-पूजा भंजन प्रंभजन कहाये थे।।
तर्क का कुठार धार, दर्शन प्रचार कर,
दिशि-दिशि ‘‘दर्शन’’ के दर्शन कराये थे।
निर्विकार राम-सम, योगी ‘‘हरि’’ कृष्ण-सम,
दर्शनीय स्वामी दर्शनानन्द जी आये थे।।
श्री स्वामी दर्शनानन्द
जीवन-प्रदीप लेकर, आये थे दर्शनानन्द,
दर्शन-प्रदीप्ति उसमें, लाये थे दर्शनानन्द।।
ले प्रेरणा ऋषि से, रवि से शशांक के सम,
पाखण्ड की निशा में, चमके थे दर्शनानन्द।।
निर्धन-निराश बालक, भूलें न संस्कृति को,
गुरुकुल की यह प्रणाली, लाये थे दर्शनानन्द।।
आकार से रहित है, ईश्वर जगत में व्यापक,
तजिये यह मूर्ति-पूजा, कहते थे दर्शनानन्द।।
शास्त्रार्थ-महारथी थे, वैदिक-धरम के सच्चे,
विद्वान थे यशस्वी, त्यागी थे दर्शनानन्द।।
लेखक महामनीषी, योगी उदार चेता,
ऐसा मिला न नेता, जैसे थे दर्शनानन्द।।
उनके प्रताप से है, गुरुकुल अचल बगीचा,
हम चंचरीक इसके, माली थे दर्शनानन्द।।
थीं तीन ही चवन्नी, खोला था जबकि गुरूकुल,
विश्वास ईश का ले, आये थे दर्शनानंद।।
जाते समय उन्होंने, लोगों से ‘‘हरि’’ कहा था,
शंकाएँ सब मिटा लो, जाता ये दर्शनानंद।।
महात्मा गाँधी
ओ! तपस्वी गाँधी तेरे,
हित करूँ क्या मैं समर्पण।
त्याग त्यागी का यही है,
देशहित हो मेरा जीवन।।१।।

देह थी ज्यों धनुष-यष्टि,
बाण अपनी वाक-शक्ति।
काट डाला राहु-रिपु को,
तकली का लेकर सुदर्शन।।२।।

तप्त था यह देश अपना,
देखता स्वातन्त्र्य-सपना।
शत-अब्दियों से सोये भारत,
को कराया सूर्य-दर्शन।।३।।

दुग्ध-सरिता ‘हरि’ बहेगी,
स्वर्ण की वर्षा करें घन।
युगप्रवर्तक गाँधी मोहन।
आपको शत-शत नमन।।
गाँधी-गरिमा
निज वपु रूप में बापू तुम, वह मानवता साकार लिए।
आये भारत जन-जीवन हित, तुम मानवता का सार लिए।।

क्यों आया है कहाँ जाना है, सब अपने कौन विराना है।
मानव तुम को निज जीवन का, नहीं स्वाभिमान मिटाना है।।
संदेश सुनाने जन-जन को, जीवन-तन्त्री के तार लिए।।१।।

समता-क्षमता के अब्धि आप, ममता-करूणा के आगर थे।
सेवा वल्ली के हे प्रसून!, तुम भारत राष्ट्र उजागर थे।।
भारत स्वाधीन कराने को, अपने उर में उद्गार लिए।।।२।।

अब कौन कहे नादानों की, काली करतूतों कें फल को।
बलिदानी बापू तुम को भी जो मार, किया पूरे छल को।।
पर जीवित हो तुम यशः काय, तुम मृत्यु का उपहार लिए।।।३।।

हे तेजपुंज हे यशोधाम !, हे भारत की शोभा ललाम।
तव जन्म पुनः हो भारत में, करता ‘हरि’ तुमको शत प्रणाम।।
तुम आये सत्य- अहिंसा का, जन-मोहन मंत्र प्रसार लिए।।।४।।
शहीद-स्मृति
मातृभूमि पर प्राण न्यौछावर करने वालों,
याद रहेगी युग-युग तक बलिदान-कहानी।
रक्त सींचकर बल-पौरूष से मरने वालों,
भूल सकेगा क्या स्वदेश, बलिदान-निशानी।।१।।

प्राण तजे अपनाया तुमने, अखिल देश को,
छोड़ चले घर-बार, बचाया मातृभूमि को।
राष्ट्र-प्रेम पर प्राण, न्यौछावर करने वालों,
युगों-युगों तक कभी न होगी, बात पुरानी।।२।।

तुम्हीं सिंह के बच्चे, सच्चे वीर तुम्हीं थे,
भीमार्जुन थे वीर, शिवा प्रणवीर तुम्हीं थे।
तुम भारत-सन्तान, आन पर मरने वालों,
समर-ज्वाल में डाल जवानी रक्खा पानी।।३।।

हे शहीद! तुम मरे नहीं, ‘हरि‘ अमर बने हो,
देश-प्रेम में बलि-बलि होकर भ्रमर बने हो।
राष्ट्र-धर्म पर प्राण समर्पण करने वालो,
याद रहेगी बलिदानों की अमर-कहानी।।४।।
तिरंगा
तिरंगा सदा मुस्कुराता रहेगा।
‘‘भुवं मातरं वंदे’’ गाता रहेगा।।
सुनाता रहा यह दुखों की कहानी।
बहाता रहा यह युगों अश्रुपानी।।
पुनः मिल गई है इसे जिंदगानी,
तरंगे हवा में उठाता रहगा ।।।१
प्रफुल्लित गगन है इसे अंक भरकर।
सुविकसित धरा है इसे शीश धर कर।।
ये भारत का प्यारा नया चाँद-सा है,
चकोरे वतन को रिझाता रहेगा ।।।२
शहीदों की स्मृतियाँ दिलाता है हमको।
पराधीनता से बचाता है हमको।।
प्रफुल्लित किये है हमारे चमन को,
हमें चक्र-चंदा दिखाता रहेगा ।।।३
तपः पूत ऋषियों की दृढ़ साधना को।
तथा नृपगणों की सुयश कामना को।।
छबीली धरा की ‘हरि’ भावना को,
जगाता रहा है जगाता रहेगा ।।।४
महर्षि दयानन्द थे इसके पुजारी।
भरे इसमें ‘‘श्रद्धा’’ ने नव प्राण भारी।।
गाँधी, जवाहर, सुभाष और शेखर,
की गाथा अमर है, सुनाता रहगा ।।।५

राष्ट्र-ध्वज
उच्च-शिखर पर रहे तिरंगा,
यह सबका अरमान है।
इसका बाल न बाँका होवे,
यह भारत की शान ह।।
इसमें व्याप्त चतुर्वेदों के,
तीन काण्ड का ज्ञान है।।१।।
चौथे आश्रम का प्रतीक है,
इसका प्यारा भगवा रंग।
हरित श्वेत है भारत-सुषमा,
नहीं कहीं से यह बदरंग।।
गंगा-यमुना-सरस्वती का,
यह संगम स्थान है।।२।।
भारत का हर बच्चा-बच्चा,
इसे देख हरषाता है।
भारत-माँ का प्राण-तिरंगा,
लहर-लहर लहराता है।।
बूढ़े-बच्चे और युवकों का,
इसमें तो गुणगान है।।३।।
इसे देखकर अमर शहीदों की,
स्मृतियाँ ही आती हैं।
बिस्मिल, शेखर, भगत सिंह के,
बलिदानों की थाती है।।
हिन्दू-मुस्लिम औ सिक्खों का,
यह तो हिन्दुस्तान है।।४।।
दयानंद के अरमानों को,
पूरित किया सुभाष ने।
सत्य, अहिंसा का व्रत लेकर,
गाँधी मोहनदास ने।।
सत्व, रजस औ तमस प्रकृति का,
इसमें बिम्ब-विधान है।।५।।
तिलक, गोखले तथा लाजपत,
इस पर ही बलिदान हुये।
देश स्वतन्त्र हुआ उनसे ही,
औ नूतन निर्माण हुये।।
चन्द्र-सूर्य में, नक्षत्रों में,
उनकी दीप्ति महान है।।६।।
दर्शनानन्द औ श्रद्धानंद ने,
गुरुकुल खोले इसीलिये।
फहराये गा यहाँ तिरंगा
अपनी बाँकी छवि लिये।।
‘हरि’ इसमें तो चमक रहा उन,
भक्तों का बलिदान है।।७।।
भारत-पाक-युद्ध
घूम-घूम-झूम-झूम, चले हैं विमान मेरे,
देश के जवान आज, चले पाकिस्तान को।
ध्वस्त शत्रु-सेना करि, पस्त याहिया को करि,
स्वाभिमान भरि ‘‘हरि’’, राखे निज आन को।।
ध्वंस जैसे कंस किया, मारा शिशुपाल जैसे,
मारा था ज्यों मुर जैसे राक्षस शैतान को।
वैसे ही ये कृष्ण बलराम जैसे वीर चले,
धीर चले ध्यान धर, वीर हनुमान को।।

जेट तोड़े नेट से औ टैंक तोप दाग तोड़े,
आग जारी जहाँ-तहाँ, चिता ज्यों श्मशान को।
भाग चले केते कहीं, साग लिए रोटी पर,
त्याग चले केते कहीं, अपने मकान को।।
घेर-घेर मारे जहाँ मिले वहीं म्लेच्छ जन,
पस्त किये हौंसले मिटाया रिपु-मान को।
मिटी युद्ध चाह ‘‘हरि’’, अब न करेंगे त्रुटि,
सीख गये आज वह, छेड़ हिन्दुस्तान को।।
किसान
ए भारत के श्रमिक किसान।
तुझ से प्राणित देश महान।।
गर्मी, सर्दी, वर्षा, आँधी, में भी करता नित श्रम दान।
ए भारत के श्रमिक किसान।।१।।
तेरे श्रम से ग्राम सुविकसित।
नगर तुझी पर हैं आधारित।।
अपना ध्यान न करके, करता प्रतिपल तू जन-जन का ध्यान।
ए भारत के श्रमिक किसान।।२।।
खेत तेरे जीवन की शक्ति।
यही तेरी संध्या औ भक्ति।।
कर्म-योग का तू साधक है, तेरा अनुपम मंच मचान।
ए भारत के श्रमिक किसान।।३।।
मृदु मिष्टान्न न तुझको भाया।
गुड़-चटनी से भोजन पाया।।
तृष्णा को ना बढ़ने देता, दूध-दही-मट्ठा-जल पान।
ए भारत के श्रमिक किसान।।४।।
तुझ को अपना पशुधन प्यारा।
करें वृषभ हल घर उजियारा।।
‘हरि’ तू अपने श्रम से करता, सस्य श्यामला भू का त्राण।
ए भारत के श्रमिक किसान।।५।।

गुरूवर नरदेव वेदतीर्थ
क्या कहें हे देव यतिवर, क्या कहें नरदेव यतिवर।
देव थे इस पुण्य-कुल में, हो गये स्वर्देव यतिवर।।

सत्य-संयम-शीलता की, मंजु मालाये लिए तुम,
क्रम से मनके जप रहे थे, पुण्य-कुल के भक्त यतिवर।।

त्याग के मानी धनी थे, आजन्म ब्रह्मचारी रहे थे,
लोकेषणा के हे पुजारी !, सत्य-पथ के पान्थ यतिवर।।

कुल के रक्षक देश-रक्षक, स्वाधीनता के थे पुजारी,
मान थे तुम इस धरा के, तीर्थ वेदों के यतिवर।।

छोड़कर गुरुकुल धरोहर, चल दिये अज्ञात पथ में,
इस नाव के थे तुम खिवैया, मध्य में छोड़ी गुरूवर।।

प्रेम था शुचि छात्रगण से, प्रेम था अध्यापकों से,
‘‘राव जी’’ का भक्त है ‘हरि’, दिव्य दर्शन दो गुरूवर।।
दिव्य-दिवाली
दीपक जलते बुझ जाने को।
यह जीवन है मिट जाने को।।
कुछ दिन तू भी चमक दिखा ले,
कहती यही सदा दीवाली।।।१।।

ब्रह्म-प्रदीप जलाने के हित।
शान्ति-संदेश सुनाने के हित।।
पान भक्ति-रस का करता मन,
तब मनती तेरी दीवाली।।।२।।

यम-नियमों के अनुपालन को।
जगदीश्वर के आराधन को।।
ज्ञान-गंग में स्नान करे जा,
तब ही तेरी है दीवाली।।।३।।

तन-मन में समता लाने को।
वेधा से मेधा पाने को।।
परहित में जीवनयापन कर,
तब ही तेरी है दिवाली।।।४।।
निराली दिवाली
ये आयी शरद में, निराली दिवाली।
किसी घर उजाला, किसी घर उजाली।।

किसी के चमन में सुमन खिल रहे हैं।
कहीं जीर्ण जर्जर से तन हिल रहे हैं।।
खड़ा कोई ऐसे में दर पर सिसकता,
बदन भी है नंगा तथा पेट खाली।।।

अमीरी गरीबी के सिर पर चढ़ी है।
अमीरों का क्या उनको अपनी पड़ी है।।
किसी की चमक से चकाचौंध कोई,
कि निर्धन को लगती अमा आज काली।।।

इमारत बुलन्द हैं गरीबों के सिर पर।
पै उनके नसीबों में हैं उनके छप्पर।।
कहें तो कहें आज वे किससे जाकर,
करें जो शिकायत ‘हरि’ वह निराली।।।
वेदना
किसी का भला क्या, बुरा कर रहा हूँ।
गरल पी चुका हूँ, गरल पी रहा हूँ।।

किसी को रूलाना बुरा तो है लेकिन,
किसी को हँसाना बुरा क्या है, लेकिन-
हँसा ही रहा हूँ स्वयं को रूलाकर,
कि जख्मों पे अपने, नमक मल रहा हूँ।।१।।

दृगों के कणों से विजन-वन की दावा,
बुझाना ही मुझको भला लग रहा है।
कि श्वासों के झोंको से सूखे समन्दर,
ये प्रयास अपना, सफल कर रहा हूँ।।२।।

चला जा रहा हूँ विषम वक्र-पथ पर,
हवाओं की टक्कर सहन कर रहा हूँ।
तपन पड़ रही है मुसाफिर के सिर पर,
जलन से जलन को शमन कर रहा हूँ।।३।।

तिरस्कार कितने सहे जा चुके हैं।
प्रतिकार कितने किये जा चुके हैं।।
किया जा चुका है हृदय को भी पत्थर,
‘‘हरि’‘ वेदनाएँ सहन कर रहा हूँ।।४।।

दुखों में भी खुशियाँ मनाता रहा हूँ
दुखों से ही नाता, बढ़ाता रहा हूँ।
दुखों में भी खुशियाँ, मनाता रहा हूँ।।

अभावों की दुनिया मेरे पास में है,
अभावों में जीवन, बिताता रहा हूँ।
गमों को ही मैंने, दिये हैं निमन्त्रण,
विपद को गले से, लगाता रहा हूँ।।१।।

गरीबों की दुनिया में मैं बस रहा हूँ।
उन्ही की मुहब्बत में मैं फँस रहा हूँ।।
अमीरों की मुझको नहीं कुछ जरूरत,
गरीबों के मैं पास, जाता रहा हूँ।।२।।

तिरस्कार मुझको मिले हैं हमेशा,
पुरस्कार मुझसे बिचलते रहे हैं।
गमों का सदा जाल बिछता ही देखा,
मुसीबत को अपना, बनाता रहा हूँ।।३।।

ये जीवन की नैया तो मझधार में है।
खिवैया न कोई भी पतवार पे है।।
‘‘हरि’’ तेरे बल पर बही जा रही है,
कि साहिल से मैं, लौ लगाता रहा हूँ।।४।।
मधुमास
मधुमास विकास हुआ वन में।
हरियाली छायी आँगन में।।
कहीं चातक चाह करे प्रिय से।
कहीं कोकिल कूक भरे हिय से।।
कहीं कंज में भौर अटकता है।
कलियों में शीश पटकता है।।
घनघोर में मोर प्रभावित हो,
कहीं कूजा करे वन-कानन में।।
कुछ हंस सरोवर पास फिरें।
सुन्दर सारस रस हास करें।।
हरिणों की डार निराली है।
विहगावलि पीली काली है।।
ये किंशुक शुक-सम कुसुमों से,
भ्रम डाल रहे सबके मन में।।
सरसों ने पीला पुष्प-पटल,
बाँधा है अपनी वेणी से।
चितवन वाली कुसुमालि ने।
कज्जल सारा अलि श्रेणी से।।
घनश्याम उमड़के बरसने लगे,
छाई हैं घटाएँ सावन में।।
सूखी शाखा लहराने लगी।
नैराश्य में आश जगाने लगी।।
लतिका जो हताश पड़ी हुई थी,
वह फूलों की माल सजाने लगी।।

है उमंग चतुर्दिक छाई हुई,
घर-बार में बाग तड़ागन में।।

अनंग के संग बसन्त रहे।
बसन्त के संग अनंग रहे।।
फिरता है अनंग पिनाक कसे।
औ बसन्त फिरे निज बाण गहे।।

निरीहों को मारने को, मृगया-
‘‘हरि’’ खेल रहे वन-उपवन में।।
वासन्ती-वैभव
वसन्ती आ रही देखो, सुनाने राग जीवन का।
जिधर देखो वसन्ती का, छबीला-सा वसन चमका।।
कहीं कोकिल सुना जाती, सुरीली तान में गाना।
कहीं कुसुमों की चितवन में, हुआ भौरा भी मस्ताना।।
कहीं तृष्णा में भूला-सा, रटे चातक प्रिय आना।।।
लगाये पाँच अवगुण्ठन, मगर उसका वदन चमका।।।१।।।

किसी पतझर की डाली ने, सुनाया नित्य का रोना।
पुरातन-पत्र के आँसू, बनाना और ढुलकाना।।
कभी फिर होगा क्या मुझको, मेरे जीवन में मुस्काना।।।
कि इतने में किसी वरदा का, हँसता-सा वदन चमका।।।२।।।

कमल के सर हैं चमकीलें, कहीं सरसों के वन पीले।
पसारे पंख पक्षीगण, उड़ें आकाश में नीले।।
भ्रमर भी कर रहे गुंजन, हुए मकरन्द से गीले।।।
कि हंसो की मुखर माला से उसका, मृदु हसन चमका।।।३।।।

कहीं जूही, कनेरी, खिल उठीं, कचनार झरबेरी।
कुसुम-धन्वा के बाणों से, व्रणों ने काय क्यों घेरी।।
पपीहा प्यास से व्याकुल, जलद ने क्यों करी देरी।।।
लगे उपचार में भौरे, मगर व्रण हो सघन चमका।।।४।।।

‘‘हरि’’ उत्सव रचाया क्या, धरित्री पर पुरन्दर ने।
या महफिल जोड़ ली आकर, दुबारा भी सिकन्दर ने।।
तरंगों को उठाकर के, प्रशंसा की समन्दर ने ।।।
कि जिसको देखने प्रणयी, जनों का संगठन चमका॥५॥
सुमन
विकसित सुरभित सुन्दर तन,
पा लिया सुमन उपवन में।
शोभित भासित यौवन-धन,
पाया उद्यान-सदन में।।१।।

वय अल्प मुदित जीवन से,
सुरभित करते जन-जन को।
नयनों की प्यास बुझाते,
पुलकित करते हर मन को।।२।।

झँझा के झोखे तुमको,
झकझोर चले जाते हैं।
श्यामल-बादल गर्जन में,
कर शोर चले जाते हैं।।३।।

मधुलोभी मधुप लुटेरे,
पीते जाते रस तेरा।
तितलियाँ सुमन तव मुख का,
डाले रहतीं नित घेरा।।४।।
तुम अपने को अर्पित कर,
मनुजों का मान बढ़ाते।
जाते-जाते भी तुम तो,
मानव की शान बढ़ाते।।५।।
रे सुमन तुम्हारे जीवन-
की यह अमिट कहानी।
खिलवाड़ करे जो तुमसे,
‘‘हरि’’ करता वह नादानी।।६।।
फूल और शूल
जिन फूलों को मैं चाहता हूँ,
फूल बडे चमकीले हैं।
पर उनमें तो गन्ध नहीं है,
यों ही रंग-रंगीले हैं।।१।।

अरे हठीले भ्रमर न जाना,
व्यर्थ उन्हें तू नहीं सताना।
उनमें भरा पराग नहीं है,
ओस-कणों से गीले हैं।।२।।

शूल भले हैं उन फूलों से,
पैरों के नीचे आते ।
नहीं सताते बिना सताये,
स्वत्व सहित गर्वीले हैं।।३।।

सुमन न कहना उन फूलों को,
मनसिज के जो बाण बने हैं।
त्राण नहीं ‘‘हरि’’ उनसे कुछ भी,
हृदय-विदारक कीलें हैं।।४।।
माली
वन-उपवन में तर्वाली पर,
कूक रही कोयल काली।
श्यामल-बाल के गर्जन में,
चमक रही विद्युत-लाली।।१।।

चम्पा, जूही, चमेली, बेला,
सूर्यमूखी औ बकुलाली।
विकसित-सुरभित-सुधा-समन्वित,
उपवन की डाली-डाली।।२।।

कुसुम-कदम्ब पर श्याम सटा-सी,
शोभित गुंजित भ्रमराली।
नभस मास उद्यान डाल पर,
झूला झूल रही आली।।३।।

ओट लिए झीने वारिद की,
झाँक रहा अंशुमाली।
‘‘हरि’’बगिया को निरख-निखकर,
मन-मन मुस्काता माली।।४॥
प्रेम-पन्थ
पतंग जल रहा है, शमा चुप खड़ी है।
सजा प्रीति की तो, बहुत ही कड़ी है।।
चला जो पथिक भी, मुहब्बत की मंजिल।
रुदन से हुई उसकी, आँखें भी धूमिल।।१।।

फँसी जाल में जब, सरोवर की मछली।
तो निष्ठुर हो जल ने भी दृष्टि बदल ली।
यही न्याय है जग का, प्रेमी के संग में।
सुलगती विरह-ज्वाला हो उसके अंग में।।२।।

तुझे चाँद पाने को, फिरती चकोरी।
मगर दूर बैठा करे तू छिछोरी।।
नहीं लाज तुझको बहाता गरल को।
चखे तेरा प्रेमी भले ही अनल को।।३।।

बहुत कह चुके अब, कहाँ तक सुनाये।
ये तोते चशम जग कहाँ तक बतायें।।
मगर ऐसी प्रीति जो विरहों से खाली।
न उसमें मजा ‘‘हरि’’, न वह कुछ निराली।।४।।

प्रणयी से
ये मेरी विनय थी मुझे मत सताना।
मगर तुम हमेशा सताते रहे हो।।
प्रणय के अनल में झूलसते हुए को,
विरह की अनल से जलाते रहे हो।।।१।।।

मुझे क्या पता था सदयता तुम्हारी।
दया-पात्र जो बन सका ना भिखारी।।
आशा थी दिल पर चलाओगे खंजर,
मगर दूर से तुम डराते रहे हो।।।२।।।

हँसाते कभी हो रूलाते कभी हो।
न अपने निकट तुम बुलाते कभी हो।।
ये थोड़ी दया है शलभ के लिए क्या,
शिखा की जलन से बचाते रहे हो।।।३।।।

तजा मान ‘हरि’ ने ग्रहण की तपस्या।
न आशा तजी औ न छोड़ी समस्या।।
मैं समझा कि तड़पाना है क्या तुम्हारा,
विरह से मिलन को घटाते रहे हो।।।४।।।
प्रणय-चित्र
चतुर चितेरा बैठ गया है,
सदय प्रणय का चित्र बनाने।।

ऊपर वारिद भी नीला है।
समय पड़े पर प्रचुर मिला है।।
नील-पटल पर सतत सजेगा,
चमक-चमक कर लगा रिझाने ।।।१।।।

रोम-राजि की लता बनी है,
चंचल-नयन-कुसुम विकसे है।।
श्रवण-पुटों के लता-पत्र से,
बने चित्र को लगे सजाने ।।।२।।।

प्रेम-पात्र में मोह-मसी है।
विरह पाण्डुता पीत लसी है।।
उन्मन-मन की कूंची लेकर,
बैठ गया वह चित्र बनाने ।।।३।।।

कल-कल नाद हृदय से होता,
दो नयनों से निर्झर झरता।
लता मूल में बहता-बहता,
बने चित्र को लगा धुलाने ।।।४।।।

तुंग नासिका मलयानिल-सी।
छोड़ रही है उष्ण-उष्ण-सी।।
सौरभ ले ‘‘हरि’’ नयन-कमल की,
धुले चित्र को लगी सुखाने ।।।५।।।

चाँद तुम क्यों दूर जाते
चाँद तुम क्यों दूर जाते और छिप-छिप झाँक जाते।
निज दरस से ही हमेशा तुम हमें हरदम रिझाते।।

तुम न समझो तुम सदा यों ही रहोगे चमचमाते।
रूप पर अपने रहोगे इस तरह से जगमगाते।।
उस दिवस को याद कर लो, जब तुम्हारी सब चमक-
लीन हो जाती गगन में और दर्शन तक न पाते।।।

व्योम में छिपना-चमकना हास है निर्मल तुम्हारा।
अँँख-मिचौनी खेल में संसार तुमसे आज हारा।।
इन चकोरों से जरा तो पूछ लो कि दर्द क्या है-
क्या दवा है जिस दवा को खोजते दिन रात जाते।।।

तव किरण की कोर का इक तीर-सा चुभता हृदय में।
या सुनहली डोर छोड़ी बाँधने मुझको प्रणय में।।
चाँद तेरे दर्श पाने को ‘हरि’ निशिदिन भटकता-
तुम हमें परखा करो पर हम तुम्हें ना जान पाते।।।
एक पक्षीय प्रीति
प्रणय के पतंगे जरा देख लेना।
तुझे याद करती शमा क्या कभी है।।
तू करता रहे दान जीवन अनोखा,
मुहब्बत ये तेरी कहाँ तक भली है।।।

मुहब्बत में क्यों तू मिटा जा रहा है।
न चातक भी कण स्वाति का पा रहा है।।
चकोरों से पूछो वे क्या खा रहे हैं,
मिला जो न चन्दा, अनल ही चखी है।।।

पतंगे न परवाह तू कर रहा है।
कि जाँ दे रहा है, मिटा जा रहा है।।
दुतरफा मुहब्बत तो जग ने बताई,
मुहब्बत न ये एक तरफा भली है।।।
तो मैं क्या करूँ
सखे ! तुम न मानों तो मैं क्या करूँ।

प्यार में चश्म खोये समय खो दिया।
याद ने जब सताया हृदय रो दिया।।
कौन-सी बात पर रूठते तुम रहे।
जान मैं भी गया जान तुम भी गये।।
चितवनों चितवनों बात चलती रही,
जान कर तुम न जानों तो मैं क्या करूँ।।१।।

दिल दुखाने में तुमको मजा आ गया।
इस कसौटी में कसकर हमारा हिया।।
चूर्ण कर डाला ना जाने फिर भी कहाँ।
वह छिपा प्यार उसमें सिसकता रहा।।
यह परख पर परख औ तुरफ पर तुरफ,
तुम चलाकर न मानों तो मैं क्या करूँ।।२।।

दूर जाते हो तुम हम बुलाते रहे।
रूठ जाते हो तुम हम मनाते रहे।।
है तुम्हें क्या गरज पास आना पडे।
प्रीति से प्रीति भी जो न मिलकर रहे।।
यह घुटन में घुटन और चुभन में चुभन,
दर्द दे कर न जानों तो मैं क्या करूँ।।३।।

दूर जाने में भी इक बड़ा राज है।
न कोई हमारा भी हमराज है।।
तुम ने जाना नहीं मैं अकेला हुआ।
पास आये न तुम तो मैं विह्वल बना।।
इस सिहरने विहरने के अभिसार को,
जान कर तुम न जानों तो मैं क्या करूँ।।४।।

मैं
तुम बताते खार हूँ मैं।।

तुम कुसुम चितवन अगर हो
तो भ्रमर गुँजार हूँ मैं।
तुम अगर हो मंजु-वीणा,
तो उसी का तार हूँ मैं।।१।।

कमल-कोमल इन दृगों से,
छोड़ते हो तीर जब तुम।
कुसुम-धन्वा के धनुष की,
तो बना टंकार हूँ मैं।।२।।

वदन की उपमा नहीं है,
चाँद ही उसको बनाया।
सुधाकर की सुधा वाली,
दीप्ति की चिंगार हूँ मैं।।३।।

रतिपति के रथ-सदृश ही,
तव तनू यों भासता है।
हाँकने को रथ ‘‘हरि’’,
सारथि-संचार हूँ मैं।।४।।

चि० संदीप के प्रति
दीप जलते रहो तम घटाते रहो।
तेज अपना रवि सम बढ़ाते रहो।।
दम्भ की आंधियों सें न बुझना कभी
पुष्प हो कण्टकों सम न चुभना कभी।
दीप ज्वाला में भी स्नेह बढ़ता रहे।
स्नेह वितरण से स्नेहिल बनाते रहो।।
रोशनी दीप की कम न होवे कभी
दीपवर्ती यशोवर्ती होवे सभी
दीप से दीप जलते रहें सर्वदा
दीप माला मने विश्व में फिर सदा
झूठ की कालिमायें न आयें कभी
सत्य के मार्ग को जगमगाते रहो।
दीप संदीप तम को हटाते रहो।
शुभाशीष हरि का ये पाते रहो।।
आचार्य हरिसिंह त्यागी
एम०ए०, साहित्याचार्य
पूर्व प्रधानाचार्य गुरूकुल महाविद्यालय, ज्वालापुर (हरिद्वार)

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