होवे हर क्षण जन-जन का मुदित मन,
   देश भक्ति-भागीरथी बहे रग-रग में।
सदा धर्म संस्कृति व सभ्यता का हो विकास,
   सत्य का ‘‘संदीप’’ जले जगमग-जग में।।
चले जायें चाहे प्राण रहे किन्तु आन-बान,
   साहस भरा हो भगवान ! पग-पग में।
चन्द्रशेखर ‘आज़ाद’ जैसे वीर-पुंगव हों,
   क्रान्ति की प्रचण्ड-ज्वाल बसे दृग-दृग में।।१।।
प्रभो! नहीं अभिलाष स्वर्ग में करूँ निवास,
   भौतिक विलास यह मुझको न चाहिए।
आपका वरद-हस्त शीश पर रहे सदा,
   प्रभो! निज शरण में मुझको बिठाइए।।
राग-द्वेष-क्लेश-शेष रहे न भवेश! भव-
   भय-बन्ध से आजाद सबको कराइए।
प्रभो! चन्द्रशेखर शतक हो अबाध-पूर्ण,
   ऐसा कृपामृत आप मुझको पिलाइए।।२।।
अंगरेजों का था राज-कुटिल-कठोर-क्रूर,
   उनके उरों में मया नाम की न चीज थी।
खुलेआम खेलते थे आबरू से नारियों की,
   लोक-लाज खौफे-खुदा नाम की न चीज थी।।
दासता के पाश में थी भारत माँ बँधी हुई,
   दिल में किसी के दया नाम की न चीज थी।
दानवता मानवता की थी छाती पर चढ़ी,
   आँखों में किसी के हया नाम की न चीज थी।।३।।
मूर्ख, धूर्त, बेईमान मारते थे मौज, रोज,
   दाने-दाने को ईमानदार थे तरसते।
पड़ते थे कौड़े खूब असहाय जनता पै,
   नयनों से गोरों के अँगार थे बरसते।।
करने के बाद कड़ी मेहनत दिन भर,
   मजदूरों के अभागे बाल थे बिलखते।
घुट-घुटकर कष्ट सहते थे तब सब,
   भारत माता के प्यारे लाल थे सिसकते।।४।।
हो रहे थे अत्याचार, धुँआधार धरा पर,
   देख जिन्हें धैर्य धर सकना कठिन था।
अंधी आँधी ऐसी चल रही थी विकट अरे!
   जिसमें दो डग भर सकना कठिन था।।
गगन से अगन के गोले थे बरस रहे,
   जिनसे बचाव कर सकना कठिन था।
चहुँओर नदियाँ थी बह रही शोणित की,
   धरती का भार हर सकना कठिन था।।५।।
भारतीय सभ्यता का पश्चिम में डूब गया-
   भानु, घिरा चहुँओर, घोर अँधियार था।
विकराल-काली कालरात्रि से थे सब त्रस्त,
   जनता में मचा ठौर-ठौर हाहाकार था।।
रैन में भी कभी नहीं मिलता था चैन हन्त !
   उठता तूफान पुरजोर बार-बार था।
हम भारतीयों पर जो कुछ था मालोजर,
   उस पर होता गोरे चोर का प्रहार था।।६।।
पैरों में पड़ी थी दासता की मजबूत बेडी,
   फन्दा फाँसी का हमारे सिर पै था लटका।
पड़ती निरन्तर थी हन्टरों से मार बड़ी,
   बार-बार लगता था बिजली-सा झटका।।
अरे! भयभीत भारतीयों को खटकता था,
   सदैव किसी न किसी झंझट का खटका।।
दुर्भाग्य की थी घनघोर घटा घहराई,
   भारत का भाग्य-भानु उसमें था भटका।।७।।
जाल में थी फँसी हुई, मछली-सी तड़फती,
   हाय! हाय ! की पुकार पड़ती सुनायी थी।
पत्थर भी पिंघल गये थे किन्तु दानवों के,
   हृदय में तनिक भी नहीं दया आयी थी।।
घाव पर घाव नित करते थे दुष्ट जन,
   रग-रग में उनके दगा ही समायी थी।
सह-सह सैकड़ो सितम खूनी दरिन्दो के,
   बेचारी भारत-माता खून में नहायी थी।।८।।
एक क्रान्ति-यज्ञ रण-बीच था आरम्भ हुआ,
   वीरों द्वारा सन अट्ठारा सौ सत्तावन में।
गोरे चाहते थे करना तुरन्त-अंत, क्योंकि -
   मंत्र आजादी के गूँजे थे इस हवन में।।
क्रान्ति के पुजारी चन्द्रशेखर आजाद ने, ये,
   यज्ञानल धधकाया अपने जीवन में।
वीर क्रान्तिकारी हुए इसमें बहुत-हुत,
   फैली भीनी-भीनी थी सुगन्ध त्रिभुवन में।।९।।
पोषण के नाम पर करता जो शोषण औ,
   भाई-भाई में कराता नित ही विवाद था।
धर्म-ग्लानि देख लगता था भगवान को भी,
   गीता में दिया वचन नहीं रहा याद था।।
भोली-भाली भारत-माता पै अत्याचार देख,
   मन में वीरों को होता बड़ा ही विषाद था।
क्रान्ति का ‘‘संदीप’’ लेके गुलामी का अंधकार,
   मेटने को आया ‘‘चन्द्रशेखर आजाद’’ था।।१०।।
एक धनहीन विप्रवर सीताराम जी -
   तिवारी वास करते थे ‘‘भावरा’’ देहात में।
धर्मपरायणा पत्नी ‘‘जगरानी देवी’’ जी थीं,
   रखतीं बहुत ही विश्वास सत्य बात में।।
तेईस जुलाई सन, उन्नीस सौ छह में था,
   जनमा आजाद, भरी खुशी गात-गात में।
खिल उठे हृदयारविन्द तब सबके ही,
   खिलते कमल-दल जैसे कि प्रभात में।।११।।
साथ-साथ हर्ष के ही देखकर बालक को,
   माता और पिता को बहुत रंजोगम था।
क्योंकि था ये नवजात शिशु अति कमजोर,
   साधारण बच्चों से वजन में भी कम था।।
जनम से पूर्व इस शिशु के तिवारी जी, की -
   सन्तति को निगल गया वो क्रूर यम था।
करवाना चाहते माँ-बाप थे इलाज, किन्तु-
   दीन थे बेचारे ‘दीप’ इतना न दम था।।१२।।
प्यारा-प्यारा गोल-गोल, मुख चन्द्र सदृश था
   अतिकृश होने पै भी सुन्दर था लगता।
उसके नयन थे विशाल, मृग-दृग-सम,
   मोहक, निराले, सदा मोद था बरसता।।
कोमल-कमल-नाल-सम नन्हें-नन्ह हाथ,
   धूल-धूसरित-गात और भी था फबता।
मिश्रीघोली मीठी बोली लगती थी अति प्यारी,
   देख उस बालक को मन था हरषता।।१३।।
तनु-तन बाल वह, धीरे-धीरे चन्द्रमा की-
   सुन्दर-कलाओं के समान लगा बढ़ने।
स्वस्थ और हृष्ट-पुष्ट हुआ प्रभु-कृपा से था,
   तब सिंह-शावक सा वह लगा लगने।।
नटखट-हठी-साहसी था नट-नागर-सा,
   वत्स-सा उछल-कूद वह लगा करने।
लख-लख अपने अनोखे लाल शेखर को,
   पितु-मात-हृदय में प्रेम लगा जगने।।१४।।
मामूली-सी नौकरी में अंगरेजी पढ़ा पाना,
   सीताराम पण्डित के था ही नहीं बसका।
संस्कृत के अध्ययन-हेतु चन्द्रशेखर को,
   उन्होने दिखाया पथ सीधे बनारस का।।
पहली ही बार वह गया दूर देश, अतः -
   आता ध्यान घर का, न लगा मन उसका।
चाचाजी के पास ‘‘अलीराजपुर’’ भाग आया,
   उसको तो लगा बनारस बिना रस का।।१५।।
चंचल-चतुर चन्द्रशेखर को ‘‘अलीराज- 
   पुर’’ रियासत में भीलों का संग भा गया।
उनके ही साथ-साथ रहकर के धनुष-
   बाण अतिशीघ्र उसको चलाना आ गया।।
उसका निशाना था अचूक चूकता ना कभी-
   छूटा तीर कमां से ना खाली उसका गया।
दिशि-दिशि उसकी प्रशंसा होने लगी और-
   सब पर उसका प्रभाव पूरा छा गया।।१६।।
किन्तु चाचाजी ने सोचा, शेखर अगर इन,
   भीलों बीच रहेगा तो, भील ही कहायेगा।
मीन-मांस-मदिरा अवश्य भीलों की ही भाँति -
   होकर के ब्राह्मण भी, यह रोज खायेगा।। 
धर्म-कर्म-मर्म ये समझने के लिए कभी,
   करेगा प्रयास नहीं, पाप ही कमायेगा,
इसके लिए न ठीक भीलों का समाज यह,
   रहकर इनमें ये, भ्रष्ट ही हो जायेगा।।१७।।
बालक का भविष्य सुधर जाये, बिगड़े ना,
   बन जाये एक भला आदमी जीवन में।
सदा सुधा-वृष्टि करे बन घनश्याम यह,
   गन्ध ये सुमन-सी बिखेरे उपवन में।।
बने बलवान, ज्ञानवान, दयावान, धीर,
   महावीर इस-सा न कोई हो भुवन में।
इसी सदाशय से था शेखर को भेज दिया,
   काशीपुरी जो कि है प्रसिद्ध त्रिभुवन में।।१८।।
इस बार बड़े मनोयोग से बनारस में,
   लगा चन्द्रशेखर था देवभाषा पढ़ने।
अष्टाध्यायी, लघुकौमुदी तथा निरूक्त जैसे,
   शास्त्र पढ़ने से और ज्ञान लगा बढ़ने।।
पढ़ाई के साथ-साथ देशभक्ति का समुद्र-
   मानस में उसके यों लगा था उमड़ने।
देश की आजादी के लिए किशोर शेखर तो,
   भीतर ही भीतर गोरों से लगा लड़ने।।१९।।
जलियान वाले बाग काण्ड की खबर सुन,
   चन्द्रशेखर का खूब खून लगा खोलने।
देश की दशा को देख दिल हुआ धक-धक,
   और लगा धिक-धिक उसको ही बोलने।।
छली छद्मी अंगरेजों का हरेक अत्याचार,
   छोटे से शेखर का कलेजा लगा छोलने।
फलतः पढ़ाई छोड़-छेड़ दी लड़ाई और,
   आजादी के आन्दोलन में वो लगा डोलने।।२०।।
चहुँओर इक्कीस में, गाँधी जी के द्वारा आँधी
   प्रथित ‘‘असहयोग’’ की याँ चल रही थी।
इसके आँचल में थी, विकराल-ज्वाल वह,
   जो कि सत्तावन से सतत् जल रही थी।।
फैलती ही गई चाहा जितना बुझाना इसे,
   फूँकने फिरंगियों को ये मचल रही थी।
लपटों में लिपटी थी विटप-ब्रिटिश-सत्ता,
   देख-देख सरकार हाथ मल रही थी।।२१।।
देश की आजादी हेतु सजी-भारतीय-सेना,
   सहयोग दिया मजदूरों ने, किसानों ने।
कूद पड़े भूल स्कूल, कालेजों को छोड़ छात्र,
   आग यह और धधकायी परवानों ने।।
दिल-हिल गये दुष्ट-दानवों के तब जब -
   लगा दी छलांग रणभूमि में दिवानों ने।
मच गई हलचल, कुचल पदों से दिये,
   दुष्ट गोरे-दल, इस देश के जवानों ने।।२२।।
इस आँधी के बहाव में तुरन्त बह चली,
   भव्य-भगवान भूतनाथ की नगरिया।
इसके प्रचण्ड-वेग के समक्ष टिक पाने-
   में थी असमर्थ अरे! ब्रिटिश-बदरिया।।
साहसी सपूतों ने था ठान लिया अब यह,
   फाड़ेंगे, न ओढ़ेगें गुलामी की चदरिया।
सब जन होके तंग एक संग उठ गये,
   फोड़ने फिरंगियों की पाप की गगरिया।।२३।।
सारे देश की ही भाँति सड़कों पै उमड़े थे,
   बृहद जुलूस बनारस में किशोरों के।
जल रहीं थीं विदेशी वस्तुओं की होली गली-
   गली गूँज रहे थे विजय-घोष छोरों के।।
प्रतिशोध की धधक रही थी दिलों में ज्वाल-
   विकराल काल बाल बने थे ये गोरों के।
इनके मुखों से थी निकल रही ध्वनि यही,
   ‘‘नहीं हैं गुलाम हम इन गोरे चोरों’’ के।।२४।।
सह लिए बहुत सितम अब सहेगें ना,
   लेंगे आजादी हो प्राण चाहे मोल इसका।
गुलामी में जीने से है बेहतर मर जाना,
   चूम लेना फाँसी थाम लेना प्याला विषका।।
ललमुहों को थे ललकार रहे ‘‘लाल’’ यह,
   छलियों दो छोड़ देश, ना तो देगें सिसका।
होशियार हो सियार ! शेर जाग गया अब,
   लगेगा पता है हक हिन्द पर किसका।।२५।।
ऐसा चला चोला था पहन बसन्ती एक -
   टोला बालकों का, नेता शेखर था जिसका।
लेके हाथों में तिरंगे, जंगे आजादी के मैदां-
   बीच, कूद पड़े वीर, देख रिपु खिसका।।
गर्जना से गूँज उठा गगन, भूगोल डोल,
   गया औ दहल गया महल ब्रिटिश का।
चलता ही गया वो कुचलता फिरंगियों को,
   उसको न रोक पाया पहरा पुलिस का।।२६।।
गली-गली आजादी का अलख जगाते हुये,
   शेखर का आर्यवीर दल बढ़ रहा था।
वतन पै तन-मन-धन वार कर, बाँधे-
   सर से कफन प्रतिपल बढ़ रहा था।।
खतरों की खाइयों को फाँद सरफरोशों का-
   जय-जयकार कर बल बढ़ रहा था।
जलती विदेशी चीज, की यों दुकानों को देख,
   गोरों के दिलों में क्रोधानल बढ़ रहा था।।२७।।
तभी भूखे भेड़िये की भाँति भागा पुलिस का,
   एक अधिकारी उस दल को कुचलने।
कर दिया लाठी-चार्ज उन पर जालिम ने,
   खून की धाराएं लगी सिरों से निकलने।।
यह देख रह गया ‘‘चन्द्र’’ दंग अंग-अंग -
   काँप उठा, मारे क्रोध के लगा उबलने।
पास में ही पड़ा एक, छोटा-सा पत्थर देख,
   मन में तूफान लगा उसके उमड़ने।।२८।।
चुपके से उसने उठाया वह पत्थर औ,
   दाग दिया उस दुष्ट दारोगा के सिर में।
सही था निशाना सधा, लगते ही पत्थर के,
   बदला नजारा सारा वहाँ पलभर में।।
छूट गया लठ, फट गया सिर, सराबोर,
   खूँ में हो गया ले बैठ गया सिर कर में।
दीख गये दिन में ही तारे उस जालिम को,
   घूमने लगे भू-नभ उसकी नजर में।।२९।।
ज्यों ही देखा एक सिपाही ने चन्द्रशेखर को -
   फेंकते यों पत्थर, तो दौड़ा वो पकड़ने।
भीड़ में छिपा यों ‘‘चन्द्र’’ बादलों में जिस भाँति,
   छिप जाता चन्द्र, मूढ़ लगा हाथ मलने।।
साथ ले सिपाहियों को ‘‘चन्दन के टीके वाले-
   शेखर’’ की खोज वह लगा तब करने।
ढूँढ-ढूँढ हार गये जब सब तब उसे,
   पकड़ा था धर्मशाला से सिपाही-दल ने।।३०।।
डाल के हाथों में हथकड़ियाँ ले गये थाने,
   कर दिया बन्द ‘‘चन्द्र’’ शीघ्र हवालात में।
वहाँ थे अनेक सत्याग्रही स्वाभिमानी वीर,
   धीर, मिलती थी मार उन्हें बात-बात में।।
ओढ़ने-बिछाने को न वसन भी उसे दिया,
   जिससे कि ठिठुरे वो शिशिर की रात में।
पुलिस ने सोचा भयभीत होके शीत से ये,
   क्षमा माँग लेगा हो विनीत कल प्रात में।।३१।।
आधी रात पुलिस निरीक्षक ने सोचा यह,
   चलो देख आयें उस छोरे का क्या हाल है।
बेचारा! ठिठुर रहा होगा मारे ठण्ड के वो,
   क्योंकि धरा शिशिर ने रूप विकराल है।।
गया हवालात, देखा खिड़की से झाँककर,
   पेल रहा दण्ड वह भारत का लाल है।
रह गया दंग देख दृश्य वह कह उठा-
   बाँधे जो इसे, न बना ऐसा कोई जाल है।।३२।।
न्यायाधीश ‘‘खरेघाट’’ के समक्ष लाया गया,
   दूसरे दिवस उस वीर को पकड़ के।
पूछा ‘‘नाम’’ जज ने कड़कती आवाज में तो,
   बतलाया बालक ने ‘‘आजाद’’ अकड़ के।।
उसी लहजे में फिर पूछा - ‘‘बता बाप का तू -
   नाम ‘‘बोला वो’’ स्वाधीन’’ मुटिठयाँ जकड़ के।
फिर से सवाल किया - ‘‘बता तेरा घर कहाँ ?
   तो कहा कि ‘‘हम हैं निवासी जेलघर के’’।।३३।।
जज ये जबाब सुन भुन गया क्रोध में था,
   सजा पन्द्रह बेतों की थी सुना दी शेखर को।
सजा थी ये बड़ी-कड़ी, चमड़ी उधड़ जाती,
   लेकिन तनिक भी न डर था निडर को।।
कमल से कोमल वपु पै बेंत तड़ातड़ -
   पड़ने लगे, न उसने झुकाया सर को।
हर बेंत पर ‘‘गाँधी जी की जय’’ बोली ‘‘उफ’’ -
   तक न की, धन्य, धन्य उस वीरवर को।।३४।।
जेल से निकलते ही जनता ने मालाओं से -
   लाद दिया, कन्धों पै उठा लिया ललन को।
ज्ञानवापी में उसके स्वागत में सभा सजी,
   सारे काशीवासी टूट पड़े दरसन को।।
जय ‘‘चन्द्रशेखर’’ की, ‘‘भारत माता की जय’’,
   ‘‘गाँधी जी की जय’’ ने गुंजा दिया गगन को।
मचल रहा था जन-गण-मन-क्रान्ति-दूत,
   शेखर के पावन वचन के श्रवण को।।३५।।
तालियों की गड़गड़ाहट संग पुष्पवृष्टि -
   हुई, जब चढ़ा ‘‘चन्द्र’’ मंच पै भाषण को।
श्रद्धाँजलि शहीदों को देके श्रोताओं से बोला -
   ‘‘राजी से ये गोरे नहीं छोड़ेंगे वतन को’’।।
भाषा नहीं प्यार की ये कुटिल समझते हैं,
   अतः देशवासियों उठाओ ‘‘गोली-गन’’ को।
काटेंगे अवश्य, ये विषैले-विषधर नाग,
   पूर्व ही सँभल के कुचल डालो फन को।।३६।।
गोलियों का सामना करेंगे, हैं ‘‘आजाद’’ हम
   गोरों की गुलामी से छुड़ायेंगे वतन को।
देश की आजादी हित मिटना स्वीकार हमें,
   जियेंगे गुलामी में न हम इक क्षण को।।
एक बार दुष्ट डाल चुके हथकड़ी किन्तु,
   अब कभी बाँध न पायेंगे इस तन को।
अभी तक तो हमारा शान्तिरूप ही है देखा,
   अब दिखलायेंगे स्वक्रान्तिरूप इनको।।३७।।
फिर अन्य गणमान्य लोगों के भाषण हुए,
   सबने सराहा मुक्तकण्ठ से ‘‘आजाद’’ को।
श्री शिवप्रसाद गुप्त व सम्पूर्णानन्द जैसी,
   हस्तियों ने उस पै लुटाया प्रेमाह्लाद को।।
हो गया विख्यात साथ भाषण के ‘‘मर्यादा’’ में,
   छपी तसवीर वीर बालक की बाद को।
पा के समाचार दौड़े पिताजी तुरन्त काशी,
   बोले बेटा! ‘‘घर चल छोड़ दे जेहाद को’’।।३८।।
तात की ये बात सुन सुत ने जबाब दिया,
   ‘‘गोरों को मैं  स्वामी कभी नहीं कह सकता।’’
आप कहते हैं - ‘‘घर रहूँ सुख से’’ परन्तु-
   ‘‘चैन से गुलामी में मैं नहीं रह सकता।।’’
‘‘धन-धान्य-धरा-धाम, देह तज सकता हूँ’’
   ‘‘राष्ट्र-अपमान किन्तु नहीं सह सकता।’’
देके शुभ आशिष पिताजी घर जाओ, अब -
   हिन्द को ये दुष्ट गोरा नहीं दह सकता।।३९।।
लौट गये पिता किन्तु कूद पड़ा आन्दोलन -
   में, सपूत वह पुनः नये जोरों शोरों से।
किन्तु पड़ गया मन्द-चन्द दिनों बाद ज्वार,
   उठा था असहयोग का जो बड़े जोरों से।।
गाँधी जी का चौरी-चौरा-कांड से नाराज होना,
   व्यर्थ ही था गोरे कभी जाते ना निहोरों से।
राष्ट्र मुक्ति हेतु सेतु क्रान्ति के रचाये ‘‘चन्द्र’’
   लेके क्रान्ति-केतु बढ़ा लड़ने को गोरों से।।४०।।
ख्याति सुन ‘‘हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ’’ का था,
   ‘‘चन्द्र’’ को सदस्य क्रान्तिवीरों ने बना दिया।
संघ को हृदय सौंप दिया सहा हर दुख,
   उन्होंने स्वदेश पै स्वयं को मिटा दिया।।
विकराल-क्रान्ति-ज्वाल जला, जवां शेरे दिल-
   दल में शामिल किये, दल को बढ़ा दिया।
अन्नधनाभाव में वे रहे चने चबाके या -
   फाके से ही रहे किन्तु गोरों को रूला दिया।।४१।।
‘गाजीपुर’ में महन्त एक जराजीर्ण-काय-
   है असाध्य रोग ग्रस्त-त्रस्त-अस्तप्राय है।
उसके समीप है असीम धन-मठ सब,
   किन्तु नहीं कोई योग्य शिष्य या सहाय है।।
धन मिल जायेगा अपार यदि हममें से,
   शिष्य बन जाये कोई, सरल उपाय है।
साधु बना भेज दिया दल ने शेखर को था,
   सबको सुहायी ‘‘रामकृष्ण’’ की ये राय है।।४२।।
शेखर ने लिखा पत्र ‘‘मठ से यों साथियों को,
   हम सबका गलत अनुमान हो गया।
महन्त के पास मास दो गुजर गये मुझे,
   गुजरा न यह फिर से जवान हो गया।।
रोज खूब करता है कसरत, कई-कई-
   किलो दूध पीता खाके मेवा साँड हो गया।
मुझसे यहाँ पै अब रहा नहीं जाता, कर -
   कर सेवा इसकी मैं परेशान हो गया।।४३।।
मच गई खलबली दल में पाते ही पत्र,
   ‘‘गोविन्द’’, ‘‘मन्मथ गुप्त’’ गये गुप्त वेश में।
देख दुर्ग-सम मठ रह गये दंग, खूब -
   समझाया - ‘‘भाई चन्द्र रहो इसी भेष में।।
इस धन के समक्ष सब धनपति तुच्छ,
   कुछ धैर्य धरो छोड़ो इसको न तैश में।
इस धन से हमारे होंगे मनसूबे पूरे,
   इसी भाँति धारे रहो ध्यान अखिलेश में।।४४।।
हो गया विवश बस चन्द्र का न चल पाया
   काट हर बात दोनों लौट गये दल में।
बुरी भाँति फँस गया शेखर बेचारा ऐसे,
   जैसे फँस जाता कोई गज दल-दल में।।
घुटने लगा वहाँ पै हर दम दम, उठी
   हठ, मठ तज कूद पड़ा रण स्थल में।
धन था न पास, आश छूट गई अब सब,
   क्रान्ति-दल छिप गया गम के बादल में।।४५।।
जरमनी हथियार गुप्त जलयान से थे,
   आ गये परन्तु दल पै न एक पाई थी।
गन-गोली-बम और बारूद मिल सकते थे,
   कैसे ? पैसे बिना बड़ी भारी कठिनाई थी।।
ट्रेन से जाता हुआ राजस्व लूट लिया जाय,
   राय यह ‘‘बिस्मिल’’ की सबको सुहाई थी।
किया था कमाल-माल लूट दस युवकों ने,
   खुलेआम खिल्ली गोरी सत्ता की उड़ाई थी।।४६।।
नौ अगस्त सन उन्नीस सौ पच्चीस की शाम,
   को ‘‘काकोरी’’ के निकट घटी एक घटना।
हवा संग बतियाती गाती उड़ी जा रही थी -
   ट्रेन, यात्री सभी देख रहे थे सु-सपना।।
खिंचने से चैन, चैन उड़ गया सबका ही,
   बंद हुआ पटरी पै गाड़ी का रपटना।
कैबिन से गार्ड दौड़ा देखने तुरन्त, हुए -
   ‘‘धाँय-धाँय’’ फायर तो, पड़ा उसे लुकना।।४७।।
गार्ड पै पिस्तौल तानते हुए शचीन्द्र बोले,
   हरी बत्ती देता है क्यों, क्या तुझे है मरना।
हाथ जोड गार्ड गिड़गिड़ाया कि - ‘‘क्षमा करो’’
   नाथ मेरे बच्चों को अनाथ मत करना।
बख्शी बोले - ‘‘एकदम लेट जा जमीन पर-
   औंध मुँह, मार डाला जायेगा तू वरना।
झटपट धरा पै वो लेट गया उलटा हो,
   नाम सुन मौत का है स्वाभाविक डरना।।४८।।
अंधकार किया झटपट चटकाये बल्ब,
   जिससे किसी को कोई पहिचान पाये ना।
पलक झपकते ही हथियार बन्द, कब -
   हो गये तैनात लोग यह जान पाये ना।।
गाड़ी में मेजर एक गोरे फौजियों के साथ,
   थे पै वे ‘‘चूँ’’ करने की भी तो ठान पाये ना।
गोलियों की दनादन सुन चित्रलिखे-से वे,
   क्रान्तिकारियों को कर परेशान पाये ना।।४९।। 
रेलवे के खजाने का ट्रंक जमीं  पर खींच,
   खोलना चाहा पै चाबी उनके न पास थी।
माल डाल उस से निकालना असम्भव था,
   विकट सुदृढ़ ऐसी बनावट खास थी।।
खुले बिना बक्से से निकालें माल किस भाँति,
   यही सोच युवकों की मँडली उदास थी।
घन-छेनी से प्रहार किये कई वीरों ने पै,
   छिद्रमात्र हुआ, यह देख दबी आश थी।।५०।। 
पकड़ो पिस्तौल करूँ चौड़ा मैं सुराख यह,
   कह-अशफाक उल्ला घन लेके आ पिले।
पुरजोर चोट से तिजोरी हुई खील-खील,
   रुपयों से भरे थैले उनको वहाँ मिले।।
लगे चटपट-चादरों में माल बाँधने वो,
   खुशी-खुशी सबके ही मन थे खिले-खिले।
किन्तु लखनऊ की तरफ से जो आती देखी,
   रेलगाड़ी तो सभी के दृढ़ दिल भी हिले।।५१।।
सबने ही बन्दूकें, छुपा लीं इस भय से कि -
   कही देख इन्हें गाड़ी यहीं रूक जाये ना।
हथियार बन्द गोरे हुए इसमें भी यदि,
   तब तो चलाए बिना गोली बचा जाये ना।।
कोई न कोई तो ढेर हो ही जायेगा जरूर
   किये औ कराये पर पानी फिर जाये ना।
बिना गड़बड़ी गाड़ी गुजर गई वो जब
   सब बोले अब यहाँ और टिका जाये ना।।५२।।
चालाकी से लखनऊ पहुँचे ले माल सब,
   फिर वे वहाँ से कहाँ गये नहीं ज्ञात ये।
जग-जंगल में ज्वाल के समान काकोरी की,
   ट्रेन-डकैती की फैली बात रातोंरात ये।।
सुन सनसनी खेज-खबर ये अंगरेज,
   चीखे-किन्होंने की खौफनाक खुराफात ये।
फाँसी पै चढ़ा दो फाँसे में जो भी फासिस्ट आयें,
   ब्रिटिश सत्ता के सीने पर मारी लात ये।।५३।।
इस धर पकड़ में पकड़े पचासों ही बे-
   गुनाह गुनहगार गोरी सरकार ने।
हत्या-राजद्रोह-लूटपाट के चलाये शीघ्र,
   सब पै मुकदमें छिछोरी सरकार ने।।
पाँच सौ रुपये रोज ‘‘जगत नारायण’’ को -
   दे, कराई पैरवी निगोड़ी सरकार ने। 
सभी गुप्त बातें मुखबिरों ने बता दीं, लोग -
            तोड़ लिए कई, चोरी-चोरी सरकार ने।।५४।।
गोविन्द वल्लभ-चन्द्र भानु औ मोहन जैसे,
   क्रान्तिकारियों के थे वकील कई जोर के।
‘‘पन्त-दल’’ ने अकाट्य तीक्ष्ण - तर्क तीरों-द्वारा,
   गोरों के वकील रख दिये झकझोर के।।
वर्ष बीत गया डेढ़, दस लाख रुपया औ
   हुआ सरकारी खर्च चलते ही दौर के।
किन्तु फाँसी चार को औ कड़ी कैद बीसियों को,
   दे दी, जज ने न सुने तर्क किसी ओर के।।५५।।
क्रान्तिकारी चुन-चुन देश-द्रोहियों ने दिये -
   पकड़वा पै आजाद अभी भी फरार थे।
उन पै हुआ ईनाम भारी, भित्ति-भित्ति-चित्र,
   चिपकाये, लालच में लोग बेशुमार थे।।
पल-पल बदल-बदल वेश घूमते थे,
   शेखर निडर खाए बैठे गोरे खार थे।
पारे के समान झट जाते हाथ से खिसक,
   चकमा पुलिस को वे देते बार-बार थे।।५६।।
कुछ काल काट काशी जी से पहुँचे वे झाँसी,
   झौंककर धूल खूब आँखों में पुलिस की।
घर रहे देशभक्त चित्रकार शिक्षक श्री -
   रूद्रनारायण के पै चिन्ता थी दबिश की।।
अतः ओरछा के घोर वन में वे रहे बन -
   साधु ‘‘रूद्र जी’’ ने जब सलाह दी इसकी।
मोटर चलाना व सुधारना वे सहसा ही,
   सीखने लगे, जो पड़ी नजर ब्रिटिश की।।५७।।
करना व्यायाम प्रातः मोटर चलाना नित,
   साधना निशाना खूब जाकर के वन में।
चप्पे-चप्पे पर बैठी पुलिस को चकमा दे,
   चुपचाप जाना कभी-कभी संगठन में।।
सिखलाना गन-गोली गोरों के विरूद्ध तीव्र,
   क्रान्ति-ज्वाल धधकाना युवकों के मन में।
इस वक्त यही था समक्ष-लक्ष्य-लक्ष-लक्ष,
   बहु विघ्न-बाधा आते-जाते थे जीवन में।।५८।।
चाहते थे चतुर चितेरे ‘‘रूद्र’’ एक चित्र,
   खींचना चहेते चन्द्रशेखर आजाद का।
किन्तु थे हताश, मित्र को भी चित्र के लिए था,
   इनकार में, सदैव उत्तर आजाद का।।
एक दिन नहाने के बाद तहमद में थे,
   मान गया हृदय था प्रवर आजाद का।
‘‘मूँछ ऐंठ लूँ मैं’’ कहते ही था उठाया हाथ,
   चित्र मित्र ने ले लिया सत्वर आजाद का।।५९।।
अलि-कुल-से थे घने-घुँघराले काले-काले-
   बाल, भव्य भाल पर तेज था दमकता।
घड़ी बँधा बाँया हाथ ऐंठ रहा था कटार -
   जैसी पैनी मूँछे मुख-चन्द्र था चमकता।।
कारतूसों की थी कसी कमर पै पेटी, हाथ-
   दाँया माऊजर पर तभी आ धमकता।
कन्धे पै जनेऊ था सुशोभित शरीर-स्वर्ण-
   जैसा शान से विशाल-वक्ष था झमकता।।६०।।
रियासत खनियाधाना के राजा कालकाजी
   सिंह देव क्रान्तिकारियों के बड़े भक्त थे।
‘‘झाँसी में ही हैं आजाद’’ सुन ये प्रसन्न हुए,
   भाव-भेंट के लिए उन्होंने किये व्यक्त थे।।
मोटर-मैकेनिक के गुप्त वेश में आजाद,
   गये राजा साहब के यहाँ जिस वक्त थे।
हो गई प्रगाढ़ प्रीत, मीत बन गये दोनों,
   क्रान्ति-दल करना वे चाहते सशक्त थे।।६१।।
खाना-पीना खेलना शिकार आदि सब कुछ,
   शेखर के साथ ही थे महाराज करते।
यह देख चापलूस सोचने लगे - कि’’ राजा
   अब न तनिक ध्यान हैं हमारा धरते।।
दरबारी चमचे इसी से लगे चिढ़ने पै
   बेबस थे बस कुढ़-कुढ़ ही थे मरते।
शेखर ये भाँपते ही झाँसी से बम्बई गये,
   बन कुली माल थे जहाजों पै वे भरते।।६२।।
सत्तु, चने खाते कभी-कभी भूखे ही सो जाते,
   नील-नभ-चदरिया ओढ़ फुटपाथ पै,
पुलिसिया कुत्ते पीछे पड़े धोके हाथ हर
   हथकण्डे चले ‘‘चन्द्र’’ आये नहीं हाथ पै।।
बम्बई में मिले बोले वीर सावरकर कि -
   चन्द्र धो दो दाग ये जो लगा माँ के माथ पै।
कोटि-कोटि-कष्ट-कण्टकों से घिरा क्रान्ति-पथ,
   परमेश-अनुकम्पा आप के है साथ पै।।६३।।
राष्ट्र-प्रेमी ‘‘श्री गणेश शंकर विद्यार्थी जी’’ का,
   था ‘‘प्रताप’’ पत्र कानपुर से निकलता।
राष्ट्र-भाव-भरी रचनाएँ छपती थीं, जिन्हें
   पढ़, जवानों में क्रान्ति-ज्वार था मचलता।।
हो गया प्रगाढ़-परिचय ‘‘चन्द्र’’ से थे खुश,
   जान-जवाँ-दिल ‘‘दीप’’ देश पर जलता।
देशभक्त ‘भगत’ से हुई भेंट यहीं पर,
   ‘चन्द्र’-हृदय खुशी से बाँसो था उछलता।।६४।।
पाते ही भगत सिंह जैसा होनहार साथी,
   शेखर का हौसला था द्विगुणित हो गया।
‘‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’’ के,
   नाम से नवीन-दल था गठित हो गया।।
था अखिल भारतीय स्तर का ये क्रान्ति दल,
   इसमें हरेक प्रान्त सम्मिलित हो गया।
सभी क्रान्तिकारियों के अनुरोध पर ‘चन्द्र’
   ‘‘कमाण्डर इन चीफ’’ चयनित हो गया।।६५।।
बड़े बेटे ‘‘सुखदेव’’ को निमोनिया निगल -
   गया, गया उठ सर से पति का साया था।
बोझ से बुढ़ापे के न आपा था सँभल पाता,
   माता जगरानी ने पै दुखों को उठाया था।।
‘‘भावरा’’ से आ बसी थीं कानपुर में ही हाय ! 
   असहाय! बेटे के वियोग ने सताया था।
काकोरी-काण्ड के बाद से ही थे फरार ‘‘चन्द्र’’
  माँ के दर्श का भी नहीं मौका मिल पाया था।।६६।।।
खुशी से थे खिले-खिले दिल दो बरस बाद,
   मिले थे माँ-बेटे अहो! सुखद समय था।
‘‘नयनों के तारे ! प्यारे ! हूँ मैं तेरे ही सहारे,
   कहा माँ ने गदगद हो उठा हृदय था।।
भारत माता के दुःख दूर करने को ही तो,
   तुमने पिलाया माता मुझे निज पय था।
ऋण से उऋण तेरे हो न सकूँ मात, दे तू
   वर, देशहित मिटूँ माँगता तनय था।।६७।।
लिया शुभाशीष शीश माँ के चरणों में धर,
   शेखर खदेड़ने फिरंगियों को निकले।
था ‘‘प्रताप’’ ‘‘श्री गणेशशंकर’’ का निःसंकोच
   चन्द्र घूमते थे गोरे जो भी अड़े कुचले।।
कुन्दन-भगत-शिव-राजगुरू-विजयादि,
   वीरों को ले संग थे जुगाड़ सोचे अगले।
राह में लो रोक गाड़ी काकोरी के कैदियों की,
  पिस्तौलों से कोर्ट को वो जेल से ज्यों ही चले।।६८।।
कोशिश की काकोरी के वीरों को भगाने की ये,
   पर हर पहर था पहरा बड़ा कड़ा।
चौकस थी पुलिस न लग सका मौका हाय !
   खाली हाथ क्रांतिकारियों को लौटना पड़ा।।
रोशन, लाहिड़ी, अशफाकउल्ला, बिस्मिल को,
   गोरी सरकार ने था फाँसी पै दिया चढ़ा।
इनके लहू की लाल धार लख लाखों लाल,
   लाल हो उठे औ खेल उन्होंने किया खड़ा।।६९।।
गोरे अधिकारियों का साइमन कमीशन
   सन अट्ठाइस में आ धमका दमन को।
धूर्त-छलियों का झुण्ड अमन का नाम लेके,
   करना ये चाहता था चौपट चमन को।।
चाहते हैं आगम न साइमन लौट जाओ,
   हम सब गये जाग लगी आग मन को।
हर शहर ये गूँजे घोष रोष में आ गये,
   सब भारतीय, सहा नहीं दुःशमन को।।७०।।
पहुँचा ज्यों ही लाहौर कमीशन ‘‘साइमन-
   शीघ्र लौट जाओ’’ वहीं आये जिस ठौर से।
नारे ये लगाते चले लाखों लोग लाजपत-
   जी के नेतृत्व में दशों दिशा गूँजी शोर से।।
लाठियों से निहत्थे लोगों को पीटा पुलिस ने,
   चाहती थी नहीं हो विरोध किसी ओर से।
स्कॉट ने ‘‘पंजाब केसरी’’ पै लठ तड़ातड़-
   जड़े, जान ‘‘जान जुलूस की’’ बड़े जोर से।।७१।।
हुये थे लहू से लथपथ लाला लाजपत-
   राय हाय! जनता को कुचला झपटके।
गरजा सभा में ‘‘मोरी गेट’’ के मैदान मध्य,
   घायल ‘शेरे-पंजाब’ पल हैं संकट के।।
बनेंगे ब्रिटिश शासन के कफन की कील,
   मुझ पर लठ शठ ने हैं जो ये पटके।
सतरह नवम्बर सन अट्ठाईस को वे -
   चल बसे, जालिमों के झेले बड़े झटके।।७२।।
सारे देश दौड़ गई शोक की लहर, कथा-
   गोरों के कहर की थी शहर-शहर में।
भगत जुलूस में थे रहे सक्रिय, छवि थी-
   घूमती शहीद लाला जी की ही नजर में।।
मुल्क की ये बेइज्जती नहीं सह सके, जल
   उठी तीव्र ज्वाल प्रतिशोध की शेखर में।
खून से ही खून का था बदला लिया, सांडर्स-
   मारा गया, दुष्ट ‘‘सर स्कॉट’’ के चक्कर में।।७३।।
‘‘जय’’ ने किया बहाना थाने के समक्ष, ठीक-
  करने का साईकिल, लोगों को दिखाने को।
शाम के बजे थे चार निकला ज्यों ही बाहर
  एक गोरा अफसर घर पर जाने को।।
करके मोटर साईकिल चालू चला, किया-
   ‘जय’ ने संकेत गुप्त गोलियाँ चलाने को।
राजगुरु, भगत ने कर दी बौछार, मार-
   उसे, छिपने को दोनों भागे आशियाने को।।७४।। 
भागते भगत, राजगुरु को दबोचने को,
   दौड़े पुलिस के कुत्ते द्वार पै जो खड़े थे।
मारी टाँग पे जो गोली भगत ने ‘‘फार्न’’ के तो,
   रुक गये सब भीरू यूँ ही पीछे पड़े थे।।
चमचा ‘‘चनन’’ चौकड़ी था हेकड़ी से भर-
   रहा किन्तु चुपचाप ‘‘चन्द्र’’ छिपे खड़े थे।
‘‘चनन’’ को मजा मॉऊजर से चखाया, और-
   उनको भी जो भी मरने को आगे अड़े थे।।७५।।
‘साण्डर्स’ की हत्या का संदेश देश-देश फैला,
   शीघ्र भारतीय सुन हुए मगरूर थे।
पुलिस के छूटे थे पसीने-सीने पै सत्ता के,
   गिरी गाज गोरों के गुरूर हुए चूर थे।।
करके था रख दिया नाक में वीरों ने दम,
   शासन के लिए शूर वे हुए नासूर थे।
सरदी की रात थी पै हुआ था लाहौर गर्म,
   नाकेबन्दी में भी बन्दे वे हुए काफूर थे।।७६।।
कूर्च-केश कटवाके गोरे बाबू बन गये,
   वे असरदार बाजी पै लगाये प्राण थे।
सीने से लगे शचीन्द्र उनके थे राजगुरु,
   बने चाकर चतुर करते प्रयाण थे।।
दुर्गाभाभी बिलायती पत्नी बन गई, धन्य-
   धन्य! धैर्य-धुरी देश के ही ध्रुव-ध्यान थे
लाँघे थे दुर्गम दुर्ग दुर्गादेवी की दया से,
   भगत ने भगवती-चरण महान थे।।७७।।
थे आजाद पंछी फुर्र फौरन ही हो गये वे,
   नहीं फँस सके सब काट डाले जाल थे।
भगे वे भगवे-भेष में भ्रमित कर दिया,
   राम-नाम रटते वे चले मस्त चाल थे।।
जहाँ-तहाँ बम बनाने के कारखाने खोले,
   दुष्टों को दिखाना चन्द्र चाहते कमाल थे।
कलकत्ता में सीखी थी बम बनाने की विधि-
   भगत ने, गोरों पर भारी हुए लाल थे।।७८।। 
औद्योगिक विवाद औ जनता-सुरक्षा-बिल
              गोरों ने बनाये, चला नई कूट चाल को।
इन बिलों द्वारा प्रतिबन्धित था किया, हर
   जन-आन्दोलन, मजदूरी हड़ताल को।।
देख ‘‘बिल’’ बिल बिला उठा देश, बलबले
   दिलों में वीरों के उठ बदलने हाल को।
‘‘दत्त’’ व ‘‘भगतसिंह’’ ने था बम-धमाकों से,
   देहली में दहलाया ‘‘असेम्बली-हाल’’ को।।७९।।
उन्नीस सौ उंतीस की आठ अप्रैल को थे,
   अरे! सुने बहरों ने भी धमाके बम के।
छा गया धुआँ ही धुआँ, ‘‘क्रांतिकारी-पम्पलेट’’,
   बरसे गगन से थे वहाँ थम-थम के।।
क्रांति होवे चिरंजीवी ‘‘इंकलाब जिंदाबाद’’,
   ‘‘गोरों का हो नाश’’ गूँजे नारे यह जमके।
होश औ हवास हुए गुम, गश खाके गिरे,
   ‘‘मेम्बर-असेम्बली’’ के मारे भय, गम के।।८०।।
इधर-उधर धर सिर पर पैर सब-
   नर भाग खड़े हुए चीखते-चिंघाड़ते।
चाहते अगर भाग सकते थे क्रान्तिवीर,
   बड़े ही मजे से, भीरू गोरे क्या बिगाड़ते।।
आ गई पुलिस झट, उनको पकड़ने को,
   पर शेरे दिल वहीं रहे वे दहाड़ते।
हुए नहीं परेशान-शान से खड़े थे सीना-
   ताने मस्ताने गोरों को ही थे लताड़ते।।८१।।
हथकड़ी हाथों में न डाल सकने की हुई-
   हिम्मत, सिपाहियों की, सब डर रहे थे।
हो गये हैरान खुद, होने को हवाले जब,
   पुलिस की ओर वे कदम धर रहे थे।।
पुलिस हिरासत में जाके भी ‘भगत’, ‘दत्त’,
   ‘‘इंकलाब जिंदाबाद’’ घोष कर रहे थे।
कायम मुकदमा हो गया सजा फाँसी की थी
   निश्चित, पै गोरे न्याय-ढोंग भर रहे थे।।८२।।
 सांडर्स की हत्या का भी खोला भेद सब कुछ
   कुछ दुष्ट देशद्रोही ज्यादा ही मक्कार थे।
किये जयगोपाल कैलाशपति व फणीन्द्र,
   जैसे मुखबिरों ने गोरे खबरदार थे।।
पकड़-पकड़कर कर दिये बन्द वीर,
   राजगुरु, सुखदेव, विजय कुमार थे।
उदासी की दलदल में था धँसा दल, हुए-
   शिववर्मा जैसे वीरों को भी कारागार थे।।८३।।
अखरा आजाद को अभाव भारी भगत का,
   दल के वह असरदार सरदार थे।
भुगते भगत सजा फाँसी की असम्भव है,
   किया निश्चय ‘‘चन्द्र’’ बड़े ही खुद्दार थे।।
यशपाल भाई भगवती चरण, सुशीला-
   दीदी, दुर्गाभाभी सभी के यही विचार थे।
भगत को जेल से भगाने की जुगत जान-
   दाँव पै लगा के करी सभी होशियार थे।।८४।। 
धावा बम-गोलो, पिस्तौलों द्वारा पुलिस पै,
   बोलके छुड़ाया जाये ‘‘दत्त’’ सरदार को।
लाहौर सेंट्रल जेल से बाहर ज्यों ही आयें,
   दिखलाया जाये जरा जोर सरकार को।।
सभी अभियुक्त मुक्त कराने के लिए चुना
   एक जून उन्नीस सौ तीस रविवार को।
उठती थीं मानस में तरल तरंगे जंगे-
   आजादी के यौद्धा थे तैयार तकरार को।।८५।।
हाय! योजना पै पानी फेर गई वो अशुभ-
   शाम अट्ठाईस मई की दुखद बड़ी थी।
रावी तट के निकट फट गया हाथ में ही,
   बम, जाँच के दौरान विपद की घड़ी थी।।
हाथ की तो बात ही क्या जल गया, गात सारा,
   मांस-लोथड़ों से रक्त-धार फूट पड़ी थी।
सारी आँत पेट से बाहर हो चुकी थीं, चोट
             विस्फोट की थी मौत सामने ही खड़ी थी।।८६।।
 वेदना असह्य दिल में दबाते हुए बोले,
   भगवती चरण यूँ सुखदेव राज से।
चुक गई बाती सब जल गया तेल ‘दीप’
            जीवन का खेल खत्म हुआ यह आज से।।
जाकर खबर कर दो ये दल में कि मुझे,
   बम ले बैठा न बच सका यमराज से।
मेरे बचने की नहीं अब कोई आशा भाई,
   टाँग ये कराओ ठीक अपनी इलाज से।।८७।।
सुखदेवराज न थे चाहते कराहते का,
   छोड़ना यूँ साथ पर बड़ी मजबूरी थी।
एक ओर मित्र का था प्यार और दूजी ओर,
   दल में खबर ये पहुँचनी जरूरी थी।।
धीरे-धीरे छा रही थी धरा पै अँधेरी शाम,
   दल के ठिकाने की वहाँ से काफी दूरी थी।
देखभाल हेतु साथी ‘बच्चन’ को पास छोड़,
   दौड़े, धरी रह गई योजना अधूरी थी।।८८।।
झटपट तट पै जा पहुँचे दो साथियों के- 
   साथ यशपाल, हाल बहुत गम्भीर था।
चन्द्र चेहरे की झलक की ललक थी, दिल-
   भगत की मुक्ति युक्ति के लिए अधीर था।।
धीर वीर झेल रहा पीर के था तीर, यम-
   मर्म को कुरेद रहा होकर बेपीर था
लाद के हाथों या कन्धों पै ले जाना मुश्किल था-
   बुरी भाँति लोथड़ो में बदला शरीर था।।८९।।
कर पाये जब लों इलाज का प्रबन्ध हाय !
   असहाय ‘‘बोहरा’’ ने पा ली वीर गति थी।
अगली प्रभात बात खुलने के खौफ से की,
   वहीं पै अन्तिम क्रिया, सभी की सम्मति थी।।
दल के थे दिल, दायाँ हाथ थे आजाद का वे,
   उनके प्रयाण हा! अपूरणीय क्षति थी।
भाभी के सुखों का तो मृणाल मानों तोड़ डाला,
   दुर्भाग्य-गज ने की नीचताई अति थी।।९०।।
 भगत की मुक्ति इच्छा आखिरी थी ‘‘बोहरा’’ की
   पूर्ण करने की जिसे ‘चन्द्र’ ने भी ठानी थी।
निश्चित दिनाँक एक जून को तैयार होके,
   जेल में जा छिपे किन्तु बदली कहानी थी।।
पूर्व निश्चयानुसार किया न संकेत गुप्त,
   ‘भगत’ ने साथियों को बहुत हैरानी थी।
‘‘बोहरा’’ के बाद जो ‘‘आजाद’’ को भी छीन लेवे,
   ‘भगत’ को चाहती न ऐसी जिन्दगानी थी।।९१।।
हो गया विफल दल ऐसी विपरीत बात,
   चली कली खुशी की हरेक झड़ गई थी।
किन्तु फिर भी न छोड़ी तदवीर वीर क्रान्ति-
   दल के खिलाफ ये खुदाई अड़ गई थी।।
गरमी से रात को ठिये पै खुद फट गया,
   बम अचानक मच भगदड़ गई थी।
ऊपर आ पड़ा था पहाड़ परेशानियों का,
   तकदीर बहुत ही मन्द पड़ गई थी।।९२।।
हो गया था तितर-बितर क्रान्ति-दल ‘‘चन्द्र’’
   सोचते थे कैसे करें सुगठित इसको।
 आसन प्रयागराज आ-जमाया आजमाया,
   क्या बतायें उन्होनें वहाँ पै किस किसको।।
जवाहरलाल नेहरू के घर जाके मिले,
   वहाँ पै भी देखा खूब करके कोशिश को।
अफसोस ! घृणित ‘‘आतंकवाद’’ नाम दिया,
  ‘‘नेहरू’’ ने, ‘‘चन्द्र’’ क्रान्ति कहते थे जिसको।।९३।।
‘चन्द्र’ ने जवाब देते हुए ये सटीक कहा-
   नेहरू जी ! शान्ति से हैं राज नहीं मिलते।
आपकी अहिंसा में जो होता कोई दम तो ये,
   बुरे दिन देखने को आज नहीं मिलते।।
कभी का हो गया होता भारत आजाद यदि,
   गाँधी जी की शान्ति के रिवाज नहीं मिलते।
सुमनों की सजी सेज होती होते सुख साज,
   कष्ट-कंटकों के सरताज नहीं मिलते।।९४।।
परतन्त्रता का ये तमाम तमतोम तूर्ण,
   चूर्ण करने की पूर्ण ताकत है क्रान्ति में।
होती है प्रचण्ड ज्वाला-ज्वाल ज्यों कराल-काल-
   कालिमा का, त्यों ही ये है, रहो नहीं भ्रान्ति में।।
चमाचम चमक दमक उठते विदग्ध,
   कुन्दन की भाँति चुँधियाते चश्म कान्ति में।
आने वाले वक्त में हो जायेगा मालूम सब,
   कितना है दमखम गाँधीवादी शान्ति में।।९५।।
खूब हो गयी थी तंग आ गई थी नानी याद,
   सत्ता को आजाद की आजादी तड़पाती थी।
धरे थे ईनाम भारी-भारी सरपर और,
   लोभी गद्दारों के गिरोहों को उकसाती थी।।
रहने लगे थे यूँ तो चन्द्र भी बेचैन चैन,
   दिन रैन क्योंकि अब पुलिस चुराती थी।
चंपत हो लेते थे चतुर चकमा दे किन्तु,
    हाथ मलकर गोरी सत्ता रह जाती थी।।९६।।
  सन् इकत्तीस की है सत्ताईस फरवरी,
   बड़ी मनहूस न था पता ये आज़ाद को।
सुखदेवराज को ले साथ अलफ्रेड पार्क,
   बैठ के विचारते थे दल के विषाद को।।
पास से गुजरते जो देखा वीरभद्र को तो,
   चौंक पड़े चन्द्र तज दिया था प्रमाद को।
शायद न देखा हमें, अभद्र ने यह सोच,
   दोनों ने बढ़ाया आगे अपने संवाद को।।९७।।
सनसनाती आ धँसी सहसा ही गोली एक-
   जाँघ में, आजाद की भृकुटि तन गई थी।
गोली का जवाब गोली मिला, हाथों हाथ हुआ-
   हाथ ‘‘नॉट बावर’’ का साफ, ठन गई थी।।
पीछे पेड़ के जा छुपा झपट के झट ‘‘नाट’’
   पुलिस के द्वारा ले ली पोजीशन गई थी।
घिसट-घिसट के ही ले ली ओट जामुन के,
   पेड़ की आजाद ने भी, बात बन गई थी।।९८।। 
दनादन गोलियों की हो गई बौछार शुरू,
   पुलिस न थाम सकी शेखर के जोरों को।
दाईं भुजा बेध गोली फेफड़े में धँस गई
   तो भी भून डाला बायें हाथ से ही गोरों  को।।
साफ बच निकला था साथी सुखदेवराज,
   अकेले आजाद ने छकाया था छिछोरों कों।
एस०पी० विश्वेसर का जब उड़ा जबड़ा तो,
   हड़बड़ा उठे खौफ हुआ भारी औरों को।।९९।।
था अचूक उनका निशाना बायें हाथ से भी
   गोरों को चखाया खूब गोलियों के स्वाद को।
चन्द्र ने अकेले ही पछाड़ा अस्सी सैनिकों को,
   होता था ताज्जुब बड़ा देख के तादाद को।।
दिन के थे बज गये दस यूँ ही आध घंटा,
   गुजर गया था जूझते हुए आजाद को।
शनैः शनैः शिथिल शरीर हुआ गोलियों से,
   भर भी न पाये पिस्तौल वह बाद को।।१००।।
शेखर की तरफ से स्वयमेव गोलियों की, 
                 दनदन कुछ देर बाद बंद हो गई।
फुर्र हो गया आजाद पंछी देह रूपी डाली,
   धरती पै गिरकरके निस्पंद हो गई।।
बात छूने की तो दूर पास तक भी न आये,
   सभी, गोरों की तो गति-मति मंद हो गई।
दागी थी दुबारा गोली कायरों ने लाश पर,
   दहशत दिल में थी यों बुलंद हो गई।।१०१।।
ब्रिटिश-सत्ता का पत्ता-पत्ता बड़ी बुरी भाँति,
   अरे ! जिसकी हवा से काँपे थर-थर था।
खौफ भी था खाता खौफ, खतरा था कतराता,
   जिससे बड़े से बड़ा डरे बर्बर था।।
गिरेबाँ पकड़ के गिराये गद्दी से गद्दार,
   पँहुचाया जिसने गदर दर-दर था।
किया था जवान वो जेहाद फिर आजादी का,
   जालिमों के जुल्मों ने जो किया जर्जर था।।१०२।।
परम पुनीत नवनीत सम स्निग्ध शुभ्र,
   सरस सुसेव्य शुचि सुधा सम पेय है।
शशि-सा सुशीतल, अतीव उष्ण सूर्य-सम,
   उग्र रुद्र सा, प्रशान्त सागरोपमेय है।।
सर्वदा अजेय वह, जिसका प्रदेय श्रेय,
   रहा भारतीय जन मानस में गेय है।
धन्य-धन्य अमर आजाद चन्द्रशेखर वो,
   जिसका चरित्र चारू धरम धौरेय है।।१०३।।
कोड़े खूब झेले पेले कोल्हू पाया कालापानी,
   दे दीं अनगिन कुर्बानियाँ जेहाद में।
भूख-प्यास भूल भटके जो भक्त उम्रभर,
   देशहित पायीं परेशानियाँ प्रसाद में।।
माँ की आबरू के लिए ही जो जिये मरे, बस
   उन्हीं की सुनाते हैं कहानियाँ उन्माद में।
करते अखर्व गर्व सर्व भारतीय, पर्व-
   पावन मनाते बलिदानियों की याद में।।१०४।।
मोम हो गई थीं गुलामी की वजह से जो भी,
   बदल गईं वही जवानियाँ फौलाद में।
गोरों के गुरूर एक चुटकी में किये चूर,
   हो गये काफूर वे ब्रिटानियाँ तो बाद में।।
फूँकी नई जान जंगे आजादी हो उठी जिंदा,
   जादू था, अजब थी रवानियाँ आजाद में।
करते पूजन जन-जन, मन-मंदिर में,
   बस रह गयीं है निशानियाँ ही याद में।।१०५।।
प्रभो ‘चन्द्रशेखर’ आदर्श हों हमारे सदा,
   प्राणों की पिपासा, बुझे प्रेमाह्लाद भाव से।
परहित नित हो निहित प्राणियों में सब,
   विरहित जन-मन हो विवाद भाव से।।
दमके ‘संदीप’ दिव्य द्युति नव जीवन में,
   धधके नवल क्रांन्ति उन्माद भाव से।
वाणी का विलास औ हृदय का हुलास लिए,
   कवि-काव्य का विकास हो आजाद भाव से।।१०६।। 
जय-जय विस्मय विषय चन्द्रशेखर हे ! 
   रण-चातुरी से तेरी रिपु गया हार है।
जय-जय विनय निलय चन्द्रशेखर हे !
   झुका आज चरणों में सकल संसार है।।
जय-जय सदय हृदय चन्द्रशेखर हे !
   दिव्य आचरण तब महिमा अपार है।
जय-जय अभय आजाद चन्द्रशेखर हे !
   चरणों में विनत नमन बार-बार है।।१०७।।
हे प्रकाश पुंज चन्द्रशेखर प्रखर तव-
   पाने को कृपा-प्रसाद फैली शुभाँजलि है।
अमर सपूत क्रान्ति दूत चन्द्रशेखर हे !
   शुभ चरणों में मेरी यह श्रद्धाँजलि है।।
अचल हिमादि्र-सम द्रुत मनोवेग-सम,
   अनुपम जीवट हे तुम्हें पुष्पाँजलि है।
अद्वितीय नेता हे स्वातन्त्र्य भाव चेता, जेता,
   तुमको ‘संदीप’ देता स्नेह भावाँजलि है।।१०८।।
लेखन-सृजन है कठिन, कवि द्वारा प्रभो !
   आपकी महती कृपा-शक्ति-काव्य-प्राण है।
कल्पना तुम्हीं हो तुम्हीं कविता हो कवि तुम्हीं,
   ‘दीप’ काव्य का प्रकाश होना वरदान है।।
‘‘चन्द्रशेखर आजाद-शतक’’ सुपूर्ण हुआ,
   परम प्रसन्न मन धरे तव ध्यान है,
प्रभो क्षमावान क्षमा कीजिए अजान जान,
   बालक से त्रुटियाँ हो जाना तो आसान है।१०९।।