Friday, January 22, 2010

विजयघोष बोस का

पड़ा कर्ण कुहरों में क्रन्दन करुण स्वर
भारत माता का, तो हो उठा वो करुण था।
हुआ नष्ट परतन्त्रता का तमतोम तभी
तमतमा उठा तीव्रतेज से तरुण था॥
मारे डर के जा घुसे सब वैरी विवरों में,
विश्व वन्दनीय वरणीय वो वरुण था।
फौज में था ओज क्रांति अरुणाई छाई खिले-
खुशियों के उर अरविंद वो अरुण था॥१॥

धैर्य शौर्य साहस था जिसमें असीम दीप
सामना न कर सका कभी कोई रोष का ।
दिव्य भव्य रुप था अनूप प्रगटा सके जो
जँचता न ऐसा कोई शब्द शब्द कोश का॥
जमने जमाने में न दिया जोर जालिमों का
जवानों में जिसने जगाया ज्वार जोश का ॥
जहाँ में है जाह्नवी जमुन जल जबतक,
गूँजेगा गगन में विजयघोष बोस का ॥

1 comment:

  1. आज यही कविता आप की वाणी में सुनना बहुत अच्छा लगा था. अब पढ़ भी लिया. आनन्द आया..कभी मौका निकाल कर धनाक्षरी छंदों के व्याकरण पर लिखें.

    सीखने की इच्छा है.

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