उत्तरीअमेरिकीय द्वीप ही नहीं अपितु समस्त हिन्दी साहित्य-जगत के आधुनिक हिन्दी हस्ताक्षरों में सर्वाधिक सुवर्णमय सौम्य समीर लाल जी के ब्लाग उड़न तश्तरी - udantashtari.blogspot.com पर पढ़कर पता चला कि उनकी अपनी माँ के पावन पद्मपदों के प्रति कितनी अप्रतिम प्रीति है :अनायास मेरे मन में जो कुछ भावप्रसून विकसे मैं भी उन्हें माँ के हर उस रूप पर समर्पित करता हूँ जिसकी वन्दना वेदों तक में की गई है- आचार्य संदीप कुमार त्यागी
माँ
परमपिता के ध्यान में टिके न लाख टिकाये।
माँ की ममता में मगर मन आनन्द मनाये
होने को भगवान भी, बड़ी कौन सी बात।
“माँ होना” भगवान की भी पर नहीं बिसात॥
मन से किस सूरत हटी मूरत माँ की बोल।
बच्चे से बूड़े हुए माँ फिर भी अनमोल॥
दूह दूह कर स्वयं को किया हमें मजबूत।
कैसे माँ के दूध का कर्ज़ उतारें पूत॥
माँ की ममता की अरे समता नाही कोय।
क्षमता माँ की क्या कहूँ प्रभु भी गर्भ में सोय॥
अनुपमा सुषमा माँ !
सात समुद्रों से भी ज्यादा
तेरे आँचल में ममता है।
देखी हमने सारे जग में,
ना तेरी कोई समता है॥
सौम्य सुमन सरसिज के हरसें
सरसें स्नेह सरोवर नाना।
सुप्रभात की अनुपमा सुषमा,
सदा चाहती है विकसाना॥
सुधा स्पर्श सा सुन्दर शीतल
सुखद श्वास प्रश्वास सुहाना।
कल्पशाख से वरद सुकोमल
कर अभिनव मृणाल उपमाना॥
स्वर्ग और अपवर्ग सभी कुछ,
माँ की गोदी में रमता है॥
हो शुचि रुचि पावन चरणों में,
तेरा करूँ चिरन्तन चिन्तन।
शीश चढ़ा दूँ मैं अर्चन में,
अर्पित कर लोहू का कण कण॥
मणिमय हिमकिरीटिनी हेमा
माँग रहे वर तव सेवक जन।
शुभ्रज्योत्स्ना स्नात मात तव
वत्स करें शत शत शुभ-वंदन॥
सप्त सिन्धु का ज्वार तुम्हारे
पद पद्मों को छू थमता है॥
Wednesday, January 27, 2010
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बहुत आभार संदीप जी. इस दिवस पर आपको अपने करीब अहसासा.
ReplyDeleteसंदीप जी, आपने बहुत ही भावुक रचना लिखी है. आभार आपका.
ReplyDeleteरामराम.
बहुत सुन्दर रचना है संदीप जी। घनाक्षरी का बहुत सुन्दर प्रयोग है। इसे ऑडियो में डाउनलोड कर के लगा दीजिये तो आपकी सशक्त और मधुर आवाज़ में इस रचना को सुनने का अधिक आनंद आयेगा।
ReplyDeleteबधाई