लोहे की चिड़िया चढ़े आये देश सुदूर।
कुछ ने ढूँढा रोकड़ा और कुछ ताकें हूर॥
और कुछ ताकें हूर नूर है तनिक न जिनपे।
रखते हैं वो रकम हरामी मोटी गिनके।।
कहना इनको भारतीय बिल्कुल ना सोहे।
लठ तुड़वाओ ऎसो पे पड़वाओ लोहे॥१॥
कुछ को नहीं मालूम है यहाँ प्रवासी कुछ ।
भूल भाल निज सभ्यता हरकत करते तुच्छ॥
हरकत करते तुच्छ तुच्छ ही चलते चालें।
भारतीय गुण धर्म संस्कृति बना के ढालें॥
हैवानों के हाथ,बने जालिम हैं सचमुच।
आतंकी अड्डों से जुड़ करते कुछ का कुछ॥२॥
Friday, January 22, 2010
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आज यही कविता आप की वाणी में सुनना बहुत अच्छा लगा था. अब पढ़ भी लिया. आनन्द आया..ऐसे प्रवासी भी हैं.
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