Sunday, January 18, 2009

दीपावल्यै नमो नम:

आचार्य संदीप कुमार त्यागी “दीप”
www.freedomyoga.ca
विश्व की समस्त संस्कृतियों पर आधारित आज तक अस्तित्व में आईं सभी मानव सभ्यताओं का सदैव यह प्रयास रहा है कि जीवन को किस तरह एक उत्सव बनाया जा सके।बस इसी वजह से संसार के समस्त सभ्य सामाजिक परिवेश में व्रत पर्वों की परिकल्पना साकार हुई। भारतीयेतर विकसित संस्कृतियों से पनपी मुस्लिम सभ्यता में ईद,शबरात तथा ईसाइयों में क्रिसमस आदि अनेकानेक पर्वों का प्रचलन भी इसी बात की प्रबल पुष्टि करता है कि जीवन केवल एक कठिन यात्रा ही नहीं बल्कि एक अनन्त आनन्दपूर्ण उत्सव भी है।
मानव जाति का अखिल अध्यात्म धर्म-दर्शन साहित्य एवं इतिहास सदा से ही संकेत करता है कि मानव मन में योग और विज्ञान आदि सकल कलात्मक उपायों के प्रति इतनी उत्सुकता का कारण केवल इह एवं पारलौकिक जीवन को एक उत्सव के रूप में अनुभव करना है।संभवत: उपनिषद् के ऋषियों की श्रेय एवं प्रेयमार्गी साधना के पीछे भी यही साध्य रहा होगा।
भारतीय मनीषियों ने जीवन में एक अनन्त उत्सवमयता भरने के लिए ही जीवन का प्रत्येक वर्ष,मास,पक्ष तथा दिन का प्रत्येक पल एक आनन्दमय महोत्सव के रूप में स्वीकार कर सोत्साह जिया है।वर्षारम्भ में चैत्रमास के वासन्तीय नवरात्रों के पश्चात रामनवमी, हनुमज्जयंती, वैशाखी, अक्षय-तृतीया, गंगादशहरा,गुरु-व्यास पूर्णिमा,रक्षाबंधन, कृष्णजन्माष्टमी,पितृ-पक्ष, शारदीयनवरात्र, विजयादशमी,दीपावली,गंगास्नान,मकरसंक्रांति,वसन्तपंचमी,महाशिवरात्री एवं होलिकोत्सव जैसे धार्मिक सांस्कृतिक एवं सामाजिक त्यौहारों के अलावा स्वतंत्रता-दिवस,गणतंत्र-दिवस, गाँधी-शास्त्री-जयंती,शिक्षक-दिवस,नेताजी सुभाषचंद्र बोस जयंती,चंद्र्शेखर आजाद-बलिदान-दिवस एवं सरदार भगतसिंह जैसे अनेकों राष्ट्रिय महापुरुषों के जीवन की स्मृतियाँ सँजोने वाली तिथियों तारीखों को राष्ट्रिय-पर्वों के रूप में यथोचित भावना से मनाते हैं।
सत्यसनातन वैदिक धर्मावलम्बी हम भारतीयों ने जन्म एवं मृत्यु की मध्यावधि को ही जीवन न मानकर उसके पूर्वापर समय में भी स्वर्गादिक सुखद लोक-लोकान्तरों की कल्पना करके जीवन के प्रति अत्यंत सकारात्मक एवं आशावादी दृष्टिकोण प्रकट किया है। उत्सवधर्मी जीवन दर्शन के कारण वैसे तो स्पष्ट ही हो चुका है कि हम भारतीयों के जीवन का हर दिन होली और रात दिवाली होती है,लेकिन फ़िर भी इस वर्ष की कार्त्तिकी अमावस्या अर्थात दीपावली २८अक्टूबर को होने से आजकल विशेषरूप से सजे सुंदर वातावरण में दीपावली के संबंध में कुछ कहने का हम लोभ संवरण नहीं कर पा रहे हैं।
किसी भी त्यौहार के संबंध में जब हम कुछ जानना चाहते हैं तो हमारे सामने उसके धार्मिक ,सामाजिक, सांस्कृतिक, ऎतिहासिक राजनैतिक,आर्थिक, वैज्ञानिक एवं पर्यावरणपरक आदि सभी पक्ष आते हैं जिनके रहस्यों की विश्लेषणात्मक टोह लिये बिना हम किसी भी पर्व के परम्परागत परिवेश से पूर्ण परिचित नहीं हो सकते हैं।दीपावली के संदर्भ में भी जब हम शास्त्रों एवं लोकपरम्पराऒं की गहराई में उतरते जाते हैं तॊ पाते हैं कि परत दर परत “दीपावली” की जड़ें भी मानव-सृष्टि के प्रारम्भ से जुड़ी मिलती हैं।परमपिता परमात्मा की अप्रतिम संतति इस मनुष्य का ममतामयी प्रकृति माँ की गोद में अतिप्रसन्नतापूर्वक प्रेम एवं श्रद्धातिरेक से जब जब हृदय आलोडित हुआ है तब तब होली दीपावली जैसे महापर्वोत्सवों का प्रचलन प्रारम्भ हो चला है। सर्वप्रथम दीपावली को वैदिक आर्ष भारतीय जनमानस ने शारदीय नवसस्येष्टि यज्ञ के रूप में मनाकर देवान्न अ़क्षत(धान,चावल) कपास आदि प्राणप्रदायिनी फ़सलों के लिए प्रभु को नैसर्गिक अहॊभाव से भरकर पावन अंतर्मन से पुकारा है।प्रतिवर्ष रबी और खरीफ़ की फ़सलॊं के पहली बार गृहप्रवेश पर शारदीय एवं वासंतीय नवसस्येष्टि यागों को भव्य मेलॊं-महोत्सवॊं के रूप में बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाया है।
त्वं ज्योतिस्त्वंरविश्चंद्रो विद्युदग्निश्चतारका।सर्वेषां ज्योतिषां ज्योति: दीपावल्यै नमो नम:॥
दीपमालिका, दीवाली या दिवाली, आदि नामों से संबोधित दीपावली का तात्पर्य होता है,”दीपों की अवली या पंक्ति”। जो लोग दीपावली को प्रकाशपर्व (Festival of Light) बताकर जहरीली मोमबत्तियाँ जलाकर या बिजली से जलते लट्टुओं पर लट्टू हो हो कर देश की विद्युत ऊर्जा बरबाद कर विश्व को globle warming में झोकते हैं,उन्हें जानना चाहिये कि दीपावली दीपों का पर्व है प्रकाश का पर्व नहीं। दीपक प्रकाश का उत्पादक या पिता होने से प्रकाश से कहीं गहरा प्रतीक है। “A candle loses nothing by lighting another candle.”के स्थान पर बल्ब ,ट्यूब लाइट,मर्करी या अन्य विद्युत संचालित उपकरण क्या वही भाव स्पंदित कर सकता है। आधुनिकतावाद की आड़ में अंधे पाश्चात्यानुरागी भटके तथाकथित भारतीयों से हमारा निवेदन है कि कृपया दीपावली को दीपों का पर्व दीपावली ही रहने दें ,Festival of Light बनाकर इस पर्व की वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक प्रतीकात्मक संरचना से खतरनाक खिलवाड ना करें।
दीपॊं के इस पर्व दीपावली पर अमावस्या की घनघोर कालीरात को दीपकों की पंक्तियां तारों जड़ी पूनम की झलमलाती रात में बदल देती हैं। पांच दिनों तक लगातार इस महोत्सव की धूमधाम बस देखते ही बनती है।
दीपावली महोत्सव का पहला दिन कार्तिक मास कृष्णपक्ष की त्रयोदशी तिथि को आयुर्वेद के प्रवर्तक महर्षि धनवंतरी की जन्म-जयन्ती के रूप में मनाया जाता है,पौराणिक उपाख्यानों के अनुसार भगवान धनवंतरी समुद्र मंथन से प्राप्त चौदह रत्नों में से एक रत्न हैं। धन की अधिष्ठात्री देवी महालक्ष्मी के धनवंतरी इस तरह बड़े भाई हुए । उनकी जयंती धनवंतरी त्रयोदशी का संक्षिप्त हिंदी अपभ्रंश धनतेरस पर्व लोक में नये बर्तन वस्त्राभूषणादि की खरीद फ़रोख्त के लिए विशेषरूप से शुभ माना जाता है।
और दूसरे दिन को छोटी दीपावली मनाई जाती है। द्वापर युग में श्रीकृष्ण ने इसी दिन नरकासुर नामक राक्षस का वध किया था ,चतुर्दशी तिथि होने के कारण छोटी दीपावली को नरक - चतुर्दशी भी कहते हैं। भारतीय धर्म साहित्येतिहास में भक्त एवं भगवान दोनों ही रूपों में स्तुत्य उत्साह एवं समर्पण के साक्षात अवतार सर्वसंकटमोचन हनुमान जी की पूजा का इस दिन विशेष महत्त्व है।
पंचदिवसीय पर्वों की इस सुन्दर शृंखला में तीसरा दिन अतीव महत्त्वशाली है। यह दिन वो दिन है,जिसको हर भारतवासी हर रोज मनाना चाहता है।इस दिन भारतवर्ष की परम्परा से प्रेम करने वालों की उत्सवप्रियता अपनी पराकाष्ठा के पार होती है।धनवैभव की देवी भगवान विष्णु की पत्नी महालक्ष्मी के महापूजन के साथ साथ इस दिन धनकुबेर-पूजन ,तुला-पूजन,मसि-लेखनी तथा व्यापार-लेखा बही पुस्तिका का पूजन करके भारतीय आर्थिक नववर्ष का शुभारम्भ होता है। देवासुर-समुद्र-मंथन की पुराण प्रसिद्ध कथानुसार इसी दिन देवी लक्ष्मी का प्राकट्य हुआ था।कहते हैं कि चौदह वर्षों के पश्चात लंका-विजयोपरान्त जब भगवान श्रीराम का अयोध्या आगमन हुआ तो समस्त अयोध्यावासियों ने ही नहीं बल्कि पूरे आर्यावर्त्त ने दीपावली मनाई। ऎतिह्यप्रामाणिक तथ्यों की असंगति के बावजूद राम की अयोध्या वापसी की तिथि दिवाली ही लोक स्वीकृत है।
गुप्तवंश के महानशासक विक्रमादित्य द्वारा हूणों को हराने पर दिवाली को ही नवसंवत्सर प्रचलित किया गया। ऎतिहासिक घटनाओं में सर्वथा अविस्मरणीय स्वर्णमंदिर अमृतसर की स्थापना भी सिक्खों के चौथे गुरुश्री रामदास जी द्वारा की गई।साथ ही इसी दिन छ्ठें गुरु हरगोविंद जी जहाँगीर की क्रूर कारा से मुक्त हुए थे।
भारतीय जनमानस की उत्सवधर्मिता केवल जन्मोत्सवों तक ही सीमित नहीं है,बल्कि मृत्यु को भी एक पर्व के रूप में मनाने का अद्भुत साहस हम भारतीयों में सदा से पाया जाता है।विगत वर्षों में आतंकवाद के घृणित कारनामे भी हमारी अडिग श्रद्धा को विचलित नहीं कर पाये। १८८३ ईस्वी में दीपावली के दिन ही भारतीय संस्कृति के महान उन्नायक स्वतंत्रता के मंत्र के सर्वप्रथमगायक, आर्यसमाज के संस्थापक महर्षिदयानंद सरस्वती का जीवनदीप कोटि कोटि बुझे मानस-दीपों को आत्मज्योति देकर असमय ही संसार से विदा हो गया था ।जैनधर्म के प्रवर्त्तक महावीर स्वामी ने भी दीपावली को ही निर्वाण प्राप्त किया था। भारतीय योगविद्या का पाश्चात्य लोकमानस में लोहा मनवाने स्वामी रामतीर्थ का जन्म भी दिवाली को ही हुआ था।
दीपमालिका से अगले दिन गोवर्धन पूजा को अपना कर युगों पहले ही हम भारतीयों ने श्रीकृष्ण के माध्यम से नदी पर्वत पौधों को सदैव सुरक्षित तथा पशुधन को मांसोत्पादक एक संसाधन न मानकर बल्कि पूर्णतया वैज्ञानिक तरीके से संरक्षित कर पर्यावरणप्रदूषण जैसी विश्व विनाशक समस्या का सर्वदा समीचीन समाधान खोजा।
शुभ दीपावली महोत्सव का समापन भातृ-द्वितीया अर्थात भैय्या दूज के पारिवारिक वातावरण में होता है।
इस तरह हम कह सकते हैं कि दीपावली हमें सब खुशियाँ देकर जाती है । लेकिन बाह्यात
आक्रामक सभ्यताओं के दुष्प्र्भाव के कारण हमारे समाज में खतरनाक आतिशबाजी ,चोरी तथा जुआ जैसी गलत रीतियाँ भी कोढ़ सी फ़ैल रही हैं । जिनसे समाज को बचाना हमारा प्रथम कर्त्तव्य है।

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