Wednesday, January 27, 2010

अनुपमा सुषमा माँ !

उत्तरीअमेरिकीय द्वीप ही नहीं अपितु समस्त हिन्दी साहित्य-जगत के आधुनिक हिन्दी हस्ताक्षरों में सर्वाधिक सुवर्णमय सौम्य समीर लाल जी के ब्लाग उड़न तश्तरी - udantashtari.blogspot.com पर पढ़कर पता चला कि उनकी अपनी माँ के पावन पद्मपदों के प्रति कितनी अप्रतिम प्रीति है :अनायास मेरे मन में जो कुछ भावप्रसून विकसे मैं भी उन्हें माँ के हर उस रूप पर समर्पित करता हूँ जिसकी वन्दना वेदों तक में की गई है- आचार्य संदीप कुमार त्यागी
माँ
परमपिता के ध्यान में टिके न लाख टिकाये।
माँ की ममता में मगर मन आनन्द मनाये

होने को भगवान भी, बड़ी कौन सी बात।
“माँ होना” भगवान की भी पर नहीं बिसात॥

मन से किस सूरत हटी मूरत माँ की बोल।
बच्चे से बूड़े हुए माँ फिर भी अनमोल॥

दूह दूह कर स्वयं को किया हमें मजबूत।
कैसे माँ के दूध का कर्ज़ उतारें पूत॥

माँ की ममता की अरे समता नाही कोय।
क्षमता माँ की क्या कहूँ प्रभु भी गर्भ में सोय॥


अनुपमा सुषमा माँ !
सात समुद्रों से भी ज्यादा
तेरे आँचल में ममता है।
देखी हमने सारे जग में,
ना तेरी कोई समता है॥

सौम्य सुमन सरसिज के हरसें
सरसें स्नेह सरोवर नाना।
सुप्रभात की अनुपमा सुषमा,
सदा चाहती है विकसाना॥
सुधा स्पर्श सा सुन्दर शीतल
सुखद श्वास प्रश्वास सुहाना।
कल्पशाख से वरद सुकोमल
कर अभिनव मृणाल उपमाना॥
स्वर्ग और अपवर्ग सभी कुछ,
माँ की गोदी में रमता है॥

हो शुचि रुचि पावन चरणों में,
तेरा करूँ चिरन्तन चिन्तन।
शीश चढ़ा दूँ मैं अर्चन में,
अर्पित कर लोहू का कण कण॥
मणिमय हिमकिरीटिनी हेमा
माँग रहे वर तव सेवक जन।
शुभ्रज्योत्स्ना स्नात मात तव
वत्स करें शत शत शुभ-वंदन॥
सप्त सिन्धु का ज्वार तुम्हारे
पद पद्मों को छू थमता है॥

Sunday, January 24, 2010

दो दो घर इक आदमी रहता फ़िर भी तंग

बचपन से था ख्वाब इक उड़ूँ हवा के संग।
मैं भी ज्यों आकाश में उड़ते सभी विहंग॥१॥

धीरे धीरे पर हुआ मुझको भी मालूम।
बिना पंख नहीं आदमी सका व्योम को चूम।।२॥

मुझको जब जब दीखते नभ में वायुयान।
उड़ने को व्याकुल हुआ तब तब मैं नादान॥३॥

हवई जहाज में बैठ कर सात समन्दर पार।
आ पाऊँगा मुफ़्त में पता नहीं था यार॥४॥

गजब देश है अजब हैं सभी यहाँ के ढंग।
दो दो घर इक आदमी रहता फ़िर भी तंग॥५॥

तनिक तनिक सी बात पर तुनक तुनक कर यार।
बीवी मीयाँ को करे बाहर ठोकर मार॥ ६॥

साठे पर पाठा भई लगना अच्छी बात।
पर क्यूँ बूढ़ा षोडशी संग गात सुलगात॥७॥

पचपन में बचपन चढ़ा,बचकानी करतूत।
गणिकालय में हैं पड़े चढ़ा काम का भूत॥८॥

बच्चे आवारा रहें गायब रातोंरात।
गलबइयों से ली बढ़ा बहुत ही आगे बात॥९॥

गमछू प्रेसीडेंट की दूजी ब्याहता जाई।
वो नाबालिग छोकरी इक दिन मंदिर आई॥१०॥

पाँव पन्द्रहवें साल में ही करवाके भारी।
क्या सुख से बन पाएगी नारी वो बेचारी।।११॥

भ्रूणहनन पर मनन भी है संवेदनशील।
स्कूलों में बँट रहा लिटरेचर अश्लील।।१२॥

सोने की चिड़िया छुटी लुटी सभी जागीर।
हाय क्यों परदेश में ले आई तकदीर॥१३॥

होते ढोल सुहावने सदा दूर के यार।
अभी तलक समझे नहीं प्यारे रिश्तेदार॥१४॥

हाथ पाँव हैं मारते करते हर तदबीर।
चले कनाडा के लिए बेच सभी जागीर॥१५॥

झरते डालर डाल से हैं यूरो के पेड़।
बने विदेशों के लिए घने पढ़े भी भेड़।।१६॥

हर युवक है बुन रहा ख्वाब यही दिन रैन।
सोते जगते हों भले खुले अधखुले नैन॥१७॥

अमरीका इंलैण्ड में ही है असली चैन।
लैन्डेड होना मांगता है हर इण्डियन मैन॥१८॥

ऐसे भी पकड़े गये कई कबूतरबाज।
जिनका अपना था अलग साज बाज अंदाज॥१९॥

कई केस ऐसे खुले जिनमें खुद माँ बाप।
बेटे बेटी से करा रहे भयंकर पाप॥२०॥

लालच डालर का बुरा,बिका दीन ईमान।
बार बार हैं हो रहे, नकली कन्या दान।।२१॥


पंद्रह बीस हजार में दूल्हे दुल्हन फर्जी।
जहाँ तहाँ उपलब्ध हैं ले लो जितनी मर्जी॥२२॥


हमने तो यहाँ तक सुना इधर उधर से यार।
रिश्तों को रख ताक पर ब्याह रचें मक्कार॥२३॥


लेकिन हम दस साल में असल समझ यह पाए।
सौ फ़ीसद परदेश में कौन सुखी रह पाए॥२४॥

सब भूमि गोपाल की बात अगर सिरमाथ।
भारत को रख हृदय में रहो प्रेम के साथ॥२५॥

तुम चाहे जिस देश में रहो कुटुम्ब समान ।
आर्य कार्य करते रहो वसुधा का कल्याण॥२६॥

Friday, January 22, 2010

विजयघोष बोस का

पड़ा कर्ण कुहरों में क्रन्दन करुण स्वर
भारत माता का, तो हो उठा वो करुण था।
हुआ नष्ट परतन्त्रता का तमतोम तभी
तमतमा उठा तीव्रतेज से तरुण था॥
मारे डर के जा घुसे सब वैरी विवरों में,
विश्व वन्दनीय वरणीय वो वरुण था।
फौज में था ओज क्रांति अरुणाई छाई खिले-
खुशियों के उर अरविंद वो अरुण था॥१॥

धैर्य शौर्य साहस था जिसमें असीम दीप
सामना न कर सका कभी कोई रोष का ।
दिव्य भव्य रुप था अनूप प्रगटा सके जो
जँचता न ऐसा कोई शब्द शब्द कोश का॥
जमने जमाने में न दिया जोर जालिमों का
जवानों में जिसने जगाया ज्वार जोश का ॥
जहाँ में है जाह्नवी जमुन जल जबतक,
गूँजेगा गगन में विजयघोष बोस का ॥

भारतं विभासतां

हे विभो ! भवन्तु मे भारते सुनायका:।
मोद शान्तिदायका: सुसम्पदा प्रदायका:॥

हस्ति-तुल्य गर्जनं सिंह तुल्य नर्दनं,
कुर्वतां रणाङ्गणे शत्रु-मानमर्दनं।
कण्टकेन कण्टकं ये हरन्तु सत्वरं,
सन्तु ते भुवि प्रभो! क्रान्ति-गीत-गायका:॥

ये सदैव तन्वतां देशभक्ति भावनां
भारतं विभासतां पूर्यताञ्चकामनां।
मातरं भजन्तु ये दीनतां दलन्तु ये,
भान्तु तेऽखिला: जना: नायका: विधायका:॥

कुछ घटिया प्रवासी

लोहे की चिड़िया चढ़े आये देश सुदूर।
कुछ ने ढूँढा रोकड़ा और कुछ ताकें हूर॥
और कुछ ताकें हूर नूर है तनिक न जिनपे।
रखते हैं वो रकम हरामी मोटी गिनके।।
कहना इनको भारतीय बिल्कुल ना सोहे।
लठ तुड़वाओ ऎसो पे पड़वाओ लोहे॥१॥

कुछ को नहीं मालूम है यहाँ प्रवासी कुछ ।
भूल भाल निज सभ्यता हरकत करते तुच्छ॥
हरकत करते तुच्छ तुच्छ ही चलते चालें।
भारतीय गुण धर्म संस्कृति बना के ढालें॥
हैवानों के हाथ,बने जालिम हैं सचमुच।
आतंकी अड्डों से जुड़ करते कुछ का कुछ॥२॥

Friday, January 1, 2010

दो हजार दस ईसवी हुआ दीप प्रारम्भ।

नये साल के जश्न में लोग सभी खुशहाल।
दुल्हनिया उम्मीद की पहिने चोला लाल॥

लालपरी की बोतलों में पानी सा लाल।
लल्लू जिस पै लुटा रहे पैसा बिना मलाल॥

स्वागत में नये साल के छूटी स्वतः शरम।
पी बोतल बूढ़े बदन होने लगे गरम ॥

हट्टी पर लहरा रहे उल्लू गाँधी छाप।
जबकी बापू मानते थे शराब को शाप॥

कांग्रेस को मिल गया अजी दूसरा चांस।
गाँधीवादी कर रहे कुर्सी संग रोमांस॥

गाँधीवादी महामहिम नारायण के संग।
गणिकाएं लख अंतरंग है गणतंत्र भी दंग॥

तापमान रहे संतुलित लगे तनिक ना ठंड।
बना बहाने बेतुके फूंक रहे सब फंड ॥

बिना दवा के मर रहे लोग रोज़ के रोज़ ।
कहती है सरकार पर बड़ा आर्थिक बोझ॥

सरकारें करवा सकीं नहीं दवा उपलब्ध।
स्वाइन फ्लू ने कर दिया यू एन तक स्तब्ध॥

इंतजाम कैसे करें मंदी की है मार।
छोटे मोटे बड़े बड़े बंद हुए व्यापार॥

साल गया यह सालता कहें सियाने लोग।
अमरीका तक को लगा बुरा रिसेशन रोग॥

दो हजार दस ईसवी हुआ दीप प्रारम्भ।
आशा है अब मिटेगा शीघ्र सभी छ्ल दंभ॥