Tuesday, March 31, 2009

मसीहा:आचार्य संदीप त्यागी


साज ही न बजता जिस पै ,वो भी कोई वीणा है,
जिसमें ना चमक हो कोई,वो भी क्या नगीना है।
क्या जतन बिना भी मनुवा जीना कोई जीना है।।

पगले नाम जिन्दगी ना ऐश औ आराम का,
मस्ती भरी सुबहा का, ना रंगीली शाम का।
असलियत में जिंदगी तो खून औ पसीना है।।

तिनका तिनका जोड़कर पंछी भी घर बनाते हैं,
दौड़ धूप करके दिन भर दाना पानी पाते हैं।
तूने हक मगर क्यों हाय दूसरों का छीना है।।

झंझटों को झेलकर भी हँसते हँसते जीते जो,
बांट कर सभी को अमृत खुद जहर हैं पीते जो।
कहता जग मसीहा उनको भूलता कभी ना है।।

Friday, March 27, 2009

हो मुबारक साल ये तुमको नया

27 मार्च: 'शुभकृत्' नामक विक्रम सम्वत्सर 2066 प्रारम्भ, नवसंवत्सरोत्सव, नवपंचांग फल-श्रवण, ध्वजारोहण, वासंतिक नवरात्र प्रारम्भ, कलश (घट) स्थापना, आरोग्य व्रत, तिलक व्रत, विद्या व्रत, गुडी पडवा (महाराष्ट्र), डॉ. हेडगेवार जयंती, गौतम ऋषि जन्मतिथि, आर्य समाज स्थापना दिवस के शुभावसर पर---

जिन्दगी में हर खुशी तुमको मिले।
छाया गम की ना कभी तुम पर पड़े।।
मान कर अपना सहारा ईश को ।
सीढया उत्कर्ष की चढ़ते रहो।।

भूलकर भी भूल कभी तुम ना करो ।
पाप पंकिल में कभी तुम ना पड़ो।।
चरण चूमेंगी सफलतायें स्वयं ।
लक्ष्य पर अपने सदा बढ़ते रहो ।।

शूलों में भी फूल से खिलते रहो ।
रात्रि में संदीप से जलते रहो।।
हो मुबारक साल ये तुमको नया ।
भाग्य अपना तुम स्वयं गढ़ते रहो।।

Thursday, March 26, 2009

हरीतिमा:आचार्य पं.हरिसिंह त्यागी

हरि-महिमा
तव महिमा से दिनकर द्योतित।
तव आभा से शशि है शोभित।।
नक्षत्रों से गगन विरंजित।
विभुवर ! तुम करते हो मण्डित।।१।।

तुमने बनाई पर्वत श्रेणी।
शोभित ज्यों धरती की वेणी।।
कल-कल करती सरिता बहती।
पल-पल तेरी महिमा कहती।।२।।

है गाम्भीर्य भरा शुचि सागर।
रत्नों से है वह रत्नाकर।।
इसमें आकर मिलती गंगा।
परम प्रहर्षित तरल-तंरगा।।३।।

धरणी पर छाई वन-श्रेणी।
हरित धरा रहती सुख देनी।।
कण-कण में प्रभु का है वासा।
पूर्ण करो हरि! ‘‘हरि’’ की आशा।।४।।
आये थे दयानन्द
उद्धार करने वेद का, आये थे दयानन्द।
उपकार करने देश का, आये थे दयानन्द।।

ऋषि ने अनाथों को, सदा सीने से लगाया।
विधवाओं के उत्थान में, जीवन है बिताया।।
भव-भीतियाँ मिटाने को, आये थे दयानन्द।।।१।।

जिज्ञासुओं को वेद का, रस-पान कराया।
पाषाण-पूजकों को सत्य-ज्ञान सिखाया।।
अँधियार मिटाने को ही आये थे दयानन्द।।।२।।

राष्ट्र की बिगड़ी दशा देखी जो ऋषि ने।
भारत की पराधीनता देखी जो ऋषि ने।।
स्वाधीनता जगाने को आये थे दयानन्द।।।३।।

सत्यार्थ के प्रकाश को ऋषि ने प्रकट किया।
वैदिक ‘‘व्यवहारभानु’’ को लिखकर अमिट किया।।
वेदादिभाष्य करने को आये थे दयानन्द।।।४।।
ऋषि बोध
रखा व्रत पिता सँग, जगा रात भर वह।
सभी सो चुके थे न सोया मगर वह।।
चुहें देख ये मूलशंकर ने जाना,
चुहे को हटाता न जो, शिव नहीं है।।१।।

ये पत्थर है कोरा चूहे का खिलौना।
चढ़े फूल-माला भी उसका बिछौना।।
हैं मिष्टान्न-मेवे भी भोजन चुहे का,
कि शिव ने उन्हें तो छुआ तक नहीं है।।।२।।

पिता सो रहे हो उठो तो पिताजी।
ये मेरी समस्या है सुलझा दो जल्दी।।
ये कैसा है शिव जो करे नात्मरक्षा,
चुहे को हटाता जरा भी नहीं है।।।३।।

पिता ने सुना तो बहुत क्रोध आया।
उसे शम्भु की भक्ति का पथ जताया।।
धरम-काम में तर्क करना ना बेटा,
यही शिव हमारा यही शिव यही है।।।४।।

ज्यों अवसर मिला चल दिये छोड़ सब कुछ।
ये घर-बार उनको लगा आज है तुच्छ।।
बहुत दिन के पश्चात् मथुरा पुरी में,
गुरू पा लिया मानों शिव भी वही है।।।५।।

गुरुकुल प्रणाली के रक्षक वही थे।
कि विधवा, अनाथों के सेवक वही थे।।
स्वाधीनता के थे प्रेरक दयानंद,
‘हरि’ कीर्ति उनकी यहाँ छा रही है।।।६।।
आये थे श्रद्धानंद
वैदिक-प्रचार के लिए, आये थे श्रद्धानंद।
शुद्धि-प्रसार के लिए, आये थे श्रद्धानंद।।
चण्डी की पुण्य-भूमि में, खोला था गुरुकुल।
ऋषिवर के मार्ग चलने को, वह थे बड़े व्याकुल।।
आजाद करने देश को, आये थे श्रद्धानंद।।।१।।।
खोला था सीना आपने, खालेंगे गोलियाँ।
‘‘गोरों चले जाओ’’, यहाँ बोली थीं बोलियाँ।।
उनकों भगाने के लिए, आये थे श्रद्धानंद।।।२।।।
जो कुछ बचा था कार्य दयानंद स्वामी से।
पूरा करूँगा मैं उसे, तन-मन से औ जी से।।
गुरुकुल प्रणाली खोलने, आये थे श्रद्धानंद।।।३।।।
शुद्धि-प्रचार का यहाँ, डंका बजा दिया।
लाखों ही मुसलमानों को, हिन्दू बना दिया।।
अमरत्व प्राप्त करने को, आये थे श्रद्धानंद।।।४।।।
वैदिक-महाकासार के, सच्चे मराल थे।
सारी मनुष्य-जाति के, वह उच्च भाल थे।।
‘हरि’ भक्ति में समाने को, आये थे श्रद्धानंद।।।५।।।
दर्शनानन्द आये थे
सत्यासत्य तोलने की, न्याय्य बात बोलने की,
गुरुकुल खोलने की, चाह उमगाये थे।
तेज में दिवाकर आहलाद में सुधाकर,
गंभीरता के अब्धि अथाह कहलाये थे।।
शास्त्रार्थ-महारथी सुसारथी समाज - रथ,
भूलें भटकों को धर्म-पथ दिखलाये थे।
मानव-सुहंस-सम, वंशों में सुवंश-सम,
भूषणावतंस-सम ‘‘हरि’’ मन भाये थे।।

दर्शनों की ज्योति ले के, ईश्वर प्रतीति लेके,
गुरुकुल प्रीति लेके, सुभग सुहाये थे।
पाखण्ड के खण्डन को, वेद-विधि मण्डन को,
मूर्ति-पूजा भंजन प्रंभजन कहाये थे।।
तर्क का कुठार धार, दर्शन प्रचार कर,
दिशि-दिशि ‘‘दर्शन’’ के दर्शन कराये थे।
निर्विकार राम-सम, योगी ‘‘हरि’’ कृष्ण-सम,
दर्शनीय स्वामी दर्शनानन्द जी आये थे।।
श्री स्वामी दर्शनानन्द
जीवन-प्रदीप लेकर, आये थे दर्शनानन्द,
दर्शन-प्रदीप्ति उसमें, लाये थे दर्शनानन्द।।
ले प्रेरणा ऋषि से, रवि से शशांक के सम,
पाखण्ड की निशा में, चमके थे दर्शनानन्द।।
निर्धन-निराश बालक, भूलें न संस्कृति को,
गुरुकुल की यह प्रणाली, लाये थे दर्शनानन्द।।
आकार से रहित है, ईश्वर जगत में व्यापक,
तजिये यह मूर्ति-पूजा, कहते थे दर्शनानन्द।।
शास्त्रार्थ-महारथी थे, वैदिक-धरम के सच्चे,
विद्वान थे यशस्वी, त्यागी थे दर्शनानन्द।।
लेखक महामनीषी, योगी उदार चेता,
ऐसा मिला न नेता, जैसे थे दर्शनानन्द।।
उनके प्रताप से है, गुरुकुल अचल बगीचा,
हम चंचरीक इसके, माली थे दर्शनानन्द।।
थीं तीन ही चवन्नी, खोला था जबकि गुरूकुल,
विश्वास ईश का ले, आये थे दर्शनानंद।।
जाते समय उन्होंने, लोगों से ‘‘हरि’’ कहा था,
शंकाएँ सब मिटा लो, जाता ये दर्शनानंद।।
महात्मा गाँधी
ओ! तपस्वी गाँधी तेरे,
हित करूँ क्या मैं समर्पण।
त्याग त्यागी का यही है,
देशहित हो मेरा जीवन।।१।।

देह थी ज्यों धनुष-यष्टि,
बाण अपनी वाक-शक्ति।
काट डाला राहु-रिपु को,
तकली का लेकर सुदर्शन।।२।।

तप्त था यह देश अपना,
देखता स्वातन्त्र्य-सपना।
शत-अब्दियों से सोये भारत,
को कराया सूर्य-दर्शन।।३।।

दुग्ध-सरिता ‘हरि’ बहेगी,
स्वर्ण की वर्षा करें घन।
युगप्रवर्तक गाँधी मोहन।
आपको शत-शत नमन।।
गाँधी-गरिमा
निज वपु रूप में बापू तुम, वह मानवता साकार लिए।
आये भारत जन-जीवन हित, तुम मानवता का सार लिए।।

क्यों आया है कहाँ जाना है, सब अपने कौन विराना है।
मानव तुम को निज जीवन का, नहीं स्वाभिमान मिटाना है।।
संदेश सुनाने जन-जन को, जीवन-तन्त्री के तार लिए।।१।।

समता-क्षमता के अब्धि आप, ममता-करूणा के आगर थे।
सेवा वल्ली के हे प्रसून!, तुम भारत राष्ट्र उजागर थे।।
भारत स्वाधीन कराने को, अपने उर में उद्गार लिए।।।२।।

अब कौन कहे नादानों की, काली करतूतों कें फल को।
बलिदानी बापू तुम को भी जो मार, किया पूरे छल को।।
पर जीवित हो तुम यशः काय, तुम मृत्यु का उपहार लिए।।।३।।

हे तेजपुंज हे यशोधाम !, हे भारत की शोभा ललाम।
तव जन्म पुनः हो भारत में, करता ‘हरि’ तुमको शत प्रणाम।।
तुम आये सत्य- अहिंसा का, जन-मोहन मंत्र प्रसार लिए।।।४।।
शहीद-स्मृति
मातृभूमि पर प्राण न्यौछावर करने वालों,
याद रहेगी युग-युग तक बलिदान-कहानी।
रक्त सींचकर बल-पौरूष से मरने वालों,
भूल सकेगा क्या स्वदेश, बलिदान-निशानी।।१।।

प्राण तजे अपनाया तुमने, अखिल देश को,
छोड़ चले घर-बार, बचाया मातृभूमि को।
राष्ट्र-प्रेम पर प्राण, न्यौछावर करने वालों,
युगों-युगों तक कभी न होगी, बात पुरानी।।२।।

तुम्हीं सिंह के बच्चे, सच्चे वीर तुम्हीं थे,
भीमार्जुन थे वीर, शिवा प्रणवीर तुम्हीं थे।
तुम भारत-सन्तान, आन पर मरने वालों,
समर-ज्वाल में डाल जवानी रक्खा पानी।।३।।

हे शहीद! तुम मरे नहीं, ‘हरि‘ अमर बने हो,
देश-प्रेम में बलि-बलि होकर भ्रमर बने हो।
राष्ट्र-धर्म पर प्राण समर्पण करने वालो,
याद रहेगी बलिदानों की अमर-कहानी।।४।।
तिरंगा
तिरंगा सदा मुस्कुराता रहेगा।
‘‘भुवं मातरं वंदे’’ गाता रहेगा।।
सुनाता रहा यह दुखों की कहानी।
बहाता रहा यह युगों अश्रुपानी।।
पुनः मिल गई है इसे जिंदगानी,
तरंगे हवा में उठाता रहगा ।।।१
प्रफुल्लित गगन है इसे अंक भरकर।
सुविकसित धरा है इसे शीश धर कर।।
ये भारत का प्यारा नया चाँद-सा है,
चकोरे वतन को रिझाता रहेगा ।।।२
शहीदों की स्मृतियाँ दिलाता है हमको।
पराधीनता से बचाता है हमको।।
प्रफुल्लित किये है हमारे चमन को,
हमें चक्र-चंदा दिखाता रहेगा ।।।३
तपः पूत ऋषियों की दृढ़ साधना को।
तथा नृपगणों की सुयश कामना को।।
छबीली धरा की ‘हरि’ भावना को,
जगाता रहा है जगाता रहेगा ।।।४
महर्षि दयानन्द थे इसके पुजारी।
भरे इसमें ‘‘श्रद्धा’’ ने नव प्राण भारी।।
गाँधी, जवाहर, सुभाष और शेखर,
की गाथा अमर है, सुनाता रहगा ।।।५

राष्ट्र-ध्वज
उच्च-शिखर पर रहे तिरंगा,
यह सबका अरमान है।
इसका बाल न बाँका होवे,
यह भारत की शान ह।।
इसमें व्याप्त चतुर्वेदों के,
तीन काण्ड का ज्ञान है।।१।।
चौथे आश्रम का प्रतीक है,
इसका प्यारा भगवा रंग।
हरित श्वेत है भारत-सुषमा,
नहीं कहीं से यह बदरंग।।
गंगा-यमुना-सरस्वती का,
यह संगम स्थान है।।२।।
भारत का हर बच्चा-बच्चा,
इसे देख हरषाता है।
भारत-माँ का प्राण-तिरंगा,
लहर-लहर लहराता है।।
बूढ़े-बच्चे और युवकों का,
इसमें तो गुणगान है।।३।।
इसे देखकर अमर शहीदों की,
स्मृतियाँ ही आती हैं।
बिस्मिल, शेखर, भगत सिंह के,
बलिदानों की थाती है।।
हिन्दू-मुस्लिम औ सिक्खों का,
यह तो हिन्दुस्तान है।।४।।
दयानंद के अरमानों को,
पूरित किया सुभाष ने।
सत्य, अहिंसा का व्रत लेकर,
गाँधी मोहनदास ने।।
सत्व, रजस औ तमस प्रकृति का,
इसमें बिम्ब-विधान है।।५।।
तिलक, गोखले तथा लाजपत,
इस पर ही बलिदान हुये।
देश स्वतन्त्र हुआ उनसे ही,
औ नूतन निर्माण हुये।।
चन्द्र-सूर्य में, नक्षत्रों में,
उनकी दीप्ति महान है।।६।।
दर्शनानन्द औ श्रद्धानंद ने,
गुरुकुल खोले इसीलिये।
फहराये गा यहाँ तिरंगा
अपनी बाँकी छवि लिये।।
‘हरि’ इसमें तो चमक रहा उन,
भक्तों का बलिदान है।।७।।
भारत-पाक-युद्ध
घूम-घूम-झूम-झूम, चले हैं विमान मेरे,
देश के जवान आज, चले पाकिस्तान को।
ध्वस्त शत्रु-सेना करि, पस्त याहिया को करि,
स्वाभिमान भरि ‘‘हरि’’, राखे निज आन को।।
ध्वंस जैसे कंस किया, मारा शिशुपाल जैसे,
मारा था ज्यों मुर जैसे राक्षस शैतान को।
वैसे ही ये कृष्ण बलराम जैसे वीर चले,
धीर चले ध्यान धर, वीर हनुमान को।।

जेट तोड़े नेट से औ टैंक तोप दाग तोड़े,
आग जारी जहाँ-तहाँ, चिता ज्यों श्मशान को।
भाग चले केते कहीं, साग लिए रोटी पर,
त्याग चले केते कहीं, अपने मकान को।।
घेर-घेर मारे जहाँ मिले वहीं म्लेच्छ जन,
पस्त किये हौंसले मिटाया रिपु-मान को।
मिटी युद्ध चाह ‘‘हरि’’, अब न करेंगे त्रुटि,
सीख गये आज वह, छेड़ हिन्दुस्तान को।।
किसान
ए भारत के श्रमिक किसान।
तुझ से प्राणित देश महान।।
गर्मी, सर्दी, वर्षा, आँधी, में भी करता नित श्रम दान।
ए भारत के श्रमिक किसान।।१।।
तेरे श्रम से ग्राम सुविकसित।
नगर तुझी पर हैं आधारित।।
अपना ध्यान न करके, करता प्रतिपल तू जन-जन का ध्यान।
ए भारत के श्रमिक किसान।।२।।
खेत तेरे जीवन की शक्ति।
यही तेरी संध्या औ भक्ति।।
कर्म-योग का तू साधक है, तेरा अनुपम मंच मचान।
ए भारत के श्रमिक किसान।।३।।
मृदु मिष्टान्न न तुझको भाया।
गुड़-चटनी से भोजन पाया।।
तृष्णा को ना बढ़ने देता, दूध-दही-मट्ठा-जल पान।
ए भारत के श्रमिक किसान।।४।।
तुझ को अपना पशुधन प्यारा।
करें वृषभ हल घर उजियारा।।
‘हरि’ तू अपने श्रम से करता, सस्य श्यामला भू का त्राण।
ए भारत के श्रमिक किसान।।५।।

गुरूवर नरदेव वेदतीर्थ
क्या कहें हे देव यतिवर, क्या कहें नरदेव यतिवर।
देव थे इस पुण्य-कुल में, हो गये स्वर्देव यतिवर।।

सत्य-संयम-शीलता की, मंजु मालाये लिए तुम,
क्रम से मनके जप रहे थे, पुण्य-कुल के भक्त यतिवर।।

त्याग के मानी धनी थे, आजन्म ब्रह्मचारी रहे थे,
लोकेषणा के हे पुजारी !, सत्य-पथ के पान्थ यतिवर।।

कुल के रक्षक देश-रक्षक, स्वाधीनता के थे पुजारी,
मान थे तुम इस धरा के, तीर्थ वेदों के यतिवर।।

छोड़कर गुरुकुल धरोहर, चल दिये अज्ञात पथ में,
इस नाव के थे तुम खिवैया, मध्य में छोड़ी गुरूवर।।

प्रेम था शुचि छात्रगण से, प्रेम था अध्यापकों से,
‘‘राव जी’’ का भक्त है ‘हरि’, दिव्य दर्शन दो गुरूवर।।
दिव्य-दिवाली
दीपक जलते बुझ जाने को।
यह जीवन है मिट जाने को।।
कुछ दिन तू भी चमक दिखा ले,
कहती यही सदा दीवाली।।।१।।

ब्रह्म-प्रदीप जलाने के हित।
शान्ति-संदेश सुनाने के हित।।
पान भक्ति-रस का करता मन,
तब मनती तेरी दीवाली।।।२।।

यम-नियमों के अनुपालन को।
जगदीश्वर के आराधन को।।
ज्ञान-गंग में स्नान करे जा,
तब ही तेरी है दीवाली।।।३।।

तन-मन में समता लाने को।
वेधा से मेधा पाने को।।
परहित में जीवनयापन कर,
तब ही तेरी है दिवाली।।।४।।
निराली दिवाली
ये आयी शरद में, निराली दिवाली।
किसी घर उजाला, किसी घर उजाली।।

किसी के चमन में सुमन खिल रहे हैं।
कहीं जीर्ण जर्जर से तन हिल रहे हैं।।
खड़ा कोई ऐसे में दर पर सिसकता,
बदन भी है नंगा तथा पेट खाली।।।

अमीरी गरीबी के सिर पर चढ़ी है।
अमीरों का क्या उनको अपनी पड़ी है।।
किसी की चमक से चकाचौंध कोई,
कि निर्धन को लगती अमा आज काली।।।

इमारत बुलन्द हैं गरीबों के सिर पर।
पै उनके नसीबों में हैं उनके छप्पर।।
कहें तो कहें आज वे किससे जाकर,
करें जो शिकायत ‘हरि’ वह निराली।।।
वेदना
किसी का भला क्या, बुरा कर रहा हूँ।
गरल पी चुका हूँ, गरल पी रहा हूँ।।

किसी को रूलाना बुरा तो है लेकिन,
किसी को हँसाना बुरा क्या है, लेकिन-
हँसा ही रहा हूँ स्वयं को रूलाकर,
कि जख्मों पे अपने, नमक मल रहा हूँ।।१।।

दृगों के कणों से विजन-वन की दावा,
बुझाना ही मुझको भला लग रहा है।
कि श्वासों के झोंको से सूखे समन्दर,
ये प्रयास अपना, सफल कर रहा हूँ।।२।।

चला जा रहा हूँ विषम वक्र-पथ पर,
हवाओं की टक्कर सहन कर रहा हूँ।
तपन पड़ रही है मुसाफिर के सिर पर,
जलन से जलन को शमन कर रहा हूँ।।३।।

तिरस्कार कितने सहे जा चुके हैं।
प्रतिकार कितने किये जा चुके हैं।।
किया जा चुका है हृदय को भी पत्थर,
‘‘हरि’‘ वेदनाएँ सहन कर रहा हूँ।।४।।

दुखों में भी खुशियाँ मनाता रहा हूँ
दुखों से ही नाता, बढ़ाता रहा हूँ।
दुखों में भी खुशियाँ, मनाता रहा हूँ।।

अभावों की दुनिया मेरे पास में है,
अभावों में जीवन, बिताता रहा हूँ।
गमों को ही मैंने, दिये हैं निमन्त्रण,
विपद को गले से, लगाता रहा हूँ।।१।।

गरीबों की दुनिया में मैं बस रहा हूँ।
उन्ही की मुहब्बत में मैं फँस रहा हूँ।।
अमीरों की मुझको नहीं कुछ जरूरत,
गरीबों के मैं पास, जाता रहा हूँ।।२।।

तिरस्कार मुझको मिले हैं हमेशा,
पुरस्कार मुझसे बिचलते रहे हैं।
गमों का सदा जाल बिछता ही देखा,
मुसीबत को अपना, बनाता रहा हूँ।।३।।

ये जीवन की नैया तो मझधार में है।
खिवैया न कोई भी पतवार पे है।।
‘‘हरि’’ तेरे बल पर बही जा रही है,
कि साहिल से मैं, लौ लगाता रहा हूँ।।४।।
मधुमास
मधुमास विकास हुआ वन में।
हरियाली छायी आँगन में।।
कहीं चातक चाह करे प्रिय से।
कहीं कोकिल कूक भरे हिय से।।
कहीं कंज में भौर अटकता है।
कलियों में शीश पटकता है।।
घनघोर में मोर प्रभावित हो,
कहीं कूजा करे वन-कानन में।।
कुछ हंस सरोवर पास फिरें।
सुन्दर सारस रस हास करें।।
हरिणों की डार निराली है।
विहगावलि पीली काली है।।
ये किंशुक शुक-सम कुसुमों से,
भ्रम डाल रहे सबके मन में।।
सरसों ने पीला पुष्प-पटल,
बाँधा है अपनी वेणी से।
चितवन वाली कुसुमालि ने।
कज्जल सारा अलि श्रेणी से।।
घनश्याम उमड़के बरसने लगे,
छाई हैं घटाएँ सावन में।।
सूखी शाखा लहराने लगी।
नैराश्य में आश जगाने लगी।।
लतिका जो हताश पड़ी हुई थी,
वह फूलों की माल सजाने लगी।।

है उमंग चतुर्दिक छाई हुई,
घर-बार में बाग तड़ागन में।।

अनंग के संग बसन्त रहे।
बसन्त के संग अनंग रहे।।
फिरता है अनंग पिनाक कसे।
औ बसन्त फिरे निज बाण गहे।।

निरीहों को मारने को, मृगया-
‘‘हरि’’ खेल रहे वन-उपवन में।।
वासन्ती-वैभव
वसन्ती आ रही देखो, सुनाने राग जीवन का।
जिधर देखो वसन्ती का, छबीला-सा वसन चमका।।
कहीं कोकिल सुना जाती, सुरीली तान में गाना।
कहीं कुसुमों की चितवन में, हुआ भौरा भी मस्ताना।।
कहीं तृष्णा में भूला-सा, रटे चातक प्रिय आना।।।
लगाये पाँच अवगुण्ठन, मगर उसका वदन चमका।।।१।।।

किसी पतझर की डाली ने, सुनाया नित्य का रोना।
पुरातन-पत्र के आँसू, बनाना और ढुलकाना।।
कभी फिर होगा क्या मुझको, मेरे जीवन में मुस्काना।।।
कि इतने में किसी वरदा का, हँसता-सा वदन चमका।।।२।।।

कमल के सर हैं चमकीलें, कहीं सरसों के वन पीले।
पसारे पंख पक्षीगण, उड़ें आकाश में नीले।।
भ्रमर भी कर रहे गुंजन, हुए मकरन्द से गीले।।।
कि हंसो की मुखर माला से उसका, मृदु हसन चमका।।।३।।।

कहीं जूही, कनेरी, खिल उठीं, कचनार झरबेरी।
कुसुम-धन्वा के बाणों से, व्रणों ने काय क्यों घेरी।।
पपीहा प्यास से व्याकुल, जलद ने क्यों करी देरी।।।
लगे उपचार में भौरे, मगर व्रण हो सघन चमका।।।४।।।

‘‘हरि’’ उत्सव रचाया क्या, धरित्री पर पुरन्दर ने।
या महफिल जोड़ ली आकर, दुबारा भी सिकन्दर ने।।
तरंगों को उठाकर के, प्रशंसा की समन्दर ने ।।।
कि जिसको देखने प्रणयी, जनों का संगठन चमका॥५॥
सुमन
विकसित सुरभित सुन्दर तन,
पा लिया सुमन उपवन में।
शोभित भासित यौवन-धन,
पाया उद्यान-सदन में।।१।।

वय अल्प मुदित जीवन से,
सुरभित करते जन-जन को।
नयनों की प्यास बुझाते,
पुलकित करते हर मन को।।२।।

झँझा के झोखे तुमको,
झकझोर चले जाते हैं।
श्यामल-बादल गर्जन में,
कर शोर चले जाते हैं।।३।।

मधुलोभी मधुप लुटेरे,
पीते जाते रस तेरा।
तितलियाँ सुमन तव मुख का,
डाले रहतीं नित घेरा।।४।।
तुम अपने को अर्पित कर,
मनुजों का मान बढ़ाते।
जाते-जाते भी तुम तो,
मानव की शान बढ़ाते।।५।।
रे सुमन तुम्हारे जीवन-
की यह अमिट कहानी।
खिलवाड़ करे जो तुमसे,
‘‘हरि’’ करता वह नादानी।।६।।
फूल और शूल
जिन फूलों को मैं चाहता हूँ,
फूल बडे चमकीले हैं।
पर उनमें तो गन्ध नहीं है,
यों ही रंग-रंगीले हैं।।१।।

अरे हठीले भ्रमर न जाना,
व्यर्थ उन्हें तू नहीं सताना।
उनमें भरा पराग नहीं है,
ओस-कणों से गीले हैं।।२।।

शूल भले हैं उन फूलों से,
पैरों के नीचे आते ।
नहीं सताते बिना सताये,
स्वत्व सहित गर्वीले हैं।।३।।

सुमन न कहना उन फूलों को,
मनसिज के जो बाण बने हैं।
त्राण नहीं ‘‘हरि’’ उनसे कुछ भी,
हृदय-विदारक कीलें हैं।।४।।
माली
वन-उपवन में तर्वाली पर,
कूक रही कोयल काली।
श्यामल-बाल के गर्जन में,
चमक रही विद्युत-लाली।।१।।

चम्पा, जूही, चमेली, बेला,
सूर्यमूखी औ बकुलाली।
विकसित-सुरभित-सुधा-समन्वित,
उपवन की डाली-डाली।।२।।

कुसुम-कदम्ब पर श्याम सटा-सी,
शोभित गुंजित भ्रमराली।
नभस मास उद्यान डाल पर,
झूला झूल रही आली।।३।।

ओट लिए झीने वारिद की,
झाँक रहा अंशुमाली।
‘‘हरि’’बगिया को निरख-निखकर,
मन-मन मुस्काता माली।।४॥
प्रेम-पन्थ
पतंग जल रहा है, शमा चुप खड़ी है।
सजा प्रीति की तो, बहुत ही कड़ी है।।
चला जो पथिक भी, मुहब्बत की मंजिल।
रुदन से हुई उसकी, आँखें भी धूमिल।।१।।

फँसी जाल में जब, सरोवर की मछली।
तो निष्ठुर हो जल ने भी दृष्टि बदल ली।
यही न्याय है जग का, प्रेमी के संग में।
सुलगती विरह-ज्वाला हो उसके अंग में।।२।।

तुझे चाँद पाने को, फिरती चकोरी।
मगर दूर बैठा करे तू छिछोरी।।
नहीं लाज तुझको बहाता गरल को।
चखे तेरा प्रेमी भले ही अनल को।।३।।

बहुत कह चुके अब, कहाँ तक सुनाये।
ये तोते चशम जग कहाँ तक बतायें।।
मगर ऐसी प्रीति जो विरहों से खाली।
न उसमें मजा ‘‘हरि’’, न वह कुछ निराली।।४।।

प्रणयी से
ये मेरी विनय थी मुझे मत सताना।
मगर तुम हमेशा सताते रहे हो।।
प्रणय के अनल में झूलसते हुए को,
विरह की अनल से जलाते रहे हो।।।१।।।

मुझे क्या पता था सदयता तुम्हारी।
दया-पात्र जो बन सका ना भिखारी।।
आशा थी दिल पर चलाओगे खंजर,
मगर दूर से तुम डराते रहे हो।।।२।।।

हँसाते कभी हो रूलाते कभी हो।
न अपने निकट तुम बुलाते कभी हो।।
ये थोड़ी दया है शलभ के लिए क्या,
शिखा की जलन से बचाते रहे हो।।।३।।।

तजा मान ‘हरि’ ने ग्रहण की तपस्या।
न आशा तजी औ न छोड़ी समस्या।।
मैं समझा कि तड़पाना है क्या तुम्हारा,
विरह से मिलन को घटाते रहे हो।।।४।।।
प्रणय-चित्र
चतुर चितेरा बैठ गया है,
सदय प्रणय का चित्र बनाने।।

ऊपर वारिद भी नीला है।
समय पड़े पर प्रचुर मिला है।।
नील-पटल पर सतत सजेगा,
चमक-चमक कर लगा रिझाने ।।।१।।।

रोम-राजि की लता बनी है,
चंचल-नयन-कुसुम विकसे है।।
श्रवण-पुटों के लता-पत्र से,
बने चित्र को लगे सजाने ।।।२।।।

प्रेम-पात्र में मोह-मसी है।
विरह पाण्डुता पीत लसी है।।
उन्मन-मन की कूंची लेकर,
बैठ गया वह चित्र बनाने ।।।३।।।

कल-कल नाद हृदय से होता,
दो नयनों से निर्झर झरता।
लता मूल में बहता-बहता,
बने चित्र को लगा धुलाने ।।।४।।।

तुंग नासिका मलयानिल-सी।
छोड़ रही है उष्ण-उष्ण-सी।।
सौरभ ले ‘‘हरि’’ नयन-कमल की,
धुले चित्र को लगी सुखाने ।।।५।।।

चाँद तुम क्यों दूर जाते
चाँद तुम क्यों दूर जाते और छिप-छिप झाँक जाते।
निज दरस से ही हमेशा तुम हमें हरदम रिझाते।।

तुम न समझो तुम सदा यों ही रहोगे चमचमाते।
रूप पर अपने रहोगे इस तरह से जगमगाते।।
उस दिवस को याद कर लो, जब तुम्हारी सब चमक-
लीन हो जाती गगन में और दर्शन तक न पाते।।।

व्योम में छिपना-चमकना हास है निर्मल तुम्हारा।
अँँख-मिचौनी खेल में संसार तुमसे आज हारा।।
इन चकोरों से जरा तो पूछ लो कि दर्द क्या है-
क्या दवा है जिस दवा को खोजते दिन रात जाते।।।

तव किरण की कोर का इक तीर-सा चुभता हृदय में।
या सुनहली डोर छोड़ी बाँधने मुझको प्रणय में।।
चाँद तेरे दर्श पाने को ‘हरि’ निशिदिन भटकता-
तुम हमें परखा करो पर हम तुम्हें ना जान पाते।।।
एक पक्षीय प्रीति
प्रणय के पतंगे जरा देख लेना।
तुझे याद करती शमा क्या कभी है।।
तू करता रहे दान जीवन अनोखा,
मुहब्बत ये तेरी कहाँ तक भली है।।।

मुहब्बत में क्यों तू मिटा जा रहा है।
न चातक भी कण स्वाति का पा रहा है।।
चकोरों से पूछो वे क्या खा रहे हैं,
मिला जो न चन्दा, अनल ही चखी है।।।

पतंगे न परवाह तू कर रहा है।
कि जाँ दे रहा है, मिटा जा रहा है।।
दुतरफा मुहब्बत तो जग ने बताई,
मुहब्बत न ये एक तरफा भली है।।।
तो मैं क्या करूँ
सखे ! तुम न मानों तो मैं क्या करूँ।

प्यार में चश्म खोये समय खो दिया।
याद ने जब सताया हृदय रो दिया।।
कौन-सी बात पर रूठते तुम रहे।
जान मैं भी गया जान तुम भी गये।।
चितवनों चितवनों बात चलती रही,
जान कर तुम न जानों तो मैं क्या करूँ।।१।।

दिल दुखाने में तुमको मजा आ गया।
इस कसौटी में कसकर हमारा हिया।।
चूर्ण कर डाला ना जाने फिर भी कहाँ।
वह छिपा प्यार उसमें सिसकता रहा।।
यह परख पर परख औ तुरफ पर तुरफ,
तुम चलाकर न मानों तो मैं क्या करूँ।।२।।

दूर जाते हो तुम हम बुलाते रहे।
रूठ जाते हो तुम हम मनाते रहे।।
है तुम्हें क्या गरज पास आना पडे।
प्रीति से प्रीति भी जो न मिलकर रहे।।
यह घुटन में घुटन और चुभन में चुभन,
दर्द दे कर न जानों तो मैं क्या करूँ।।३।।

दूर जाने में भी इक बड़ा राज है।
न कोई हमारा भी हमराज है।।
तुम ने जाना नहीं मैं अकेला हुआ।
पास आये न तुम तो मैं विह्वल बना।।
इस सिहरने विहरने के अभिसार को,
जान कर तुम न जानों तो मैं क्या करूँ।।४।।

मैं
तुम बताते खार हूँ मैं।।

तुम कुसुम चितवन अगर हो
तो भ्रमर गुँजार हूँ मैं।
तुम अगर हो मंजु-वीणा,
तो उसी का तार हूँ मैं।।१।।

कमल-कोमल इन दृगों से,
छोड़ते हो तीर जब तुम।
कुसुम-धन्वा के धनुष की,
तो बना टंकार हूँ मैं।।२।।

वदन की उपमा नहीं है,
चाँद ही उसको बनाया।
सुधाकर की सुधा वाली,
दीप्ति की चिंगार हूँ मैं।।३।।

रतिपति के रथ-सदृश ही,
तव तनू यों भासता है।
हाँकने को रथ ‘‘हरि’’,
सारथि-संचार हूँ मैं।।४।।

चि० संदीप के प्रति
दीप जलते रहो तम घटाते रहो।
तेज अपना रवि सम बढ़ाते रहो।।
दम्भ की आंधियों सें न बुझना कभी
पुष्प हो कण्टकों सम न चुभना कभी।
दीप ज्वाला में भी स्नेह बढ़ता रहे।
स्नेह वितरण से स्नेहिल बनाते रहो।।
रोशनी दीप की कम न होवे कभी
दीपवर्ती यशोवर्ती होवे सभी
दीप से दीप जलते रहें सर्वदा
दीप माला मने विश्व में फिर सदा
झूठ की कालिमायें न आयें कभी
सत्य के मार्ग को जगमगाते रहो।
दीप संदीप तम को हटाते रहो।
शुभाशीष हरि का ये पाते रहो।।
आचार्य हरिसिंह त्यागी
एम०ए०, साहित्याचार्य
पूर्व प्रधानाचार्य गुरूकुल महाविद्यालय, ज्वालापुर (हरिद्वार)

Wednesday, March 25, 2009

हे ईश !




हे ईश!तेरी याद में सब कुछ भुला दिया।
महिमा ने तेरी मनसुमन मेरा खिला दिया॥

पाने को तुझको उम्र भर ढूंढा कहाँ नहीं।
रहता तू जर्रे जर्रे में फिर क्यों मिला नहीं।।
बस लेके नाम ही तेरा जीवन बिता दिया.......


तूफान आँधी में सदा ’संदीप‘ ये जला ।
बीहड़ अँधेरी राह में हरदम है ये चला ॥
पाने को तेरा आसरा खुद को मिटा दिया.....

Monday, March 23, 2009

शहीदे आज़म प्रणेता आचार्य पं.हरिसिंहत्यागी

शहीद-स्मृति:

मातृभूमि पर प्राण न्यौछावर करने वालों,
याद रहेगी युग-युग तक बलिदान-कहानी।
रक्त सींचकर बल-पौरूष से मरने वालों,
भूल सकेगा क्या स्वदेश, बलिदान-निशानी।।१।।

प्राण तजे अपनाया तुमने, अखिल देश को,
छोड़ चले घर-बार, बचाया मातृभूमि को।
राष्ट्र-प्रेम पर प्राण, न्यौछावर करने वालों,
युगों-युगों तक कभी न होगी, बात पुरानी।।२।।

तुम्हीं सिंह के बच्चे, सच्चे वीर तुम्हीं थे,
भीमार्जुन थे वीर, शिवा प्रणवीर तुम्हीं थे।
तुम भारत-सन्तान, आन पर मरने वालों,
समर-ज्वाल में डाल जवानी रक्खा पानी।।३।।

हे शहीद! तुम मरे नहीं, ‘हरि‘ अमर बने हो,
देश-प्रेम में बलि-बलि होकर भ्रमर बने हो।
राष्ट्र-धर्म पर प्राण समर्पण करने वालो,
याद रहेगी बलिदानों की अमर-कहानी।।४।।

Saturday, March 21, 2009

"वेदना" प्रणेता: आचार्य पं.हरिसिंह त्यागी

फोटो पर क्लिक करें!

किसी का भला क्या, बुरा कर रहा हूँ।
गरल पी चुका हूँ, गरल पी रहा हूँ।।

किसी को रूलाना बुरा तो है लेकिन,
किसी को हँसाना बुरा क्या है, लेकिन-
हँसा ही रहा हूँ स्वयं को रूलाकर,
कि जख्मों पे अपने, नमक मल रहा हूँ।।१।।

दृगों के कणों से विजन-वन की दावा,
बुझाना ही मुझको भला लग रहा है।
कि श्वासों के झोंको से सूखे समन्दर,
ये प्रयास अपना, सफल कर रहा हूँ।।२।।

चला जा रहा हूँ विषम वक्र-पथ पर,
हवाओं की टक्कर सहन कर रहा हूँ।
तपन पड़ रही है मुसाफिर के सिर पर,
जलन से जलन को शमन कर रहा हूँ।।३।।

तिरस्कार कितने सहे जा चुके हैं।
प्रतिकार कितने किये जा चुके हैं।।
किया जा चुका है हृदय को भी पत्थर,
‘‘हरि’‘ वेदनाएँ सहन कर रहा हूँ।।४।।

Wednesday, March 18, 2009

रावण:प्रतिनारायण क्रांतिकारी महाकविता

रावणः प्रतिनारायण
प्रणेता-डॉ सत्यव्रत शर्मा"अजेय"

अगम अगोचर ‘‘अजेय’’ अध्यक्षर जो
उज्ज्वल-उदन्त, उदीरित त्रिभुवन में
मनोरमा वह मणि-मुकुट- विमण्डिता
शारदा असार में भी सार भर देती है।
बुद्धि का प्रसार कर देती है सृजन में
हो के जुष्ट-तुष्ट, पुष्ट करती अपुष्ट को
‘‘सूर’’ को भी दिव्य दृष्टि करती प्रदान है
जिसको भी चाहती है उसको ही पल में
उग्र, ब्रह्म, ऋषि औ सुमेधा बना देती है
किसी को बनाती व्यास, भास, रस-खान है
ऐसी मया-ममता की मूर्ति हंस-वाहिनी,
वाक ब्रह्मरूपिणी को शतशः प्रणाम हैं।

ब्रह्मा के मानसपुत्र पण्डित पुलस्त्य का -
पौत्र, तथा सुविदित वैदिक विचारवान्
विश्रवा का पुत्र, विश्व-विश्रुत विशिष्ट विज्ञ
वेद-शास्त्र ज्ञाता वह परम कुलीन आर्य
ब्रह्म वंश-अवतंस रावण महान था।
विश्रवा की विधिवत् परिणीता, दैत्य-कन्या-
कैकसी की कोख से लिया था जन्म उसने,
अतः निज जाति से पृथक किया उसको
सर्व बन्धु-बान्धवों के साथ, दम्भी द्विजों ने
बिना सोचे समझे कि - ‘‘अंकुर के जन्म में-
बीज की ही प्रधानता होती, न कि क्षेत्र की,
सन्तति के कुल-गोत्र-जाति-विनिश्चय में
मातृ-कुल नही, पितृ-कुल देखा जाता है।
सह न सका था वह घोर अपमान यह
तड़प उठा था व्रणी फणी मणिधर सा,
फलतः तिरस्कृत हो बनना पड़ा था उसे
घोर प्रतिक्रियावादी कुटिल कुलिश सा।
श्रेष्ठ पुरूषों के वह निरख निकृष्ट कर्म

करता था अट्टहास-‘‘हाऽहा हा।’’सतत ही,
निज को जो वीर-धीर मानते थे, उनकी -
गर्जना से तर्जना से करता था वर्जना
इसी लिए वह मानी ‘‘रावण’’ कहाता था।
विधिवत् वह ‘‘वेद विद्याव्रतस्नात’’ था
राजनीति-निपुण, सकल कला-निधि था
चारों वेद, षट् शास्त्र कण्ठस्थ थे उसको
जिससे कि ‘‘दशानन’’ पद उसे प्राप्त था
बढ़ गया इस भांति वह ‘‘चतुरानन’’ से
पूजनीय ‘‘पंचानन’’ और ‘‘षडानन’’से
जिस भांति गुरु से भी गुरु पटु वटु हो,
वट से बृहत् वट-बीज का वितान हो,
उसके समान अद्यावधि वेद-विद्या से-
विद्योतित अनवद्य हुआ नहीं विश्व में
रावण था नाम उस वीर स्वाभिमानी का
चलने से जिसके दहलती यों धरणि-
हस्ति-पग से ज्यों डगमग होती तरणि।
रावण का घोर रौर सुन कर सहसा
विवुध-वधूटियों के गर्भ गिर जाते थे
देखते ही उसकी भृकुटि वक्र, शक्र तक
मेरुगिरि-कन्दरा के अन्दर समाते थे।
स्वीय सिर-सुमन से शिव-समाराधना
कर, हर-गिरि को जो कर पै उठाता था
सालता था कंठ वह दशों दिगपालों के
ध्रुव धैर्यधारी शौर्य-सुयश-शलाका से।

कनक-छरी सी मंदोदरी मय-तनुजा
ललित ललामा वामा सुन्दरी सुरसिका
रावण की रानी मनभावन मनोज्ञ थी,
जिसके समक्ष पानी भरती थी शची भी
जीतने को उस कामिनी के केश-पाश की-
कृष्णता को, जब घन अन्धकार बढ़ता
उदित हो मुख-साम्य-अभिलाषी चन्द्रमा
उसे कर-निकर से करता निरस्त था।
शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ, तारकों में सूर्य सा,

वह दिव्य अस्त्रों का प्रयोक्ता, महायोधा था,
कितनी ही बार झेला उसने स्व वक्ष पै
महा वज्र शक्र का, औ वक्र चक्र विष्णुका,
किन्तु हुआ नहीं कभी क्षुब्ध वह अब्धि सा।
इन्द्र आदि देवता परास्त कर उसने
‘‘अमरावती’’ की अमरों से रिक्त बहुधा,
‘‘नन्दन’’ को ‘‘नन्द न’’ बनाया कई बार था,
इसी भांति जा कर पाताल में भी उसने
‘‘भोगवती’’ भोग-नगरीका भोगा भोग था,
‘‘अलका’’ पै करके चढ़ाई यक्षराज से
‘‘पुष्पक’’ विमान किया उसने ग्रहण था।
वह दृप्त-निग्रहीता ‘‘सतत युयुत्सु’’ था,
कपट-कुकर्म-कर्त्तृ-हन्ता ‘‘शत्रुहन्ता’’ था,
कांपती थी उसके प्रताप से प्रकृति भी,
ताप तज देता सूर्य उसके समक्ष था।
देख उसे रुक जाती मरुत की गति थी,
अगवानी करते थे वृक्ष पुष्प-वृष्टि से,

स्वागत में झुक जाते प्रखर शिखर थे,
गर्जन औ तर्जन रहित, नत, पनभरे,
छिड़काव करते थे पयोधर पथ में।
इस भांति उस यशोधन के सुयश ने,
चन्द्रमौलि-भाल पर विलसित गंगा को
अनायास लांघ कर,
दिशा-वधुओं के शशी-मुख को पखारा था।
मूलतः निवासी वह
विद्यमाना आस-पास अचल कैलास के
दर्शनीय दिव्य देवभूमि त्रिविष्टप का।
जीत कर उसने विमातृज कुबेर को
अपहृत उससे की लंक स्वर्ण-सन्निभा
भारत के दक्षिण में जो कि वर्तमान थी
सिन्धु-मध्य अगम त्रिकूट पर शोभिता
दिव्य दीपमालिका से जिसमें दमकते
कनक रचित मणि-खचित भवन थे।
त्रिपुर में अनुपम पुरी वह सर्वथा

उसके ‘‘अजेय’’ कार्य-कलापों की कौमुदी।
परखा है मैंने उसे बुद्धि से, विवेक से,
पूर्वग्रह-मुक्त हो विलोका शुद्ध भाव से,
अतः इस रचना में रावण-प्रशस्ति जो
निकष पै कसी वह रेखा है सुवर्ण की।
भक्त था सशक्त वह शिव स्मरच्छिद का,
पुरच्छिद, भवच्छिद और मखच्छिद का,
जिनकी जटाओं में धवल धार गंग की
हो कर तरंगित सदैव अनुषंग है,
गल में विराजती भुजंग-तुंग मालिका,
धक धक धधकती ज्वाल-माल भाल पै,
ध्वनित दिगन्त कर मधुर मृदंग की-
धिम धिम धिमिम धिमिम धिम ध्वनि से,
संग संग कर सुनिनादित उमंग से
डम डम डिमिक डिमिक डिम डमरू
करते जो नटराज ताण्डव प्रचण्ड हैं।

आकर तरंग में कदापि रस-रंग की,
द्रव में कदम्ब-पुष्प-कुंकुम के द्रव से
करते प्रलिप्त जो कि दिग्-वधू-मुख को,
उनकी ही स्तुति सदा स्वरचित स्तोत्र से
करता था दशानन श्रद्धा और भक्ति से
परम अहम्‍वादी
शम्भु के समक्ष भी न करता था याचना,
कामना थी उसको न वैभव की, सुख की
धन की न, धाम की न, यश की न नाम की।
अतिरिक्त भक्ति के न चाहता था कुछ भी,
स्वयमेव ‘‘जय’’ था अभय था, न उसको-
काल का भी भय था कृपा से महाकाल की।
जनक ने जानकी का स्वयम्वर रचाया
जिसमें बुलाये सब राज-राजेश्वर थे,
रावण भी पाकर निमन्त्रण गया था वहां
पै विदेह-प्रण सुन डूबा था विचार में-
‘‘यद्यपि उठाया मैंने निज भुज-दण्ड से

गिरिजेश-गिरि गेंद सम खेल-खेल में
तो भी सीता-पाणि-ग्रहणार्थ इष्टदेव के -
धनुष को तोड़ना अभीष्ट नहीं मुझको।’’
‘‘लालसा थी हृदय में लगी युग-युग से-
सीता के सुरूप-सिन्धु का मैं मीन बनता।
महनीय शिव-धनु-भंग-प्रण छोड़ कर
यदि मिथिलेश कोई अन्य प्रण करते
सत्य कहता हूँ पूर्ण कर देता उसे मैं
अमृत सहस्रफन से निचोड़ लाता मैं
फोड़ देता धराधर गदा के प्रहार से
तारे आसमान के तुरन्त तोड़ लाता मैं।
मान रखने को किन्तु काम-रिपु-धनु का
त्यागता हूँ अपनी प्रकाम काम-कामना।‘‘
कर यह निश्चय निवर्तमान हो गया
लंकपति निमि-नगरी से निज नगरी
रखकर ध्यान आन-बान कुल-कानि का
लौट जाती जिस भाँति लहर किनारे से।’’

कदाचन एकदा
दण्डक-अरण्य में अरुण मदिरेक्षणा
तरुणी सुकेशी करभोरू कामरूपिणी
शूर्पणखा मोहित हुई थी चन्द्रकान्त सी
चन्द्रनिभ अति अभिराम रामचन्द्र पै,
या कि जैसे फूल पर लुब्ध होती तितली
मुग्ध होती अर्क-प्रभा या कि जैसे मेरु पै।
राम-अनुरूप रूप मान कर अपना
हाव-भाव कर परिदर्शित अनेकशः
स्वयमेव स्वयंवर-रीति-अनुसार ही
उसने विवाह का रखा था प्रस्ताव भी -
‘‘तुम सा पुरुष नहीं मुझ सी न नारी है
जोड़ी मानों विधि ने हमारी ये सँवारी है।’’
तब शील-रक्षण, विचक्षण, महाबली,
सत्य-रत, सत्यव्रत, सत्यसंध राम ने
निज को विवाहित बताया पै असत्य कहा-
‘‘अहहि कुमार मोर लघु भ्राता ‘‘सुमुखि !
इसको ही वरो वरानने ! मृगलोचने !’’

लक्ष्मण के द्वारा उपहास करा उसका,
राघव ने नाम ऊँचा किया रघु-कुल का !
इतना ही नहीं उस पुरुष-ऋषभ ने
श्रुति छू के और नाक पर रख अंगुली
इंगित से, लक्ष्मण यती के कर-कंज से
हन्त हा ! कराई नाक-कान से रहित थी
वह प्रेमाकुला कुल-शील-रूप-गर्विता,
अंग-अंग जिसके अनंग की तरंग थी।
शूर्पणखा चीख पड़ी वेदना से, क्षोभ से-
हाय राम ! आपने अनर्थ कर डाला है,
कहां गया वह राम अन्दर का आपके,
घट-घट में है व्याप्त जो कि प्रति प्राणी के !
सच है ‘‘विनाश काले विपरीत बुद्धि हो।’’
संयत न रह सके यतिवर ! तुम भी
समझ न पाये नारी-जाति के हृदय को
मान लिया मुझे बस कुलटा कुपथगा।
यदि तुम चाहते तो सत् उपदेश से

असत् विचार मम, सत् में बदलते,
शोधन से बना देता जैसे सुधोपम ही-
विष को भी वैद्यवर्य सधे हुये हाथ से।
माना, मैं न ‘‘भगवती’’ बनने के योग्य थी
पर मुझे ‘‘भगिनी’’ तो कह कर देखते,
इस शब्द से ही मिट जाती मेरी वासना
बुझ जाती जिस भांति वह्वि वारि-धार से।
अन्तः मुखी कर देती मैं तो मनसिज को
खिन्नता से, ग्लानि से, हया से, अनुताप से,
भक्ति में बदल देती कलुषित काम को
रावण समान तुम्हें निज बन्धु मानती
टल जाती स्यात् भय-प्रद भवितव्यता !
बाल-बृद्ध-अबला पै हाथ जो उठाता है,
वह बलवान नहीं बल्कि बलहीन है,
गर्व ने तुम्हारा ज्ञान उसी भाँति मेटा है
लाज को मिटाता मद्यपान जिस भांति है।
व्यर्थ तप विद्या बिना विनय-विवेक के

विकृत ये व्यवहार बुध-वृन्द-निन्द्य है।
धिक बलाधिक ! बल अबला पै जतला,
तुमने चलाया क्षात्र-धर्म पै कुठार है,
मेरी नहीं, अपनी ही नाक काटी तुमने
राघव, दिखाया कर-लाघव जो मुझ पै
इससे ये रघुकुल हुआ लघुकुल है।
उनके चखोगे फल बोये विष-बीज जो
मेरी यह प्रार्थना पिनाक-पाणि प्रभु से -
‘‘पर लोक में न नाक-वास मिले तुमको।’’
यह कह शूर्पणखा लौट गई वन में
जहां पर रहते थे रक्ष निजपक्ष के
सुनकर उसकी दुहाई, सैन्य संग ले
रण खर-दूषण ने किया रघुपति से
फूँका तन्त्र-मन्त्र ऐसा मायापति राम ने
राम रूप कर दिया सभी यातुधानों का ,
एक दूसरे को राम समझ-समझ कर
एक दूसरे ने एक दूसरे को मारा था
फिर भगिनी की भयानक दशा देख कर

और सुन कर खर-दूषण-मरण को,
क्रोध और बोध दोनों रावण के मन में
जगे एक साथ ही।
गुंजित दिगन्त कर बोला लंकपति यों -
‘‘आज्ञा बिना जिसकी न पत्ता तक हिलता,
सूर्य भी निकलता न, वायु भी न चलता
रहते हैं सुर-गण- जिसकी शरण में
उस जग-विरावण रावण के संग में
रण रोप कर कौन चाहता मरण है ?
कौन वह अविवेकी नीच नराधम है ?
जिसने कि तनिक न मेरी परवाह की,
भगिनी के अंग भंग कर संग-संग ही
मुझ दशानन का भी किया अपमान है।
कौन है जो खर स्वयमेव निज कंठ में
चाहता चुभोना तीक्ष्ण प्रखर त्रिशूल है।
कौन है जो सिंह- दन्त चाहता है गिनना,
बिना मौत मन्दबुद्धि चाहता है मरना।

‘‘राम में हुआ है व्यक्त या कि तेज विष्णु का
जिसने संहारे खर-दूषण पराक्रमी
चौदह सहस्र दैत्य-सैन्य सह सहसा
करता है दग्ध जैसे अग्नि तृण-राशि को।’’
‘‘यदि वह साधारण नर है तो रण में
रावण के हाथ से अवश्य मारा जायेगा,
नारायण का है यदि अंश तो सवंश ही
रावण उसी के हाथ भव तर जायगा।’’
मुझको चुकाना बैर किन्तु प्रतिदशा में
देनी है चुनौती उस दशरथ-सुत को
क्योंकि अपमान करना है अपराध तो
अपमान सहना भी घोर अपराध है।’’
‘‘जग-कल्पवृक्ष का मैं सुन्दर विहंग हूँ
चखता हूँ कामनानुसार फल इसके,’’
मेरे हाथ एक साथ सर्वथा समर्थ हैं -
कामिनी के कुच, करि-कुम्भ के दलन में।

वेद और शास्त्र का समस्त तत्त्व जानता
ब्रह्मविद्, ब्रह्मनिष्ठ, ब्रह्म हूँ मैं ब्रह्म हूँ,
काट नहीं सकता है मुझे शस्त्र कोई भी
अनल भी मुझको जलाने में अशक्त है
डुबो नहीं सकता है मुझको सलिल भी
झकझोर सकता न झंझा का झकोर है,
अभिमान नहीं, यह मेरा आत्मज्ञान है।
अपमान-सहन में सदा असहिष्णु मैं
वरुण-कुबेर-इन्द्र-विष्णु का भी जिष्णु मैं।
‘‘मान-अपमान को समान कैसे मान लूँ
विष और अमृत भी होते कहीं सम हैं ?
अपमान सह कर जीवित जो जग में
जीवित नहीं है वह मनुज मृतक है,
मान के समक्ष प्राण तुच्छ मान कर ही
मानी मान-धन पर प्राण वार देते हैं,
अतः ठेस लगने न दूँगा स्वाभिमान को।’’
‘‘बहिन की नाक काट, हन्त दाशरथी ने
क्षात्र-धर्म-विपरीत किया नीच कर्म है।

उसकी प्रतिष्ठा नष्ट करनी है मुझको,
बदला उतारना है घोर अपमान का।
उसके कुकर्म का चखाऊँ मजा ऐसा कि-
जिसको जीवन भर रखे याद वह भी।’’
‘‘उसने ही झगड़े का किया सूत्रपात है
अतः रक्त-पात-दोषी होगा वही न्यायतः,
अपराध होता न घटित कार्यवाही से
देखा जाता उसमें भी कर्तृ-भाव सर्वदा
पत्थर से दिया जाय ईंट का जवाब तो
अपराध नहीं वह मात्र प्रतिकार है।
यथायोग्य बरतना होता सदा श्रेष्ठ है
शठता का आचरण उचित है शठ से,
कायर के संग में सुहाती नहीं वीरता
साथ में निकृष्ट के निकृष्टता ही ठीक है।’’
यह सोचकर गया रावण स्वयान से
मारीच-सहित द्रुत, पंचवटी वन में।

स्वर्ण मृग-मारीच को लख कर जानकी
त्रिभुवन-सुन्दरी समस्त विश्व-मोहिनी
लुब्ध हुई बालिका सी, बोल उठी राम से-
इस स्वर्ण-हिरण का चर्म मुझे चाहिए।
‘‘सर्वथा स्ववश प्रतिबन्ध-मुक्त ब्रह्मस्पृहा
जाती जिस-जिस ओर, उस-उस ओर ही
विवश मनुज-मन करे अनुगमन है
करे अनुसरण ज्यों तृण समीरण का।
जानते हुए भी स्वर्ण-मृग नहीं होता है
लुब्ध राम दौड़े पीछे कंचन-हरिण के
बस इसी लिए अपहृत हुई जानकी
टाले नहीं टलती है कभी भवितव्यता।’’
राम ने त्वरित पीछा किया स्वर्ण-मृग का
लगते ही बाण वह बोला हाय लक्ष्मण !
भ्रम वश समझ पुकार उसे राम की
लखन भी भेजा वहीं हठ कर सीता ने
सीता-अपहरण का अवसर प्राप्त कर
करने विचार लगा दशग्रीव मन में-
‘‘डरता नहीं हूँ किसी विघ्न और बाधा से

डरता हूँ सदा किन्तु धर्म-मर्यादा से
घर में किसी के घुसना न न्यायोचित है
अतः नहीं उटज के अन्दर मैं घुसता’’
यह सोच अलख जगाई दशानन ने
पंचवटी स्थित राम-कुटिया के द्वार पे-
‘‘योगी तेरे द्वार पै खडा है देवि! भीख दे’’
भिक्षुक के तेज से प्रभावित हो सीता जी
लांघ सीमा-रेखा आई पास भिक्षु योगी के।
प्रकट हो, स्वाभिप्राय कहा दशकंठ ने-
‘‘अबला पै हाथ उठा राम अजवंशी ने
रावण के बल-वीर्य-शौर्य को चुनौती दी।’’
प्रतिकार-भावना से तुमको उठाता हूँ
कोई और कलुषित कामना न मेरी है
जानता हूँ, होता रण-कारण ही दर्श है-
चौथ-चन्द्रलेखा सी परस्त्री-भाल-पट्टी का,
रण का निमन्त्रण ही है ये मेरी ओर से।
युद्ध की पिपासा मिटा देगा रामचन्द्र की,
चन्द्रहास मेरा मणिकान्तिजित धार से।।’’

सीता भयभीता ने स्वगत कहा अग्नि से
तुमको शपथ देव ! मेरे पातिव्रत्य की
अत्रि-पत्नी अनुसूया और अरुन्धती की
छू न सके सिंहलेश मुझ ठगी मृगी को
अतः मुझे अपनी लपट में लपेट लो।
और कहा रावण से-‘‘सावधान, छूना मत
काम-वासना के कीट ! छुआ यदि मुझको
तो तू सत्-अनल में मेरे जल जायगा।’’
हँस कर रावण ने कहा-‘‘शान्त सुन्दरि !
देखो तुम्हें उठाकर यान में बिठाता हूँ
और दिखलाता हूँ मैं तुम्हे यह श्रेयसि !
सत से तुम्हारे, मेरा सत् अत्यधिक है।’’
भुज-व्याल-धृत की यों कह सीता मणि सी,
डाल उसे पुष्पक में चला नभ-मार्ग से।
राह में जटायु मिला वृद्ध वैज्ञानिक था
रावण का प्रतिपक्षी, पक्षी दाशरथी का
आह सुन जानकी की जानकर भेद सब

ललकारा रावण को उसने स्वयान से,
मरने को सिंह पर झपटे मतंग ज्यों।
रावण ने फेंक कर मारा ऐसा अस्त्र कि-
ध्वस्त हो के धरा पर गिरा यान उसका
विक्षत गतायु सा जटायु हुआ सहसा
तड़पा,तड़पता ज्यों पक्षी पंखहीन हो।
रोती हुई जानकी को साथ लिए, रावण ने
लंका में पहुंच कर कहा माल्यवान से-
‘‘सचिव ! चुकाया प्रतिकार है बहिन का
काट ली है नाक मैने सूर्यवंशी राम की,
बाधक बनूंगा नहीं किन्तु भूल कर भी
पितु-वच-पालन के व्रत में मैं उसके।’’
‘‘शक्ति-युक्त होने से समान वाक-अर्थ के
सर्वथा अभिन्न कहलाते जिस भांति है
अर्धचन्द्र-मौलि, अर्धकूट, अर्धनारीश्वर,
अर्धकेतु, अर्धकाल, मेरे इष्ट शिव जी,
इसी भांति सीता-राम-युग्म यह युक्त है,
रामचन्द्र चन्द्र है तो जानकी चकोरी है

राम-सहधर्मिणी है, राम-अर्ध-अंगिनी,
पतिव्रता, सती, साध्वी है विदेह-नन्दिनी,
स्नेह-हीन, विरह-विदग्ध दीप-शिखा सी
हन्त ! धूलि-धूसरित मन्दप्रभ मणि सी
दाशरथि-विटप से होकर वियुक्त जो
वल्लरी सी विगलिता वसुधा-विलुण्ठिता
कीलक से कीलित प्रभावहीन ऋचा सी।’’
चाहता हूँ तदपि, न कुण्ठिता हो मुझ से
चाहता हूँ धर्म सदा फूले-फले विश्व में
चाहता हूँ राम का न वन-वास भंग हो।
अत एव यह वन-वासिनी, अभागिनी
भवन में मेरे रखने के नहीं योग्य है,
रखता हूँ इसे मैं अशोक-वन-प्रान्त में
शोक जहां व्यापेगा न लोक-परलोक का
सर्वथा अशोक ही रहेगी यह वहां पै,
रक्षित रहेगी रक्ष-नारियों से सर्वदा
कोई भी सतायेगा न किसी भांति इसको
स्वयमपि करूंगा न बल का प्रयोग मैं।
यक्ष-रक्ष सुर-नर-किन्नर विलोकें तो
राक्षसता मुझ रक्षराज द्विजराज की।‘‘

इसके अनन्तर,निरन्तर वियोगिनी
सीता-सुधि लेने हेतु राम की अनुज्ञा से
पार कर पथ के अपार पारावार को
आये हनुमान थे अशोक उपवन में
रक्षक-सहित अक्ष-वध कर कपि ने
वह वन-वाटिका भी नष्ट भ्रष्ट कर दी
भ्रातृ-शोक से हो मर्माहत इन्द्रजित ने
बांध लिया वानर को विद्युत के वेग से।
ब्रह्म-पाश-बद्ध रामदूत हनुमान को
रावण-समक्ष कर कहा मेघनाद ने-
इस क्रूर कपि ने उजाड़ी बन-वाटिका
मार दिया ‘‘अक्ष’’ लक्ष रक्षक-सहित हा !
इसे अब आप यथोचित दण्ड दीजिये।

रावण ने कहा-‘‘यह यद्यपि अक्षम्य है
क्योंकि अपराधी यह पुत्र-हत्या-काण्ड का
पर, दौत्य-कर्म में नियुक्त मान इसको
मुक्त करना ही युक्ति-युक्त हूँ मैं मानता
विभीषण आदि की भी सम्मति है ऐसी ही,
अतः कपि-पूँछ पै लपेट रूई, तेल से-
तर कर आग लगा कर इसे छोड़ दो
जिससे कि यह मुग्ध दग्ध स्वयमेव हो।’’
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‘‘सागर का सेतु बांध लिया कपिदल ने’’
सुन यह समाचार स्वीय गुप्तचर से
रावण के मुख से निकल पड़ा सहसा-
‘‘वननिधि, नीरनिधि, तोयनिधि, जलधि
उदधि,पयोधि, सिंधु बांधा शाखा-मृगों ने !’’
इसका प्रभाव नहीं किन्तु कुछ मुझ पै
क्यों कि खग हों न वीर लांघने से सिन्धु के।
पार कर सागर को नर और वानर वे
मेरे भुज-सागर में डूबेंगे अवश्य ही।
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निज जय-हेतु सेतु-बन्ध के निकट ही
रघुकुल-केतु चाहते हैं शिव-स्थापना
यह जान कर महादेव के अनन्य भक्त
रावण के हृदय में जागी भव्य भावना -
‘‘जानकी के बिना वन-वासी किस भांति से
अर्चना करेगा पूर्ण मेरे महादेव की,
मेरे इष्ट मेरे अर्च्य, मेरे वन्दनीय की
समाराधनीय, पूजनीय, महनीय की-
यजन अपूर्ण रह जाय नहीं शिव का
अतः सीता जी को लेके चलूं पास राम के।’’
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‘‘निज-सव्य भाग में दे स्थान सती सीता को
राम! करो पूर्ण यज्ञ’’ कहा लंकपति ने।
सुनकर सहसा स-हित मित भारती
सामने विलोक सिय-संग त्रिदिवारि को
हत-प्रभु राम थे चकित चित्रलिखे से,
देखते ही सूर्य-वंश-अवतंस राम को
द्रवित सी हुई सीता, सूर्यकान्तमणि सी।
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कल्पना से परे इस घटना अघट से
चेतन थे जड़, जड़ चेतन समान थे।
नम्र हो के रावण से कहा यह राम ने -
ब्रह्मा बन मेरा यज्ञ पूर्ण करा दीजिए:
रिपु-अनुरोध मान, अपने विरोध में-
आयोजित यज्ञ भी
पूर्ण था कराया प्रज्ञ रावण पुरोधा ने
परम उदार, महाप्राण, यशोधन ने
हो कर प्रसन्न दिया आशिष भी शत्रु को-
‘‘चिरजीवी, पूर्णकाम, राम! तुम जयी हो।’’
‘‘यदि तुम चाहो तो लो रखो पास अपने
परम पुनीता सीता को भी सीतानाथ हे !
क्योंकि मेरा मनचीता
सीता अपहरण का लक्ष्य हुआ पूर्ण है।’’

धन्यवाद करके प्रदान कहा राम ने-
‘‘रावण ! उठाई सीता तूने छल-बल से
होगा बल मुझ में तो लौटा लूंगा इसको,
दलकर दानवों का दल, पद-तल से
समर में होगी पहचान बलाबल की
बुरे की-भले की, अनजान की - सुजानकी,
शूरता-अशूरता की, तेरी-मेरी जान की
जानकी नहीं है यह, बाजी जान-जान की।
जिस भांति होता मुक्त सूर्य, राहु-ग्रास से,
उसी भांति होगी मुक्त सीता तव पाश से,
व्याल से विमर्दित अनिन्द्य वन-फूल सी,
सीता को सहर्ष अंगीकार तब करूंगा।’’
बोला तब रावण यों कर घन-गर्जना-
‘‘प्रत्युत्तर पा कर तुम्हारा मैं प्रसन्न हूँ,
अंगीकार करता हूँ रण की चुनौती को,
विग्रह में विजय न तुमको मिलेगी, क्योंकि
द्यौ को नहीं, गौ को दुहने से दूध मिलता।’’
सर्वथा सुरक्षित रहेगी परिणाम तक
राम ! मेरे पास सीता धरोहर तुल्य ही।
हर्षकारी नहीं मुझे धर्म-धर्षकारी जो
धन-धान्य धरा-धाम, धूल के समान है।

दूरदर्शी रावण लगा यों फिर सोचने
समाहित चित्त हो स्वकीय सौध-कक्ष में-
‘‘होगा ऐसा युद्ध जैसा ‘‘भूतो न भविष्यति’’
भूतल पै भारी हलचल मच जायगी
ध्वस्त हो के धराधर धरणी में धंसेगे
उथलेंगे जल-थल उथल-पुथल से,
खर-तर-धार, धुआंधार, धूम-केतु से
सर-सर-सर शर छूट कर कर से
कर देंगे हतप्रभ सूर्य को भी नभ में।’’
किन्तु युद्ध युद्ध है
चलता पता न कुछ हार और जीत का।
जानता हूँ अज-वंशी राम नहीं अज है,
राम वह राम, योगी रमते हैं जिसमें,
विपदा-विराम, वह लोक-अभिराम है।
सम्भव पै इससे भी प्राप्त पराभव हो,
किन्तु पराभव भी विभव होगा मुझको,
भव की कृपा से भव-भय मिट जायगा,

भुक्ति से मिलेगी मुक्ति, मुझे युद्ध-युक्ति से।’’
‘‘होंगे हवि, होंगे हवि, महाहव-हव में
सुर-नर वानर समस्त यक्ष-रक्ष भी,
सब कुछ होगा स्वाहा, आहा! इस आग में
पुरजन, परिजन, सकल स्वजन भी,
कुछ न बचेगा, भली भांति हूँ मैं जानता,
तो भी यह चाहता हूँ-
हम रहें या न रहें नाशवान विश्व में
पर, लंका पर रहे राज्य निज कुल का
अत एव मुझको
चलनी पड़ेगी चाल कूट राजनीति की।’’
‘‘अपने से विमुख करूंगा विभीषण को
लगता है सत में सतत चित जिसका,
लंक में कलंक से रहित वही एक है,
पदाघात कर उसे यहां से भगाऊँगा;
वह अपमानित हो मानी बन्धु मुझ से
राम की शरण में अवश्य चला जायगा
और न बचेगा कोई जब निज वंश में
तब एकमात्र बस वही बच पायगा।

मुझ से विरोध कर, होगा प्रिय राम का
क्योंकि राजनीति में
मित्र ही कहाता वह शत्रु का जो शत्रु है।
अत एव अन्त में
अभिषिक्त हो कर श्री राम के कराब्ज से
पायगा अनुज ‘‘लंकपति’’ पद पायगा।’’
और यह योजना सफल रही उसकी,
अनुकूल अवसर पर सिंहलेश ने
विभीषण से भी भेद रख कर गुप्त ही
दुत्कार कर और मार कर लात से
जाने दिया घर-द्वार छोड़कर उसको
शत्रु की शरण में।
जाने दिया तन-मन-धन और जीवन भी
जाने दिया सब कुछ, लंक नहीं जाने दी।
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फिर दोनों दल डट गये युद्ध-भूमि में,
नायकों ने किया निज नयनों की तुला से
एक दूसरे को तोलने का उपक्रम था।
बोले रामचन्द्र देख भारी रिपु-दल को-
‘‘एक चन्द्र बहुत है तम के विनाश को।’’
राम-सैन्य निरख कहा यों दशकण्ठ ने-
‘‘तारापति-मुखी सेना मानो मुग्ध वामा है
नील आदि नव नील चिकुर हैं जिसके,
अंगद है अंगद ललित भुज-लता का
कपि-दल-अविकल कलकल कोलाहल
सुमधुर नूपुर की झंकृति के तुल्य है।
देख कर जिसको है पुलकित अंग-अंग
उठ रही मेरे मन मौज मनसिज की।’’
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राम और रावण के प्रथित कटक में
कट-कट पड़ते विकट भट भूमि पै
रुंड-मुंड-झुंड, भग्न तुंड से वितुंड के
बहते थे निराधार धार में रुधिर की।

महाक्रुद्ध रावण ने एक दिन युद्ध में
घोर मेघ-नाद कर
अष्टघंटा, महास्वना, शक्ति शत्रु-घातिनी
तोल कर फेंकी यति लक्ष्मण के वक्ष पै,
करती दिगन्त को ज्वलन्त ज्योति-पिंड सी,
दीप्यमाना, महाद्युति, विद्युत के वेग से
धंस गई उर में उरग-राज, जिह्व सी,
धराशायी, लथ-पथ रक्त से लखन यों
लगते थे लाल-लाल उस काल मानो कोई-
पन्नग से परिगत अदभुत नग हो,
या कि छिन्न पादप हो पुष्पित पलाश का,
या कि रज्जु-मुक्त रक्त रंग की पताका हो,
या कि तुंज-भंग तुंग मेरू गिरि-शृंग हो।
गतवीर्य, गततेज, राम शरदाभ्र से,
विरह-मलीन, दीन, जल-हीन मीन से,
लखन की लख न सके थे व्रण-वेदना,
सहसा अचेत हुये इस भ्रातृ-शोक से,
सूर्य छिपने से यथा पद्म श्री-विहीन हो।
किन्तु कालान्तर में ही स्थितप्रज्ञ-अग्रणी
रामचन्द्र उर-मणि लक्ष्मण-वियोग में,
प्रवाहित वारिज-विलोचनों के वारि से
होकर सचेत, लगे करने विलाप यों-
हन्त ! वृन्त-विकसित कुसुम को काल ने
काल से ही पूर्व कर डाला छिन्न-भिन्न है
भग्न मनोरथ अब मग्न हुआ जाता हूँ
ओक-लोक-शून्य महाशोक के समुद्र में
जिस भांति करि-अपहृत कुवलय का
मसृण मृणाल-तन्तु लय होता जल में।
‘‘मुझ सा अभागा नहीं कोई इस जग में,
भार्या हुई अपहृत, भृत्य हुआ मृत है,
मैं तो सब भाँति हुआ हाय! असहाय हूँ
हाय ! मैं तो लुट गया इस भरे विश्व में,
किस भांति जननी को मुख दिखलाऊँगा
जीते जी तो तड़पूँगा, बिलखूँगा, रोऊँगा,
हा हा ! मैं तो मर कर भी न चैन पाऊँगा।
मेरा साथ छोड़ कर भ्रात चला गया है
सदा साथ रहता था जो कि प्रतिबिम्ब सा,
किन्तु अब मैं भी साथ उसका निभाऊँगा,
जिस मार्ग गया वह उसी मार्ग जाऊँगा,
क्षमा सीते ! क्षमा बन्धो ! क्षमा मित्र ! क्षमा मां !
क्षमा कर देना सब मुझ हतमणि को।’’
देख दुःख-हर को दुखित जामवन्त ने
धीरज बंधाया,कहा-‘‘लक्ष्मण अ-मृत है,
संज्ञा-हीन हुआ यह शक्ति के प्रभाव से,
शंका मत मानिये तनिक भी अनिष्ट की,
उपचार इसका त्वरित ही विधेय है।’’
राम की अनुज्ञा प्राप्त कर जामवन्त ने
किया फिर निवेदन अंजनीकुमार से -
‘‘जाओ मित्रवर ! तुम लाओ तत्काल ही
रावण के राज्याश्रित, सुहत्, पीयूषपाणि,
वैद्यराज, मनीषी सुषेण वानरेन्द्र को।
कर देता जीवित जो प्रायः मृतप्राय को’’
औषधाद्रि-दक्षिण शिखर-भवा, सुप्रभा
शल्य-हारी ‘‘संजीवनी’’ औषधि-विशेष से।’’
बाण के समान हनुमान गये लंक में
संग चलने को कहा भिषक सुषेण से,

अवगत करा उसे अपने अभीष्ट से।
सुनकर बहुशः विनय वायु-सुत की
रावण से मांगी अनुमति नत वैद्य ने।
मेघ के समान दशानन तब गरजा-
‘‘मत जाओ, मतजाओ, जाने भी दो, जाने दो।
जाने भी दो पास उस क्षयी रामचन्द्र के
दिशा-बन्धुओं को, काली साड़ियां तिमिर की-
पहिन-पहिन कर,
होने भी दो अनुभूति वेदना की उसको
दैन्य-दुःख-दावा-दाह, अशनि-निपात की,
शेष हुये निज बन्धु शेष के विछोह में
वेदना-विनिर्मित विशेष शेष-पाश से
वेष्टित हो, उसको भी होने मोहाविष्ट दो।
डसने दो तुम उसे सुधियों के सांपों से,
होने भी दो हर्ष हमें शत्रु के विलापों से,
डूबने दो, डूबने दो साथ में ही तारों के
‘‘चन्द्र’’ सम चमकीले अवध के तारे को
राम के सहारे को।
होने भी दो निबटारा जीत और हार का,
बदला उतरने दो प्रिय पुत्र ‘‘अक्ष’’ का।
लक्ष्मण के जीवन में होने न प्रभात दो,
उसके वियोग में ही तड़प-तड़प कर,
मर जाने भी दो बिना मारे रिपु राम को।’’
‘‘ठहरो, परन्तु प्राणाचार्य ! जरा ठहरो,
रावण अहम्मन्य आज हुआ धन्य है,
जिसके समक्ष हुआ वायु-पूत दूत द्वारा
दया-सिन्धु स्वयमेव दया का भिखारी है।
काल के विपर्यय से देखो इस विश्व में
बद्धमूल वृक्ष भी उखड़ जाते जड़ से।
ध्वस्त हो के धराधर धंस जाते धरा में
अस्त होते धन-जन, वैभव समस्त ही,
प्रलय में होते लय सूर्य और शशि भी,
रोशनी ‘‘दिये’’ की पर फिर भी न बुझती।
इसलिए जाओ तुम उसे प्राण-दान दो,
धर्म है हमारा रण-आहत की सुश्रूषा,
आहत में होता नहीं भेद रंचमात्र भी

आहत तो आहत है, अपना पराया क्या
उससे सहानुभूति दैविक विभूति है।’’
रावण की आज्ञा पा सुषेण गया सुख से
साथ हनुमान जी के राम के शिविर में,
संजीवनी-स्वरस से स्वस्थ किया शेष को।
अमर समर छिड़ गया फिर उनमें
रावण ने कहा-राम बनते हो बलवान
नाक-कान काटने से अबला अकेली के
अथवा अतुल बलशाली वीर बाली को-
मारने से छिप कर छली छल-छद्म से
समकक्ष शूर के समक्ष हुए आज हो
शक्ति है तो झेलों मेरे दुर्निवार वार को।
रावण का रौद्र रूप देख कर रण में
हुआ कर-लाघव भी राघव का व्यर्थ था,
ऐसे वह त्रस्त जैसे राहु-ग्रस्त चन्द्र हो
रावण के वार का निवारण अशक्य था,
वासुकि से विष-युक्त स्वर्ण-पुंख बाणों से
वानर हो विद्धअंग करते वमन थे
अंगदादि संग नल-नील जामवन्त भी,
किञिचत थे चिन्तित से हन्त ! हनुमन्त भी
देख दृश्य दारुण ये दुःखित थे देवता।
वंशज की वेदना से व्यथित तरणि भी,
डूबने लगे थे तब पश्चिम पयोधि में,
पीला पड़ा ‘‘चन्द्र’’ जैसे फल हो खजूर का,
हतप्रभ नभ की भी छाती हुई छलनी,
रुदन मचाने लगे द्विज-गण चहुँधा।
कहा विभीषण से यों नष्टकाम राम ने-
लगता है अब न मिलेगी मुझे जानकी
वल्लभा, कपोतग्रीवा, प्रतनु, घटस्तनी,
मधुकर-निकर-चिकुर, शुक-नासिका,
पिक-कलकण्ठ,वक्र मनसिज-धनु-भ्रू
कुन्द-पुष्प दन्त वाली, इन्दुमुखी, मैथिली
स्वर्ण-वर्णा, तरुणी, अरुण मदिरेक्षणा,
कामिनी, कदलि-जंघा, मत्त गज-गामिनी
क्यों कि महादेवी, महालक्ष्मी, महाकालिका,
दुर्गा, क्षमा, शिवा, धात्री, मंगला, कपालिनी,
अष्टभुजी, शंख-चक्र-गदा-पद्म-भूषिता,
कुलिश-कृपाण-पाणि, धनु-वाण-धारिणी,
तरल त्रिशूल-वाही, तूर्ण तिग्म तैजसी,
दुराराध्या, ध्यानसाध्या, विन्ध्यगिरि-वासिनी,
दुःखहरा, सुखकरा, प्रकृति, नारायणी,
नीलकंठ-प्रिया, निराकारा, तारा, शारदा,
भ्रामरी, भवानी, भीमा, धूम्रा, पाप-नाशिनी,
जिसके कि भाल पर भासमान भानु सा,
चम-चम चमकता कुन्दन-किरीट है,
मणिराजि जिसके यों शीश पर सोहती,
शोभित ज्यों नील नभ मध्य नखतावली,
जिसके कि कंठ में
झिलमिल-झिलमिल सुरसरि-धार सा
विमल धवल रजताभ शुभ्र हार है,
वह चंडवती, चंडा, मुंडा, चंडि, चंडिका,
महाशक्ति रण-रता रावण की ओर से,

कर रही ध्वस्त है समस्त मम सैन्य को,
मम मन्त्र-पूत अगणित अस्त्र-शस्त्र को।
कर असु रक्षित, सुरक्षित हो सर्वथा
राजता है रावण यों महाशक्ति-अंक में
शोभित कलंक हो ज्यों मंजुल मयंक में,
अत एव वध अब उसका असाध्य है
और असुकर है।’’
धिक बल, धिक शक्ति, धिक पराक्रम है
माया का सहारा अब अन्तिम सहारा है।’’
यह सोचकर, रूप रख कर शिव का
मायापति राम गये रावण के हर्म्य में
जब वह प्रस्तुत था स्तुति-करणार्थ ही
भव्य भगवान भूत-भावन भवेश की।
रावण ने देखते ही अर्चना की उनकी
और कहा हँस कर- ‘‘जानता हूँ सब मैं-
प्रभो ! आप कौन ! यह भी हूँ पहिचानता,’’
मेरे इष्ट शिव जी का रूप रख आये हो

अत एव सब भांति मेरे वन्दनीय हो।
राम ! यदि आते आप अपने ही रूप में
तो भी इसी विधि पूजा आपकी मैं करता
क्यों कि मेरी दृष्टि में तो भेद नहीं रंच भी
विष्णु में विरंचि में या शिव में या राम में।
बोलो किसलिए आये, चाहते क्या मुझसे
आपके अभीष्ट को अवश्य पूरा करूंगा।
मेरा यह व्रत कोई आये यदि द्वार पै
उसको हताश कभी जाने नहीं देता मैं
लौटने न देता कभी खाली हाथ किसी को
प्राण भी दे याचक का मान रख लेता मैं।
क्यों कि चल चंचला सा तन-मन धन है,
रूप-रस-गन्ध-शब्द-स्पर्श पलमात्र के
अतल जलाशयों का जल सूख जाता है,
बन जाते नभ-चुम्बी भवन भी वन है।
जगत में होता अन्य सब गतिमान है,
रहता सदैव स्थिर एकमात्र दान है।‘‘

लज्जित हो राम ने कहा कि ‘‘आप धन्य हो,
वीर अग्रगण्य, भक्त शिव के अनन्य हो,
ज्ञानी, ध्यानी, मानी, अभिमानी, महादानी हो।
बन कर वामन मैं हो कर विवश ही
आया द्वार आपके,
मानता हूँ अपने को हतभाग्य विश्व में
अपना अभीष्ट साधनार्थ, जो कि सर्वथा
आप जैसे शिष्ट का भी चाहता अनिष्ट हूँ
चाहता हूँ पूछना कि प्राण कहां आपके
चाहता हूँ हन्त हा ! दुरन्त अन्त आपका।’’
‘‘राम ! मेरी मृत्यु नहीं आपके है बस की,
पत्थर को तोड़ नहीं सकता प्रसून है,
थर-थर कांपते हैं मुझसे दिगन्त भी
अन्तक भी मेरा अन्त कर नहीं सकता
क्योंकि अखिलेश के अनन्त अनुग्रह से
यम पर नियम सदैव रहा मेरा है।
आपने की याचना परन्तु मेरे सामने
अतः करता हूँ मैं निवेदन स्व मृत्यु का


कल रणक्षेत्र मध्य निश्चित मुहूर्त में
प्राणायाम क्रिया से मैं प्राण ब्रह्मरन्ध्र में
अपने ले जाऊंगा
व्यक्त होंगे लक्षण विशिष्ट मेरे तन में
जाने देना तब स्वर्ण-समय न हाथ से
मन्त्र-अभिषिक्त ब्रह्म-अस्त्र द्वारा मुझ पै
करके प्रहार निज लक्ष्य पूरा करना।
बनकर केवल निमित्तमात्र तुम यों
लूट लेना दशकण्ठ-वध के सुयश को।’’

‘‘लक्ष्य सिद्ध होने पर इस धरातल में
देखता न कोई भी विजेता के कपट को
जय पर आधारित होते गुण-दोष हैं
निश्छल कहाते जेता जीत कर छल से।’’
चिन्तन में डूबे हुये इस भांति मार्ग में
सर्वोपाधि- विनिर्मुक्त समुद कुमुद से
अगोचर, सर्वव्यापी, पुरुष पुराण वे
रामचन्द्र लौट गये अपने शिविर को,
जान कर भेद रिपु रावण-मरण का।

अगले दिवस कहा राम को अगस्त्य ने-
‘‘वीरवर ! रण में प्रयाणपूर्व,पहले-
विजय के हेतु करो पूजा तुम सूर्य की,
क्षार-क्षार करता जो पातक-पहाड़ को,
हरता अखर्व गर्व सर्व अन्धकार का
अतल वितल रसातल तलातल का
निज कर-किरणों से करता भरण जो,
वही ब्रह्म, वही विष्णु, वही महादेव है,
वही स्कन्द, प्रजापति, इन्द्र, यम, सोम है,
वही वायु, वही वह्वि, वही वारि-निधि है,
वही है गभस्तिमान, अग्निगर्भ, सविता,
वही है हिरण्यरेता, वही दिवाकर है,
वही विभु, तमोभेदी, महातेजा, मित्र है,
नमः पद्मबोधाय च, नमो लोकसाक्षिणे
तमोघ्नाय, शत्रुघ्नाय, नमो दिव्यवर्चसे।’’
तीन बार जप इस सूर्य के स्तवन को
रण के समस्त उपकरण सहित ही,
मातलि से प्रेरित सहस्र-अक्ष-रथ में

चढ़कर चले राम नव जलधर से।
बज उठे ढफ ढोल दुन्दुभि मृदंग संग
अंग-अंग भरते उमंग रण-वाद्य थे,
प्रांगण में रण के पहुँचते ही क्षण में
भिड़ गये परस्पर क्रुद्ध दोनो सिंह से
परम कठोर घोर धनुष-टंकोर से,
बधिर विवर्ण हुये भूधर अकर्ण भी
अनन्वय राम और रावण का युद्व था,
खलबली मच गयी लोक-परलोक में
शैल बन-कानन सहित डोली मेदिनी।
प्रथम प्रहार किये अ-विराम राम ने
भड़क उठा था क्रोध रावण का इससे
जिस भांति आहुति से अनल धधकता।
यद्यपि विराट वज्रकाय दशानन को
राम-बाण लगते थे मृदु पद्म-नाल से
प्रत्युत्तर देने के लिए ही तो भी उसने
वार कर एक अनिवार्य पुंखशर का
रथ-ध्वजा काट डाली महाबाहु राम की।

हार को निहार राम पड़ गये सोच में
क्यों कि यत्न व्यर्थ होते भाग्य के समक्ष यों
मिट जाती पानी पर खचित लकीर ज्यों।
‘‘झूठ है कि केवल रगड़ने ही मात्र से
काष्ठ से प्रकट होती अग्नि इस विश्व में,
झूठ है कि खोदने से यहाँ धरातल के
विमल सलिल-धार धरा से निकलती।’’
देखा फिर रावण की ओर क्षुब्ध राम ने,
लक्षण विलक्षण विलोक याद आ गया
कथन पुलस्त्य-पौत्र नित्य सत्यसंघ का
उठा लिया अविलम्ब लम्बबाहु राम ने
दिव्य अभिमन्त्रित अमोघ ब्रह्म-अस्त्र को
गौरव में जो कि मेरू-सदृश विशाल था
जो कि वज्रसार, महानाद, भारी भीम था,,
पावक सी जिसके फलक की चमक थी।
छोड़ दिया रावण पै वेद-प्रोक्त विधि से
गुंजित दिगन्त कर वह घोर रौर से।

क्षय कर रावण का लय हुआ भूमि में।
धनु-बाण-स्रस्त,
रिक्त-हस्त द्रुत वेग से
ध्वस्त हुआ दशानन भूमि पर रथ से
छत्र सा, नक्षत्र सा कि वज्र-हत वृत्र सा।
ब्रह्मनिष्ठ, ब्रह्मलीन हुआ यह कह कर-
‘‘मेरे जीते जी न कर पाये हो प्रवेश राम
प्रकट स्व वेश में कदापि मेरे देश में
किन्तु अब आपके ही जीते जी मैं जाता हूँ
बिना रोक-टोक सीधा आपके ही लोक में।’’
एक जगमग ज्योति, रावण के तन से
सहसा निकल कर सूर्य में समा गई
देख यह दृश्य हुये विस्मित विवुध भी।
रोने लगा विभीषण हो कर विषण्ण, ‘‘हा !
चला गया सेतु हन्त ! नीतिवान नरों का
चला गया धीर धर्म-धुरन्धर हन्त हा !
बल चला गया बलधारियों का विश्व से,

गत हुआ जगत से वीरता का भाव है।
सूर्य-चन्द्र नखत हुये हैं हतप्रभ से
रावण के जाने से अंधेरा छाया लोक में।’’
हा ! हा ! किया महा-वृक्ष सम दशानन का -
भंजन, प्रभंजन समान दाशरथि ने,
जिस पर द्विज किया करते बसेरा थे,
वासव भी जिसके समक्ष शवमात्र था,
मुझ सा अभागा भला होगा कौन भूमि पै
जिसने विरोध किया बन्धु का विपत्ति में
मर क्यों न गया था मैं हाय ! जन्म लेते ही
क्षमा कर देना तात ! अपने अनुज को।’’
राम ने कहा कि-‘‘विभीषण ! धैर्य धारिये
रावण का यथाविधि क्रिया-कर्म कीजिये,’’
‘‘यह धीर, महावीर, महाबलवान था,
यक्ष रक्ष नर और वानर की शक्ति क्या,
देवता भी रण में न करते थे सामना,
यह शक्ति-साहस में जग से अजेय था,
श्रेय और प्रेय सदा ध्येय रहे इसके।

इसने किये है यज्ञ आदि आर्य-कार्य भी,
षटकर्मसावधान यह द्विजराज था,
अमर रहेगा यह सुयश-शरीर से
ग्रस नहीं सकता है काल कभी इसको
वीर-गति-प्राप्त यह सर्वथा अशोच्य है
‘‘ममाप्येष यथा तव’’यह पूजनीय है,
सर्वथा प्रशंसनीय और वन्दनीय है।
मानते हो यदि तुम नारायण मुझको
तो ये प्रतिनारायण मेरा प्रतिभट है
उसी भांति मुझ में समाहित ये सर्वदा,
निहित सदैव है सुवास जैसे पुष्प में
मुझसे कदापि नहीं सत्ता कम इसकी
सत्ता जिस भाँति होती ज्ञान की अज्ञान से,
होती अन्धकार से प्रकाश की प्रखरता,
सगुण से निर्गुण की जिस भाँति महिमा,
सापेक्ष महत्ता वैसे रावण से राम की।

होता नहीं अन्तर विशेष सिन्धु-बिन्दु में
गुण और धर्म की है दोनों में समानता।
हम दोनों समराशि अद्वय, अभिन्न है
राम और रावण का ‘‘रा’’ वर्ण समान है,
अतः हटाकर मोहावरण को मन से
अन्तिम प्रणाम करो ‘‘प्रतिनारायण’’ को।
धर्मविद्! तुमने जो मेरी की सहायता
उससे ही जयश्री मिली है मुझे रण में
अत एव होकर प्रसन्न, स्वस्थ चित्त से
लंका का समस्त राज्य तुमको हूँ सौंपता।’’
‘‘काल बलवान वही कर्ता-भर्ता-हर्ता है,
काल-वश वीर-गति पाई दशकंठ ने।
अतः नित्य सत्य विभु महाकाल, सर्वदा
विश्व-परिपालन ‘‘अजेय’’ कर विश्वतः।’’

नेताजी सुभाषचंद्र बोस-शतक

पूर्ण हों प्रयास सभी, प्यास न किसी की रहे ,
सुधा - वृष्टि कर हर। क्षुधा हर दीजिए ।
ज्ञान का प्रकाश मम, मानस में होवे सदा ,
उर में पुनीत भावनाएं भर दीजिए ।
बच्चा बच्चा नेता जी सुभाषचन्द्र बोस होवे ,
ऐसी नव - सृष्टि प्रभो ! अब कर दीजिए ।
वाणी में मिठास लेखनी का हो विकास सदा ,
काव्य हो “अमित” प्रभो ! ऐसा वर दीजिए ॥
[१]
भुखमरी, हाहाकार, शोषण, कुयातना ये,
भारत – माता से और, सही नहीं जाती थी ।
अबला – सी दिन – रात,फूट – फूट रोती थी ये,
वेदना “अमित” तन – मन झुलसाती थी ॥
अँगरेजी शासन था, कंस के कुशासन – सा,
मुख से विरुद्ध बात, निकल न पाती थी ।
हो गई थी हावी परतन्त्रता स्वतन्त्रता पै,
भारत की दीन – दशा, दिल को दुखाती थी ॥
[२]
गुलामी की जंजीरों में,जकड़े पड़े थे हम ,
अँगरेज हम पर, जुलम ढहाते थे ।
नौकर – सा हमसे वे, करते थे व्यवहार ,
और हमें “अमित” वे, “डॉग” बतलाते थे ॥
साथ – साथ सड़कों पै, चलने न देते हमें ,
चलतों को जलिम वे, कोड़े लगवाते थे ।
मनमाना हमको सताते थे वे दिन रात ,
और हम मुख से न, उफ़ कर पाते थे ॥

[३]
जखमों पै नमक हमारे मलता था दुष्ट ,
दर्द की पुकार कोई नहीं सुन पाता था ।
मीन से “अमित” हम, तड़प रहे थे दीन ,
प्रेम से न कोई हमें, पास बिठलाता था ॥
पग – पग डाँट – फटकार के शिकार मान ,
अंगरेज हम पै हुकूमत चलाता था ।
घूँट विष का ही हमें, उसने पिलाया सदा ,
भूरी बिल्ली जैसी निज, आँख दिखलाता था ॥
[४]
एक – एक टुकड़े के, करके “अमित” भाग ,
आपस में खुशी – खुशी, प्रेम से थे बाँटते ।
कभी – कभी आध मुट्टी भर सत्तु खाकर ही ,
जीवन के गमगीन, दिवस थे काटते ॥
रत्ती भर जो न कभी, फाँकने को कुछ मिला ,
तब टकटकी लगा, गगन थे ताकते ।
फुटपाथों पर श्वान – सम जूँठी पत्तलों को ,
वह भारतीय भूखे, बालक थे चाटते ॥
[५]
हिंसा, छल, दम्भ, झूठ, लूट तथा फूट से ही ,
राज चाहते थे वे “अमित” विश्व – भर में ।
सभ्यता हमारी मेटने को वे तुले थे और ,
पश्चिमी चलन चाहते थे नारी - नर में ॥
सड़कों पै घूमें लाजहीन होके अंगनाएँ ,
चाहते विलास थे वे, डगर – डगर में ।
भारत गरीब रहे, शासन हमारा रहे ,
दुखीं रहें भातीय, अपने ही घर में ॥

[६]
जिसने सिखायी सारे, विश्व को सदा ही सीख ,
ऐसे गुरु भारत को, सीख सिखलाते थे ।
जिन वेदों को बताते, ऋषि – मुनि ईश – वाणी ,
उन्हें वे गडरियों को, गीत बतलाते थे ॥
“इंकलाब जिंदाबाद”, कहते जो भारतीय ,
पकड़ – पकड़ उन्हें, जेल भिजवाते थे ।
“वंदे मातरम्” गाने वाले व तिरंगे वाले –
को तो वे “अमित” सीधा फाँसी चढ़वाते थे ॥

Monday, March 16, 2009

क्रांतिकाव्य चंद्रशेखर "आज़ाद" शतक

होवे हर क्षण जन-जन का मुदित मन,
देश भक्ति-भागीरथी बहे रग-रग में।
सदा धर्म संस्कृति व सभ्यता का हो विकास,
सत्य का ‘‘संदीप’’ जले जगमग-जग में।।
चले जायें चाहे प्राण रहे किन्तु आन-बान,
साहस भरा हो भगवान ! पग-पग में।
चन्द्रशेखर ‘आज़ाद’ जैसे वीर-पुंगव हों,
क्रान्ति की प्रचण्ड-ज्वाल बसे दृग-दृग में।।१।।

प्रभो! नहीं अभिलाष स्वर्ग में करूँ निवास,
भौतिक विलास यह मुझको न चाहिए।
आपका वरद-हस्त शीश पर रहे सदा,
प्रभो! निज शरण में मुझको बिठाइए।।
राग-द्वेष-क्लेश-शेष रहे न भवेश! भव-
भय-बन्ध से आजाद सबको कराइए।
प्रभो! चन्द्रशेखर शतक हो अबाध-पूर्ण,
ऐसा कृपामृत आप मुझको पिलाइए।।२।।

अंगरेजों का था राज-कुटिल-कठोर-क्रूर,
उनके उरों में मया नाम की न चीज थी।
खुलेआम खेलते थे आबरू से नारियों की,
लोक-लाज खौफे-खुदा नाम की न चीज थी।।
दासता के पाश में थी भारत माँ बँधी हुई,
दिल में किसी के दया नाम की न चीज थी।
दानवता मानवता की थी छाती पर चढ़ी,
आँखों में किसी के हया नाम की न चीज थी।।३।।

मूर्ख, धूर्त, बेईमान मारते थे मौज, रोज,
दाने-दाने को ईमानदार थे तरसते।
पड़ते थे कौड़े खूब असहाय जनता पै,
नयनों से गोरों के अँगार थे बरसते।।
करने के बाद कड़ी मेहनत दिन भर,
मजदूरों के अभागे बाल थे बिलखते।
घुट-घुटकर कष्ट सहते थे तब सब,
भारत माता के प्यारे लाल थे सिसकते।।४।।

हो रहे थे अत्याचार, धुँआधार धरा पर,
देख जिन्हें धैर्य धर सकना कठिन था।
अंधी आँधी ऐसी चल रही थी विकट अरे!
जिसमें दो डग भर सकना कठिन था।।
गगन से अगन के गोले थे बरस रहे,
जिनसे बचाव कर सकना कठिन था।
चहुँओर नदियाँ थी बह रही शोणित की,
धरती का भार हर सकना कठिन था।।५।।

भारतीय सभ्यता का पश्चिम में डूब गया-
भानु, घिरा चहुँओर, घोर अँधियार था।
विकराल-काली कालरात्रि से थे सब त्रस्त,
जनता में मचा ठौर-ठौर हाहाकार था।।
रैन में भी कभी नहीं मिलता था चैन हन्त !
उठता तूफान पुरजोर बार-बार था।
हम भारतीयों पर जो कुछ था मालोजर,
उस पर होता गोरे चोर का प्रहार था।।६।।

पैरों में पड़ी थी दासता की मजबूत बेडी,
फन्दा फाँसी का हमारे सिर पै था लटका।
पड़ती निरन्तर थी हन्टरों से मार बड़ी,
बार-बार लगता था बिजली-सा झटका।।
अरे! भयभीत भारतीयों को खटकता था,
सदैव किसी न किसी झंझट का खटका।।
दुर्भाग्य की थी घनघोर घटा घहराई,
भारत का भाग्य-भानु उसमें था भटका।।७।।

जाल में थी फँसी हुई, मछली-सी तड़फती,
हाय! हाय ! की पुकार पड़ती सुनायी थी।
पत्थर भी पिंघल गये थे किन्तु दानवों के,
हृदय में तनिक भी नहीं दया आयी थी।।
घाव पर घाव नित करते थे दुष्ट जन,
रग-रग में उनके दगा ही समायी थी।
सह-सह सैकड़ो सितम खूनी दरिन्दो के,
बेचारी भारत-माता खून में नहायी थी।।८।।

एक क्रान्ति-यज्ञ रण-बीच था आरम्भ हुआ,
वीरों द्वारा सन अट्ठारा सौ सत्तावन में।
गोरे चाहते थे करना तुरन्त-अंत, क्योंकि -
मंत्र आजादी के गूँजे थे इस हवन में।।
क्रान्ति के पुजारी चन्द्रशेखर आजाद ने, ये,
यज्ञानल धधकाया अपने जीवन में।
वीर क्रान्तिकारी हुए इसमें बहुत-हुत,
फैली भीनी-भीनी थी सुगन्ध त्रिभुवन में।।९।।

पोषण के नाम पर करता जो शोषण औ,
भाई-भाई में कराता नित ही विवाद था।
धर्म-ग्लानि देख लगता था भगवान को भी,
गीता में दिया वचन नहीं रहा याद था।।
भोली-भाली भारत-माता पै अत्याचार देख,
मन में वीरों को होता बड़ा ही विषाद था।
क्रान्ति का ‘‘संदीप’’ लेके गुलामी का अंधकार,
मेटने को आया ‘‘चन्द्रशेखर आजाद’’ था।।१०।।

एक धनहीन विप्रवर सीताराम जी -
तिवारी वास करते थे ‘‘भावरा’’ देहात में।
धर्मपरायणा पत्नी ‘‘जगरानी देवी’’ जी थीं,
रखतीं बहुत ही विश्वास सत्य बात में।।
तेईस जुलाई सन, उन्नीस सौ छह में था,
जनमा आजाद, भरी खुशी गात-गात में।
खिल उठे हृदयारविन्द तब सबके ही,
खिलते कमल-दल जैसे कि प्रभात में।।११।।

साथ-साथ हर्ष के ही देखकर बालक को,
माता और पिता को बहुत रंजोगम था।
क्योंकि था ये नवजात शिशु अति कमजोर,
साधारण बच्चों से वजन में भी कम था।।
जनम से पूर्व इस शिशु के तिवारी जी, की -
सन्तति को निगल गया वो क्रूर यम था।
करवाना चाहते माँ-बाप थे इलाज, किन्तु-
दीन थे बेचारे ‘दीप’ इतना न दम था।।१२।।

प्यारा-प्यारा गोल-गोल, मुख चन्द्र सदृश था
अतिकृश होने पै भी सुन्दर था लगता।
उसके नयन थे विशाल, मृग-दृग-सम,
मोहक, निराले, सदा मोद था बरसता।।
कोमल-कमल-नाल-सम नन्हें-नन्ह हाथ,
धूल-धूसरित-गात और भी था फबता।
मिश्रीघोली मीठी बोली लगती थी अति प्यारी,
देख उस बालक को मन था हरषता।।१३।।

तनु-तन बाल वह, धीरे-धीरे चन्द्रमा की-
सुन्दर-कलाओं के समान लगा बढ़ने।
स्वस्थ और हृष्ट-पुष्ट हुआ प्रभु-कृपा से था,
तब सिंह-शावक सा वह लगा लगने।।
नटखट-हठी-साहसी था नट-नागर-सा,
वत्स-सा उछल-कूद वह लगा करने।
लख-लख अपने अनोखे लाल शेखर को,
पितु-मात-हृदय में प्रेम लगा जगने।।१४।।

मामूली-सी नौकरी में अंगरेजी पढ़ा पाना,
सीताराम पण्डित के था ही नहीं बसका।
संस्कृत के अध्ययन-हेतु चन्द्रशेखर को,
उन्होने दिखाया पथ सीधे बनारस का।।
पहली ही बार वह गया दूर देश, अतः -
आता ध्यान घर का, न लगा मन उसका।
चाचाजी के पास ‘‘अलीराजपुर’’ भाग आया,
उसको तो लगा बनारस बिना रस का।।१५।।

चंचल-चतुर चन्द्रशेखर को ‘‘अलीराज-
पुर’’ रियासत में भीलों का संग भा गया।
उनके ही साथ-साथ रहकर के धनुष-
बाण अतिशीघ्र उसको चलाना आ गया।।
उसका निशाना था अचूक चूकता ना कभी-
छूटा तीर कमां से ना खाली उसका गया।
दिशि-दिशि उसकी प्रशंसा होने लगी और-
सब पर उसका प्रभाव पूरा छा गया।।१६।।

किन्तु चाचाजी ने सोचा, शेखर अगर इन,
भीलों बीच रहेगा तो, भील ही कहायेगा।
मीन-मांस-मदिरा अवश्य भीलों की ही भाँति -
होकर के ब्राह्मण भी, यह रोज खायेगा।।
धर्म-कर्म-मर्म ये समझने के लिए कभी,
करेगा प्रयास नहीं, पाप ही कमायेगा,
इसके लिए न ठीक भीलों का समाज यह,
रहकर इनमें ये, भ्रष्ट ही हो जायेगा।।१७।।

बालक का भविष्य सुधर जाये, बिगड़े ना,
बन जाये एक भला आदमी जीवन में।
सदा सुधा-वृष्टि करे बन घनश्याम यह,
गन्ध ये सुमन-सी बिखेरे उपवन में।।
बने बलवान, ज्ञानवान, दयावान, धीर,
महावीर इस-सा न कोई हो भुवन में।
इसी सदाशय से था शेखर को भेज दिया,
काशीपुरी जो कि है प्रसिद्ध त्रिभुवन में।।१८।।

इस बार बड़े मनोयोग से बनारस में,
लगा चन्द्रशेखर था देवभाषा पढ़ने।
अष्टाध्यायी, लघुकौमुदी तथा निरूक्त जैसे,
शास्त्र पढ़ने से और ज्ञान लगा बढ़ने।।
पढ़ाई के साथ-साथ देशभक्ति का समुद्र-
मानस में उसके यों लगा था उमड़ने।
देश की आजादी के लिए किशोर शेखर तो,
भीतर ही भीतर गोरों से लगा लड़ने।।१९।।

जलियान वाले बाग काण्ड की खबर सुन,
चन्द्रशेखर का खूब खून लगा खोलने।
देश की दशा को देख दिल हुआ धक-धक,
और लगा धिक-धिक उसको ही बोलने।।
छली छद्मी अंगरेजों का हरेक अत्याचार,
छोटे से शेखर का कलेजा लगा छोलने।
फलतः पढ़ाई छोड़-छेड़ दी लड़ाई और,
आजादी के आन्दोलन में वो लगा डोलने।।२०।।

चहुँओर इक्कीस में, गाँधी जी के द्वारा आँधी
प्रथित ‘‘असहयोग’’ की याँ चल रही थी।
इसके आँचल में थी, विकराल-ज्वाल वह,
जो कि सत्तावन से सतत् जल रही थी।।
फैलती ही गई चाहा जितना बुझाना इसे,
फूँकने फिरंगियों को ये मचल रही थी।
लपटों में लिपटी थी विटप-ब्रिटिश-सत्ता,
देख-देख सरकार हाथ मल रही थी।।२१।।

देश की आजादी हेतु सजी-भारतीय-सेना,
सहयोग दिया मजदूरों ने, किसानों ने।
कूद पड़े भूल स्कूल, कालेजों को छोड़ छात्र,
आग यह और धधकायी परवानों ने।।
दिल-हिल गये दुष्ट-दानवों के तब जब -
लगा दी छलांग रणभूमि में दिवानों ने।
मच गई हलचल, कुचल पदों से दिये,
दुष्ट गोरे-दल, इस देश के जवानों ने।।२२।।

इस आँधी के बहाव में तुरन्त बह चली,
भव्य-भगवान भूतनाथ की नगरिया।
इसके प्रचण्ड-वेग के समक्ष टिक पाने-
में थी असमर्थ अरे! ब्रिटिश-बदरिया।।
साहसी सपूतों ने था ठान लिया अब यह,
फाड़ेंगे, न ओढ़ेगें गुलामी की चदरिया।
सब जन होके तंग एक संग उठ गये,
फोड़ने फिरंगियों की पाप की गगरिया।।२३।।

सारे देश की ही भाँति सड़कों पै उमड़े थे,
बृहद जुलूस बनारस में किशोरों के।
जल रहीं थीं विदेशी वस्तुओं की होली गली-
गली गूँज रहे थे विजय-घोष छोरों के।।
प्रतिशोध की धधक रही थी दिलों में ज्वाल-
विकराल काल बाल बने थे ये गोरों के।
इनके मुखों से थी निकल रही ध्वनि यही,
‘‘नहीं हैं गुलाम हम इन गोरे चोरों’’ के।।२४।।

सह लिए बहुत सितम अब सहेगें ना,
लेंगे आजादी हो प्राण चाहे मोल इसका।
गुलामी में जीने से है बेहतर मर जाना,
चूम लेना फाँसी थाम लेना प्याला विषका।।
ललमुहों को थे ललकार रहे ‘‘लाल’’ यह,
छलियों दो छोड़ देश, ना तो देगें सिसका।
होशियार हो सियार ! शेर जाग गया अब,
लगेगा पता है हक हिन्द पर किसका।।२५।।

ऐसा चला चोला था पहन बसन्ती एक -
टोला बालकों का, नेता शेखर था जिसका।
लेके हाथों में तिरंगे, जंगे आजादी के मैदां-
बीच, कूद पड़े वीर, देख रिपु खिसका।।
गर्जना से गूँज उठा गगन, भूगोल डोल,
गया औ दहल गया महल ब्रिटिश का।
चलता ही गया वो कुचलता फिरंगियों को,
उसको न रोक पाया पहरा पुलिस का।।२६।।

गली-गली आजादी का अलख जगाते हुये,
शेखर का आर्यवीर दल बढ़ रहा था।
वतन पै तन-मन-धन वार कर, बाँधे-
सर से कफन प्रतिपल बढ़ रहा था।।
खतरों की खाइयों को फाँद सरफरोशों का-
जय-जयकार कर बल बढ़ रहा था।
जलती विदेशी चीज, की यों दुकानों को देख,
गोरों के दिलों में क्रोधानल बढ़ रहा था।।२७।।

तभी भूखे भेड़िये की भाँति भागा पुलिस का,
एक अधिकारी उस दल को कुचलने।
कर दिया लाठी-चार्ज उन पर जालिम ने,
खून की धाराएं लगी सिरों से निकलने।।
यह देख रह गया ‘‘चन्द्र’’ दंग अंग-अंग -
काँप उठा, मारे क्रोध के लगा उबलने।
पास में ही पड़ा एक, छोटा-सा पत्थर देख,
मन में तूफान लगा उसके उमड़ने।।२८।।

चुपके से उसने उठाया वह पत्थर औ,
दाग दिया उस दुष्ट दारोगा के सिर में।
सही था निशाना सधा, लगते ही पत्थर के,
बदला नजारा सारा वहाँ पलभर में।।
छूट गया लठ, फट गया सिर, सराबोर,
खूँ में हो गया ले बैठ गया सिर कर में।
दीख गये दिन में ही तारे उस जालिम को,
घूमने लगे भू-नभ उसकी नजर में।।२९।।

ज्यों ही देखा एक सिपाही ने चन्द्रशेखर को -
फेंकते यों पत्थर, तो दौड़ा वो पकड़ने।
भीड़ में छिपा यों ‘‘चन्द्र’’ बादलों में जिस भाँति,
छिप जाता चन्द्र, मूढ़ लगा हाथ मलने।।
साथ ले सिपाहियों को ‘‘चन्दन के टीके वाले-
शेखर’’ की खोज वह लगा तब करने।
ढूँढ-ढूँढ हार गये जब सब तब उसे,
पकड़ा था धर्मशाला से सिपाही-दल ने।।३०।।


डाल के हाथों में हथकड़ियाँ ले गये थाने,
कर दिया बन्द ‘‘चन्द्र’’ शीघ्र हवालात में।
वहाँ थे अनेक सत्याग्रही स्वाभिमानी वीर,
धीर, मिलती थी मार उन्हें बात-बात में।।
ओढ़ने-बिछाने को न वसन भी उसे दिया,
जिससे कि ठिठुरे वो शिशिर की रात में।
पुलिस ने सोचा भयभीत होके शीत से ये,
क्षमा माँग लेगा हो विनीत कल प्रात में।।३१।।

आधी रात पुलिस निरीक्षक ने सोचा यह,
चलो देख आयें उस छोरे का क्या हाल है।
बेचारा! ठिठुर रहा होगा मारे ठण्ड के वो,
क्योंकि धरा शिशिर ने रूप विकराल है।।
गया हवालात, देखा खिड़की से झाँककर,
पेल रहा दण्ड वह भारत का लाल है।
रह गया दंग देख दृश्य वह कह उठा-
बाँधे जो इसे, न बना ऐसा कोई जाल है।।३२।।

न्यायाधीश ‘‘खरेघाट’’ के समक्ष लाया गया,
दूसरे दिवस उस वीर को पकड़ के।
पूछा ‘‘नाम’’ जज ने कड़कती आवाज में तो,
बतलाया बालक ने ‘‘आजाद’’ अकड़ के।।
उसी लहजे में फिर पूछा - ‘‘बता बाप का तू -
नाम ‘‘बोला वो’’ स्वाधीन’’ मुटिठयाँ जकड़ के।
फिर से सवाल किया - ‘‘बता तेरा घर कहाँ ?
तो कहा कि ‘‘हम हैं निवासी जेलघर के’’।।३३।।

जज ये जबाब सुन भुन गया क्रोध में था,
सजा पन्द्रह बेतों की थी सुना दी शेखर को।
सजा थी ये बड़ी-कड़ी, चमड़ी उधड़ जाती,
लेकिन तनिक भी न डर था निडर को।।
कमल से कोमल वपु पै बेंत तड़ातड़ -
पड़ने लगे, न उसने झुकाया सर को।
हर बेंत पर ‘‘गाँधी जी की जय’’ बोली ‘‘उफ’’ -
तक न की, धन्य, धन्य उस वीरवर को।।३४।।


जेल से निकलते ही जनता ने मालाओं से -
लाद दिया, कन्धों पै उठा लिया ललन को।
ज्ञानवापी में उसके स्वागत में सभा सजी,
सारे काशीवासी टूट पड़े दरसन को।।
जय ‘‘चन्द्रशेखर’’ की, ‘‘भारत माता की जय’’,
‘‘गाँधी जी की जय’’ ने गुंजा दिया गगन को।
मचल रहा था जन-गण-मन-क्रान्ति-दूत,
शेखर के पावन वचन के श्रवण को।।३५।।

तालियों की गड़गड़ाहट संग पुष्पवृष्टि -
हुई, जब चढ़ा ‘‘चन्द्र’’ मंच पै भाषण को।
श्रद्धाँजलि शहीदों को देके श्रोताओं से बोला -
‘‘राजी से ये गोरे नहीं छोड़ेंगे वतन को’’।।
भाषा नहीं प्यार की ये कुटिल समझते हैं,
अतः देशवासियों उठाओ ‘‘गोली-गन’’ को।
काटेंगे अवश्य, ये विषैले-विषधर नाग,
पूर्व ही सँभल के कुचल डालो फन को।।३६।।

गोलियों का सामना करेंगे, हैं ‘‘आजाद’’ हम
गोरों की गुलामी से छुड़ायेंगे वतन को।
देश की आजादी हित मिटना स्वीकार हमें,
जियेंगे गुलामी में न हम इक क्षण को।।
एक बार दुष्ट डाल चुके हथकड़ी किन्तु,
अब कभी बाँध न पायेंगे इस तन को।
अभी तक तो हमारा शान्तिरूप ही है देखा,
अब दिखलायेंगे स्वक्रान्तिरूप इनको।।३७।।

फिर अन्य गणमान्य लोगों के भाषण हुए,
सबने सराहा मुक्तकण्ठ से ‘‘आजाद’’ को।
श्री शिवप्रसाद गुप्त व सम्पूर्णानन्द जैसी,
हस्तियों ने उस पै लुटाया प्रेमाह्लाद को।।
हो गया विख्यात साथ भाषण के ‘‘मर्यादा’’ में,
छपी तसवीर वीर बालक की बाद को।
पा के समाचार दौड़े पिताजी तुरन्त काशी,
बोले बेटा! ‘‘घर चल छोड़ दे जेहाद को’’।।३८।।

तात की ये बात सुन सुत ने जबाब दिया,
‘‘गोरों को मैं स्वामी कभी नहीं कह सकता।’’
आप कहते हैं - ‘‘घर रहूँ सुख से’’ परन्तु-
‘‘चैन से गुलामी में मैं नहीं रह सकता।।’’
‘‘धन-धान्य-धरा-धाम, देह तज सकता हूँ’’
‘‘राष्ट्र-अपमान किन्तु नहीं सह सकता।’’
देके शुभ आशिष पिताजी घर जाओ, अब -
हिन्द को ये दुष्ट गोरा नहीं दह सकता।।३९।।

लौट गये पिता किन्तु कूद पड़ा आन्दोलन -
में, सपूत वह पुनः नये जोरों शोरों से।
किन्तु पड़ गया मन्द-चन्द दिनों बाद ज्वार,
उठा था असहयोग का जो बड़े जोरों से।।
गाँधी जी का चौरी-चौरा-कांड से नाराज होना,
व्यर्थ ही था गोरे कभी जाते ना निहोरों से।
राष्ट्र मुक्ति हेतु सेतु क्रान्ति के रचाये ‘‘चन्द्र’’
लेके क्रान्ति-केतु बढ़ा लड़ने को गोरों से।।४०।।

ख्याति सुन ‘‘हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ’’ का था,
‘‘चन्द्र’’ को सदस्य क्रान्तिवीरों ने बना दिया।
संघ को हृदय सौंप दिया सहा हर दुख,
उन्होंने स्वदेश पै स्वयं को मिटा दिया।।
विकराल-क्रान्ति-ज्वाल जला, जवां शेरे दिल-
दल में शामिल किये, दल को बढ़ा दिया।
अन्नधनाभाव में वे रहे चने चबाके या -
फाके से ही रहे किन्तु गोरों को रूला दिया।।४१।।

‘गाजीपुर’ में महन्त एक जराजीर्ण-काय-
है असाध्य रोग ग्रस्त-त्रस्त-अस्तप्राय है।
उसके समीप है असीम धन-मठ सब,
किन्तु नहीं कोई योग्य शिष्य या सहाय है।।
धन मिल जायेगा अपार यदि हममें से,
शिष्य बन जाये कोई, सरल उपाय है।
साधु बना भेज दिया दल ने शेखर को था,
सबको सुहायी ‘‘रामकृष्ण’’ की ये राय है।।४२।।

शेखर ने लिखा पत्र ‘‘मठ से यों साथियों को,
हम सबका गलत अनुमान हो गया।
महन्त के पास मास दो गुजर गये मुझे,
गुजरा न यह फिर से जवान हो गया।।
रोज खूब करता है कसरत, कई-कई-
किलो दूध पीता खाके मेवा साँड हो गया।
मुझसे यहाँ पै अब रहा नहीं जाता, कर -
कर सेवा इसकी मैं परेशान हो गया।।४३।।

मच गई खलबली दल में पाते ही पत्र,
‘‘गोविन्द’’, ‘‘मन्मथ गुप्त’’ गये गुप्त वेश में।
देख दुर्ग-सम मठ रह गये दंग, खूब -
समझाया - ‘‘भाई चन्द्र रहो इसी भेष में।।
इस धन के समक्ष सब धनपति तुच्छ,
कुछ धैर्य धरो छोड़ो इसको न तैश में।
इस धन से हमारे होंगे मनसूबे पूरे,
इसी भाँति धारे रहो ध्यान अखिलेश में।।४४।।




हो गया विवश बस चन्द्र का न चल पाया
काट हर बात दोनों लौट गये दल में।
बुरी भाँति फँस गया शेखर बेचारा ऐसे,
जैसे फँस जाता कोई गज दल-दल में।।
घुटने लगा वहाँ पै हर दम दम, उठी
हठ, मठ तज कूद पड़ा रण स्थल में।
धन था न पास, आश छूट गई अब सब,
क्रान्ति-दल छिप गया गम के बादल में।।४५।।

जरमनी हथियार गुप्त जलयान से थे,
आ गये परन्तु दल पै न एक पाई थी।
गन-गोली-बम और बारूद मिल सकते थे,
कैसे ? पैसे बिना बड़ी भारी कठिनाई थी।।
ट्रेन से जाता हुआ राजस्व लूट लिया जाय,
राय यह ‘‘बिस्मिल’’ की सबको सुहाई थी।
किया था कमाल-माल लूट दस युवकों ने,
खुलेआम खिल्ली गोरी सत्ता की उड़ाई थी।।४६।।

नौ अगस्त सन उन्नीस सौ पच्चीस की शाम,
को ‘‘काकोरी’’ के निकट घटी एक घटना।
हवा संग बतियाती गाती उड़ी जा रही थी -
ट्रेन, यात्री सभी देख रहे थे सु-सपना।।
खिंचने से चैन, चैन उड़ गया सबका ही,
बंद हुआ पटरी पै गाड़ी का रपटना।
कैबिन से गार्ड दौड़ा देखने तुरन्त, हुए -
‘‘धाँय-धाँय’’ फायर तो, पड़ा उसे लुकना।।४७।।

गार्ड पै पिस्तौल तानते हुए शचीन्द्र बोले,
हरी बत्ती देता है क्यों, क्या तुझे है मरना।
हाथ जोड गार्ड गिड़गिड़ाया कि - ‘‘क्षमा करो’’
नाथ मेरे बच्चों को अनाथ मत करना।
बख्शी बोले - ‘‘एकदम लेट जा जमीन पर-
औंध मुँह, मार डाला जायेगा तू वरना।
झटपट धरा पै वो लेट गया उलटा हो,
नाम सुन मौत का है स्वाभाविक डरना।।४८।।

अंधकार किया झटपट चटकाये बल्ब,
जिससे किसी को कोई पहिचान पाये ना।
पलक झपकते ही हथियार बन्द, कब -
हो गये तैनात लोग यह जान पाये ना।।
गाड़ी में मेजर एक गोरे फौजियों के साथ,
थे पै वे ‘‘चूँ’’ करने की भी तो ठान पाये ना।
गोलियों की दनादन सुन चित्रलिखे-से वे,
क्रान्तिकारियों को कर परेशान पाये ना।।४९।।

रेलवे के खजाने का ट्रंक जमीं पर खींच,
खोलना चाहा पै चाबी उनके न पास थी।
माल डाल उस से निकालना असम्भव था,
विकट सुदृढ़ ऐसी बनावट खास थी।।
खुले बिना बक्से से निकालें माल किस भाँति,
यही सोच युवकों की मँडली उदास थी।
घन-छेनी से प्रहार किये कई वीरों ने पै,
छिद्रमात्र हुआ, यह देख दबी आश थी।।५०।।

पकड़ो पिस्तौल करूँ चौड़ा मैं सुराख यह,
कह-अशफाक उल्ला घन लेके आ पिले।
पुरजोर चोट से तिजोरी हुई खील-खील,
रुपयों से भरे थैले उनको वहाँ मिले।।
लगे चटपट-चादरों में माल बाँधने वो,
खुशी-खुशी सबके ही मन थे खिले-खिले।
किन्तु लखनऊ की तरफ से जो आती देखी,
रेलगाड़ी तो सभी के दृढ़ दिल भी हिले।।५१।।

सबने ही बन्दूकें, छुपा लीं इस भय से कि -
कही देख इन्हें गाड़ी यहीं रूक जाये ना।
हथियार बन्द गोरे हुए इसमें भी यदि,
तब तो चलाए बिना गोली बचा जाये ना।।
कोई न कोई तो ढेर हो ही जायेगा जरूर
किये औ कराये पर पानी फिर जाये ना।
बिना गड़बड़ी गाड़ी गुजर गई वो जब
सब बोले अब यहाँ और टिका जाये ना।।५२।।

चालाकी से लखनऊ पहुँचे ले माल सब,
फिर वे वहाँ से कहाँ गये नहीं ज्ञात ये।
जग-जंगल में ज्वाल के समान काकोरी की,
ट्रेन-डकैती की फैली बात रातोंरात ये।।
सुन सनसनी खेज-खबर ये अंगरेज,
चीखे-किन्होंने की खौफनाक खुराफात ये।
फाँसी पै चढ़ा दो फाँसे में जो भी फासिस्ट आयें,
ब्रिटिश सत्ता के सीने पर मारी लात ये।।५३।।

इस धर पकड़ में पकड़े पचासों ही बे-
गुनाह गुनहगार गोरी सरकार ने।
हत्या-राजद्रोह-लूटपाट के चलाये शीघ्र,
सब पै मुकदमें छिछोरी सरकार ने।।
पाँच सौ रुपये रोज ‘‘जगत नारायण’’ को -
दे, कराई पैरवी निगोड़ी सरकार ने।
सभी गुप्त बातें मुखबिरों ने बता दीं, लोग -
तोड़ लिए कई, चोरी-चोरी सरकार ने।।५४।।

गोविन्द वल्लभ-चन्द्र भानु औ मोहन जैसे,
क्रान्तिकारियों के थे वकील कई जोर के।
‘‘पन्त-दल’’ ने अकाट्य तीक्ष्ण - तर्क तीरों-द्वारा,
गोरों के वकील रख दिये झकझोर के।।
वर्ष बीत गया डेढ़, दस लाख रुपया औ
हुआ सरकारी खर्च चलते ही दौर के।
किन्तु फाँसी चार को औ कड़ी कैद बीसियों को,
दे दी, जज ने न सुने तर्क किसी ओर के।।५५।।

क्रान्तिकारी चुन-चुन देश-द्रोहियों ने दिये -
पकड़वा पै आजाद अभी भी फरार थे।
उन पै हुआ ईनाम भारी, भित्ति-भित्ति-चित्र,
चिपकाये, लालच में लोग बेशुमार थे।।
पल-पल बदल-बदल वेश घूमते थे,
शेखर निडर खाए बैठे गोरे खार थे।
पारे के समान झट जाते हाथ से खिसक,
चकमा पुलिस को वे देते बार-बार थे।।५६।।

कुछ काल काट काशी जी से पहुँचे वे झाँसी,
झौंककर धूल खूब आँखों में पुलिस की।
घर रहे देशभक्त चित्रकार शिक्षक श्री -
रूद्रनारायण के पै चिन्ता थी दबिश की।।
अतः ओरछा के घोर वन में वे रहे बन -
साधु ‘‘रूद्र जी’’ ने जब सलाह दी इसकी।
मोटर चलाना व सुधारना वे सहसा ही,
सीखने लगे, जो पड़ी नजर ब्रिटिश की।।५७।।

करना व्यायाम प्रातः मोटर चलाना नित,
साधना निशाना खूब जाकर के वन में।
चप्पे-चप्पे पर बैठी पुलिस को चकमा दे,
चुपचाप जाना कभी-कभी संगठन में।।
सिखलाना गन-गोली गोरों के विरूद्ध तीव्र,
क्रान्ति-ज्वाल धधकाना युवकों के मन में।
इस वक्त यही था समक्ष-लक्ष्य-लक्ष-लक्ष,
बहु विघ्न-बाधा आते-जाते थे जीवन में।।५८।।

चाहते थे चतुर चितेरे ‘‘रूद्र’’ एक चित्र,
खींचना चहेते चन्द्रशेखर आजाद का।
किन्तु थे हताश, मित्र को भी चित्र के लिए था,
इनकार में, सदैव उत्तर आजाद का।।
एक दिन नहाने के बाद तहमद में थे,
मान गया हृदय था प्रवर आजाद का।
‘‘मूँछ ऐंठ लूँ मैं’’ कहते ही था उठाया हाथ,
चित्र मित्र ने ले लिया सत्वर आजाद का।।५९।।

अलि-कुल-से थे घने-घुँघराले काले-काले-
बाल, भव्य भाल पर तेज था दमकता।
घड़ी बँधा बाँया हाथ ऐंठ रहा था कटार -
जैसी पैनी मूँछे मुख-चन्द्र था चमकता।।
कारतूसों की थी कसी कमर पै पेटी, हाथ-
दाँया माऊजर पर तभी आ धमकता।
कन्धे पै जनेऊ था सुशोभित शरीर-स्वर्ण-
जैसा शान से विशाल-वक्ष था झमकता।।६०।।

रियासत खनियाधाना के राजा कालकाजी
सिंह देव क्रान्तिकारियों के बड़े भक्त थे।
‘‘झाँसी में ही हैं आजाद’’ सुन ये प्रसन्न हुए,
भाव-भेंट के लिए उन्होंने किये व्यक्त थे।।
मोटर-मैकेनिक के गुप्त वेश में आजाद,
गये राजा साहब के यहाँ जिस वक्त थे।
हो गई प्रगाढ़ प्रीत, मीत बन गये दोनों,
क्रान्ति-दल करना वे चाहते सशक्त थे।।६१।।

खाना-पीना खेलना शिकार आदि सब कुछ,
शेखर के साथ ही थे महाराज करते।
यह देख चापलूस सोचने लगे - कि’’ राजा
अब न तनिक ध्यान हैं हमारा धरते।।
दरबारी चमचे इसी से लगे चिढ़ने पै
बेबस थे बस कुढ़-कुढ़ ही थे मरते।
शेखर ये भाँपते ही झाँसी से बम्बई गये,
बन कुली माल थे जहाजों पै वे भरते।।६२।।

सत्तु, चने खाते कभी-कभी भूखे ही सो जाते,
नील-नभ-चदरिया ओढ़ फुटपाथ पै,
पुलिसिया कुत्ते पीछे पड़े धोके हाथ हर
हथकण्डे चले ‘‘चन्द्र’’ आये नहीं हाथ पै।।
बम्बई में मिले बोले वीर सावरकर कि -
चन्द्र धो दो दाग ये जो लगा माँ के माथ पै।
कोटि-कोटि-कष्ट-कण्टकों से घिरा क्रान्ति-पथ,
परमेश-अनुकम्पा आप के है साथ पै।।६३।।

राष्ट्र-प्रेमी ‘‘श्री गणेश शंकर विद्यार्थी जी’’ का,
था ‘‘प्रताप’’ पत्र कानपुर से निकलता।
राष्ट्र-भाव-भरी रचनाएँ छपती थीं, जिन्हें
पढ़, जवानों में क्रान्ति-ज्वार था मचलता।।
हो गया प्रगाढ़-परिचय ‘‘चन्द्र’’ से थे खुश,
जान-जवाँ-दिल ‘‘दीप’’ देश पर जलता।
देशभक्त ‘भगत’ से हुई भेंट यहीं पर,
‘चन्द्र’-हृदय खुशी से बाँसो था उछलता।।६४।।

पाते ही भगत सिंह जैसा होनहार साथी,
शेखर का हौसला था द्विगुणित हो गया।
‘‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’’ के,
नाम से नवीन-दल था गठित हो गया।।
था अखिल भारतीय स्तर का ये क्रान्ति दल,
इसमें हरेक प्रान्त सम्मिलित हो गया।
सभी क्रान्तिकारियों के अनुरोध पर ‘चन्द्र’
‘‘कमाण्डर इन चीफ’’ चयनित हो गया।।६५।।

बड़े बेटे ‘‘सुखदेव’’ को निमोनिया निगल -
गया, गया उठ सर से पति का साया था।
बोझ से बुढ़ापे के न आपा था सँभल पाता,
माता जगरानी ने पै दुखों को उठाया था।।
‘‘भावरा’’ से आ बसी थीं कानपुर में ही हाय !
असहाय! बेटे के वियोग ने सताया था।
काकोरी-काण्ड के बाद से ही थे फरार ‘‘चन्द्र’’
माँ के दर्श का भी नहीं मौका मिल पाया था।।६६।।।

खुशी से थे खिले-खिले दिल दो बरस बाद,
मिले थे माँ-बेटे अहो! सुखद समय था।
‘‘नयनों के तारे ! प्यारे ! हूँ मैं तेरे ही सहारे,
कहा माँ ने गदगद हो उठा हृदय था।।
भारत माता के दुःख दूर करने को ही तो,
तुमने पिलाया माता मुझे निज पय था।
ऋण से उऋण तेरे हो न सकूँ मात, दे तू
वर, देशहित मिटूँ माँगता तनय था।।६७।।

लिया शुभाशीष शीश माँ के चरणों में धर,
शेखर खदेड़ने फिरंगियों को निकले।
था ‘‘प्रताप’’ ‘‘श्री गणेशशंकर’’ का निःसंकोच
चन्द्र घूमते थे गोरे जो भी अड़े कुचले।।
कुन्दन-भगत-शिव-राजगुरू-विजयादि,
वीरों को ले संग थे जुगाड़ सोचे अगले।
राह में लो रोक गाड़ी काकोरी के कैदियों की,
पिस्तौलों से कोर्ट को वो जेल से ज्यों ही चले।।६८।।

कोशिश की काकोरी के वीरों को भगाने की ये,
पर हर पहर था पहरा बड़ा कड़ा।
चौकस थी पुलिस न लग सका मौका हाय !
खाली हाथ क्रांतिकारियों को लौटना पड़ा।।
रोशन, लाहिड़ी, अशफाकउल्ला, बिस्मिल को,
गोरी सरकार ने था फाँसी पै दिया चढ़ा।
इनके लहू की लाल धार लख लाखों लाल,
लाल हो उठे औ खेल उन्होंने किया खड़ा।।६९।।

गोरे अधिकारियों का साइमन कमीशन
सन अट्ठाइस में आ धमका दमन को।
धूर्त-छलियों का झुण्ड अमन का नाम लेके,
करना ये चाहता था चौपट चमन को।।
चाहते हैं आगम न साइमन लौट जाओ,
हम सब गये जाग लगी आग मन को।
हर शहर ये गूँजे घोष रोष में आ गये,
सब भारतीय, सहा नहीं दुःशमन को।।७०।।

पहुँचा ज्यों ही लाहौर कमीशन ‘‘साइमन-
शीघ्र लौट जाओ’’ वहीं आये जिस ठौर से।
नारे ये लगाते चले लाखों लोग लाजपत-
जी के नेतृत्व में दशों दिशा गूँजी शोर से।।
लाठियों से निहत्थे लोगों को पीटा पुलिस ने,
चाहती थी नहीं हो विरोध किसी ओर से।
स्कॉट ने ‘‘पंजाब केसरी’’ पै लठ तड़ातड़-
जड़े, जान ‘‘जान जुलूस की’’ बड़े जोर से।।७१।।

हुये थे लहू से लथपथ लाला लाजपत-
राय हाय! जनता को कुचला झपटके।
गरजा सभा में ‘‘मोरी गेट’’ के मैदान मध्य,
घायल ‘शेरे-पंजाब’ पल हैं संकट के।।
बनेंगे ब्रिटिश शासन के कफन की कील,
मुझ पर लठ शठ ने हैं जो ये पटके।
सतरह नवम्बर सन अट्ठाईस को वे -
चल बसे, जालिमों के झेले बड़े झटके।।७२।।

सारे देश दौड़ गई शोक की लहर, कथा-
गोरों के कहर की थी शहर-शहर में।
भगत जुलूस में थे रहे सक्रिय, छवि थी-
घूमती शहीद लाला जी की ही नजर में।।
मुल्क की ये बेइज्जती नहीं सह सके, जल
उठी तीव्र ज्वाल प्रतिशोध की शेखर में।
खून से ही खून का था बदला लिया, सांडर्स-
मारा गया, दुष्ट ‘‘सर स्कॉट’’ के चक्कर में।।७३।।

‘‘जय’’ ने किया बहाना थाने के समक्ष, ठीक-
करने का साईकिल, लोगों को दिखाने को।
शाम के बजे थे चार निकला ज्यों ही बाहर
एक गोरा अफसर घर पर जाने को।।
करके मोटर साईकिल चालू चला, किया-
‘जय’ ने संकेत गुप्त गोलियाँ चलाने को।
राजगुरु, भगत ने कर दी बौछार, मार-
उसे, छिपने को दोनों भागे आशियाने को।।७४।।

भागते भगत, राजगुरु को दबोचने को,
दौड़े पुलिस के कुत्ते द्वार पै जो खड़े थे।
मारी टाँग पे जो गोली भगत ने ‘‘फार्न’’ के तो,
रुक गये सब भीरू यूँ ही पीछे पड़े थे।।
चमचा ‘‘चनन’’ चौकड़ी था हेकड़ी से भर-
रहा किन्तु चुपचाप ‘‘चन्द्र’’ छिपे खड़े थे।
‘‘चनन’’ को मजा मॉऊजर से चखाया, और-
उनको भी जो भी मरने को आगे अड़े थे।।७५।।

‘साण्डर्स’ की हत्या का संदेश देश-देश फैला,
शीघ्र भारतीय सुन हुए मगरूर थे।
पुलिस के छूटे थे पसीने-सीने पै सत्ता के,
गिरी गाज गोरों के गुरूर हुए चूर थे।।
करके था रख दिया नाक में वीरों ने दम,
शासन के लिए शूर वे हुए नासूर थे।
सरदी की रात थी पै हुआ था लाहौर गर्म,
नाकेबन्दी में भी बन्दे वे हुए काफूर थे।।७६।।


कूर्च-केश कटवाके गोरे बाबू बन गये,
वे असरदार बाजी पै लगाये प्राण थे।
सीने से लगे शचीन्द्र उनके थे राजगुरु,
बने चाकर चतुर करते प्रयाण थे।।
दुर्गाभाभी बिलायती पत्नी बन गई, धन्य-
धन्य! धैर्य-धुरी देश के ही ध्रुव-ध्यान थे
लाँघे थे दुर्गम दुर्ग दुर्गादेवी की दया से,
भगत ने भगवती-चरण महान थे।।७७।।

थे आजाद पंछी फुर्र फौरन ही हो गये वे,
नहीं फँस सके सब काट डाले जाल थे।
भगे वे भगवे-भेष में भ्रमित कर दिया,
राम-नाम रटते वे चले मस्त चाल थे।।
जहाँ-तहाँ बम बनाने के कारखाने खोले,
दुष्टों को दिखाना चन्द्र चाहते कमाल थे।
कलकत्ता में सीखी थी बम बनाने की विधि-
भगत ने, गोरों पर भारी हुए लाल थे।।७८।।

औद्योगिक विवाद औ जनता-सुरक्षा-बिल
गोरों ने बनाये, चला नई कूट चाल को।
इन बिलों द्वारा प्रतिबन्धित था किया, हर
जन-आन्दोलन, मजदूरी हड़ताल को।।
देख ‘‘बिल’’ बिल बिला उठा देश, बलबले
दिलों में वीरों के उठ बदलने हाल को।
‘‘दत्त’’ व ‘‘भगतसिंह’’ ने था बम-धमाकों से,
देहली में दहलाया ‘‘असेम्बली-हाल’’ को।।७९।।

उन्नीस सौ उंतीस की आठ अप्रैल को थे,
अरे! सुने बहरों ने भी धमाके बम के।
छा गया धुआँ ही धुआँ, ‘‘क्रांतिकारी-पम्पलेट’’,
बरसे गगन से थे वहाँ थम-थम के।।
क्रांति होवे चिरंजीवी ‘‘इंकलाब जिंदाबाद’’,
‘‘गोरों का हो नाश’’ गूँजे नारे यह जमके।
होश औ हवास हुए गुम, गश खाके गिरे,
‘‘मेम्बर-असेम्बली’’ के मारे भय, गम के।।८०।।

इधर-उधर धर सिर पर पैर सब-
नर भाग खड़े हुए चीखते-चिंघाड़ते।
चाहते अगर भाग सकते थे क्रान्तिवीर,
बड़े ही मजे से, भीरू गोरे क्या बिगाड़ते।।
आ गई पुलिस झट, उनको पकड़ने को,
पर शेरे दिल वहीं रहे वे दहाड़ते।
हुए नहीं परेशान-शान से खड़े थे सीना-
ताने मस्ताने गोरों को ही थे लताड़ते।।८१।।

हथकड़ी हाथों में न डाल सकने की हुई-
हिम्मत, सिपाहियों की, सब डर रहे थे।
हो गये हैरान खुद, होने को हवाले जब,
पुलिस की ओर वे कदम धर रहे थे।।
पुलिस हिरासत में जाके भी ‘भगत’, ‘दत्त’,
‘‘इंकलाब जिंदाबाद’’ घोष कर रहे थे।
कायम मुकदमा हो गया सजा फाँसी की थी
निश्चित, पै गोरे न्याय-ढोंग भर रहे थे।।८२।।

सांडर्स की हत्या का भी खोला भेद सब कुछ
कुछ दुष्ट देशद्रोही ज्यादा ही मक्कार थे।
किये जयगोपाल कैलाशपति व फणीन्द्र,
जैसे मुखबिरों ने गोरे खबरदार थे।।
पकड़-पकड़कर कर दिये बन्द वीर,
राजगुरु, सुखदेव, विजय कुमार थे।
उदासी की दलदल में था धँसा दल, हुए-
शिववर्मा जैसे वीरों को भी कारागार थे।।८३।।

अखरा आजाद को अभाव भारी भगत का,
दल के वह असरदार सरदार थे।
भुगते भगत सजा फाँसी की असम्भव है,
किया निश्चय ‘‘चन्द्र’’ बड़े ही खुद्दार थे।।
यशपाल भाई भगवती चरण, सुशीला-
दीदी, दुर्गाभाभी सभी के यही विचार थे।
भगत को जेल से भगाने की जुगत जान-
दाँव पै लगा के करी सभी होशियार थे।।८४।।

धावा बम-गोलो, पिस्तौलों द्वारा पुलिस पै,
बोलके छुड़ाया जाये ‘‘दत्त’’ सरदार को।
लाहौर सेंट्रल जेल से बाहर ज्यों ही आयें,
दिखलाया जाये जरा जोर सरकार को।।
सभी अभियुक्त मुक्त कराने के लिए चुना
एक जून उन्नीस सौ तीस रविवार को।
उठती थीं मानस में तरल तरंगे जंगे-
आजादी के यौद्धा थे तैयार तकरार को।।८५।।

हाय! योजना पै पानी फेर गई वो अशुभ-
शाम अट्ठाईस मई की दुखद बड़ी थी।
रावी तट के निकट फट गया हाथ में ही,
बम, जाँच के दौरान विपद की घड़ी थी।।
हाथ की तो बात ही क्या जल गया, गात सारा,
मांस-लोथड़ों से रक्त-धार फूट पड़ी थी।
सारी आँत पेट से बाहर हो चुकी थीं, चोट
विस्फोट की थी मौत सामने ही खड़ी थी।।८६।।

वेदना असह्य दिल में दबाते हुए बोले,
भगवती चरण यूँ सुखदेव राज से।
चुक गई बाती सब जल गया तेल ‘दीप’
जीवन का खेल खत्म हुआ यह आज से।।
जाकर खबर कर दो ये दल में कि मुझे,
बम ले बैठा न बच सका यमराज से।
मेरे बचने की नहीं अब कोई आशा भाई,
टाँग ये कराओ ठीक अपनी इलाज से।।८७।।

सुखदेवराज न थे चाहते कराहते का,
छोड़ना यूँ साथ पर बड़ी मजबूरी थी।
एक ओर मित्र का था प्यार और दूजी ओर,
दल में खबर ये पहुँचनी जरूरी थी।।
धीरे-धीरे छा रही थी धरा पै अँधेरी शाम,
दल के ठिकाने की वहाँ से काफी दूरी थी।
देखभाल हेतु साथी ‘बच्चन’ को पास छोड़,
दौड़े, धरी रह गई योजना अधूरी थी।।८८।।


झटपट तट पै जा पहुँचे दो साथियों के-
साथ यशपाल, हाल बहुत गम्भीर था।
चन्द्र चेहरे की झलक की ललक थी, दिल-
भगत की मुक्ति युक्ति के लिए अधीर था।।
धीर वीर झेल रहा पीर के था तीर, यम-
मर्म को कुरेद रहा होकर बेपीर था
लाद के हाथों या कन्धों पै ले जाना मुश्किल था-
बुरी भाँति लोथड़ो में बदला शरीर था।।८९।।

कर पाये जब लों इलाज का प्रबन्ध हाय !
असहाय ‘‘बोहरा’’ ने पा ली वीर गति थी।
अगली प्रभात बात खुलने के खौफ से की,
वहीं पै अन्तिम क्रिया, सभी की सम्मति थी।।
दल के थे दिल, दायाँ हाथ थे आजाद का वे,
उनके प्रयाण हा! अपूरणीय क्षति थी।
भाभी के सुखों का तो मृणाल मानों तोड़ डाला,
दुर्भाग्य-गज ने की नीचताई अति थी।।९०।।

भगत की मुक्ति इच्छा आखिरी थी ‘‘बोहरा’’ की
पूर्ण करने की जिसे ‘चन्द्र’ ने भी ठानी थी।
निश्चित दिनाँक एक जून को तैयार होके,
जेल में जा छिपे किन्तु बदली कहानी थी।।
पूर्व निश्चयानुसार किया न संकेत गुप्त,
‘भगत’ ने साथियों को बहुत हैरानी थी।
‘‘बोहरा’’ के बाद जो ‘‘आजाद’’ को भी छीन लेवे,
‘भगत’ को चाहती न ऐसी जिन्दगानी थी।।९१।।

हो गया विफल दल ऐसी विपरीत बात,
चली कली खुशी की हरेक झड़ गई थी।
किन्तु फिर भी न छोड़ी तदवीर वीर क्रान्ति-
दल के खिलाफ ये खुदाई अड़ गई थी।।
गरमी से रात को ठिये पै खुद फट गया,
बम अचानक मच भगदड़ गई थी।
ऊपर आ पड़ा था पहाड़ परेशानियों का,
तकदीर बहुत ही मन्द पड़ गई थी।।९२।।

हो गया था तितर-बितर क्रान्ति-दल ‘‘चन्द्र’’
सोचते थे कैसे करें सुगठित इसको।
आसन प्रयागराज आ-जमाया आजमाया,
क्या बतायें उन्होनें वहाँ पै किस किसको।।
जवाहरलाल नेहरू के घर जाके मिले,
वहाँ पै भी देखा खूब करके कोशिश को।
अफसोस ! घृणित ‘‘आतंकवाद’’ नाम दिया,
‘‘नेहरू’’ ने, ‘‘चन्द्र’’ क्रान्ति कहते थे जिसको।।९३।।

‘चन्द्र’ ने जवाब देते हुए ये सटीक कहा-
नेहरू जी ! शान्ति से हैं राज नहीं मिलते।
आपकी अहिंसा में जो होता कोई दम तो ये,
बुरे दिन देखने को आज नहीं मिलते।।
कभी का हो गया होता भारत आजाद यदि,
गाँधी जी की शान्ति के रिवाज नहीं मिलते।
सुमनों की सजी सेज होती होते सुख साज,
कष्ट-कंटकों के सरताज नहीं मिलते।।९४।।

परतन्त्रता का ये तमाम तमतोम तूर्ण,
चूर्ण करने की पूर्ण ताकत है क्रान्ति में।
होती है प्रचण्ड ज्वाला-ज्वाल ज्यों कराल-काल-
कालिमा का, त्यों ही ये है, रहो नहीं भ्रान्ति में।।
चमाचम चमक दमक उठते विदग्ध,
कुन्दन की भाँति चुँधियाते चश्म कान्ति में।
आने वाले वक्त में हो जायेगा मालूम सब,
कितना है दमखम गाँधीवादी शान्ति में।।९५।।

खूब हो गयी थी तंग आ गई थी नानी याद,
सत्ता को आजाद की आजादी तड़पाती थी।
धरे थे ईनाम भारी-भारी सरपर और,
लोभी गद्दारों के गिरोहों को उकसाती थी।।
रहने लगे थे यूँ तो चन्द्र भी बेचैन चैन,
दिन रैन क्योंकि अब पुलिस चुराती थी।
चंपत हो लेते थे चतुर चकमा दे किन्तु,
हाथ मलकर गोरी सत्ता रह जाती थी।।९६।।

सन् इकत्तीस की है सत्ताईस फरवरी,
बड़ी मनहूस न था पता ये आज़ाद को।
सुखदेवराज को ले साथ अलफ्रेड पार्क,
बैठ के विचारते थे दल के विषाद को।।
पास से गुजरते जो देखा वीरभद्र को तो,
चौंक पड़े चन्द्र तज दिया था प्रमाद को।
शायद न देखा हमें, अभद्र ने यह सोच,
दोनों ने बढ़ाया आगे अपने संवाद को।।९७।।

सनसनाती आ धँसी सहसा ही गोली एक-
जाँघ में, आजाद की भृकुटि तन गई थी।
गोली का जवाब गोली मिला, हाथों हाथ हुआ-
हाथ ‘‘नॉट बावर’’ का साफ, ठन गई थी।।
पीछे पेड़ के जा छुपा झपट के झट ‘‘नाट’’
पुलिस के द्वारा ले ली पोजीशन गई थी।
घिसट-घिसट के ही ले ली ओट जामुन के,
पेड़ की आजाद ने भी, बात बन गई थी।।९८।।

दनादन गोलियों की हो गई बौछार शुरू,
पुलिस न थाम सकी शेखर के जोरों को।
दाईं भुजा बेध गोली फेफड़े में धँस गई
तो भी भून डाला बायें हाथ से ही गोरों को।।
साफ बच निकला था साथी सुखदेवराज,
अकेले आजाद ने छकाया था छिछोरों कों।
एस०पी० विश्वेसर का जब उड़ा जबड़ा तो,
हड़बड़ा उठे खौफ हुआ भारी औरों को।।९९।।

था अचूक उनका निशाना बायें हाथ से भी
गोरों को चखाया खूब गोलियों के स्वाद को।
चन्द्र ने अकेले ही पछाड़ा अस्सी सैनिकों को,
होता था ताज्जुब बड़ा देख के तादाद को।।
दिन के थे बज गये दस यूँ ही आध घंटा,
गुजर गया था जूझते हुए आजाद को।
शनैः शनैः शिथिल शरीर हुआ गोलियों से,
भर भी न पाये पिस्तौल वह बाद को।।१००।।


शेखर की तरफ से स्वयमेव गोलियों की,
दनदन कुछ देर बाद बंद हो गई।
फुर्र हो गया आजाद पंछी देह रूपी डाली,
धरती पै गिरकरके निस्पंद हो गई।।
बात छूने की तो दूर पास तक भी न आये,
सभी, गोरों की तो गति-मति मंद हो गई।
दागी थी दुबारा गोली कायरों ने लाश पर,
दहशत दिल में थी यों बुलंद हो गई।।१०१।।

ब्रिटिश-सत्ता का पत्ता-पत्ता बड़ी बुरी भाँति,
अरे ! जिसकी हवा से काँपे थर-थर था।
खौफ भी था खाता खौफ, खतरा था कतराता,
जिससे बड़े से बड़ा डरे बर्बर था।।
गिरेबाँ पकड़ के गिराये गद्दी से गद्दार,
पँहुचाया जिसने गदर दर-दर था।
किया था जवान वो जेहाद फिर आजादी का,
जालिमों के जुल्मों ने जो किया जर्जर था।।१०२।।

परम पुनीत नवनीत सम स्निग्ध शुभ्र,
सरस सुसेव्य शुचि सुधा सम पेय है।
शशि-सा सुशीतल, अतीव उष्ण सूर्य-सम,
उग्र रुद्र सा, प्रशान्त सागरोपमेय है।।
सर्वदा अजेय वह, जिसका प्रदेय श्रेय,
रहा भारतीय जन मानस में गेय है।
धन्य-धन्य अमर आजाद चन्द्रशेखर वो,
जिसका चरित्र चारू धरम धौरेय है।।१०३।।

कोड़े खूब झेले पेले कोल्हू पाया कालापानी,
दे दीं अनगिन कुर्बानियाँ जेहाद में।
भूख-प्यास भूल भटके जो भक्त उम्रभर,
देशहित पायीं परेशानियाँ प्रसाद में।।
माँ की आबरू के लिए ही जो जिये मरे, बस
उन्हीं की सुनाते हैं कहानियाँ उन्माद में।
करते अखर्व गर्व सर्व भारतीय, पर्व-
पावन मनाते बलिदानियों की याद में।।१०४।।


मोम हो गई थीं गुलामी की वजह से जो भी,
बदल गईं वही जवानियाँ फौलाद में।
गोरों के गुरूर एक चुटकी में किये चूर,
हो गये काफूर वे ब्रिटानियाँ तो बाद में।।
फूँकी नई जान जंगे आजादी हो उठी जिंदा,
जादू था, अजब थी रवानियाँ आजाद में।
करते पूजन जन-जन, मन-मंदिर में,
बस रह गयीं है निशानियाँ ही याद में।।१०५।।

प्रभो ‘चन्द्रशेखर’ आदर्श हों हमारे सदा,
प्राणों की पिपासा, बुझे प्रेमाह्लाद भाव से।
परहित नित हो निहित प्राणियों में सब,
विरहित जन-मन हो विवाद भाव से।।
दमके ‘संदीप’ दिव्य द्युति नव जीवन में,
धधके नवल क्रांन्ति उन्माद भाव से।
वाणी का विलास औ हृदय का हुलास लिए,
कवि-काव्य का विकास हो आजाद भाव से।।१०६।।

जय-जय विस्मय विषय चन्द्रशेखर हे !
रण-चातुरी से तेरी रिपु गया हार है।
जय-जय विनय निलय चन्द्रशेखर हे !
झुका आज चरणों में सकल संसार है।।
जय-जय सदय हृदय चन्द्रशेखर हे !
दिव्य आचरण तब महिमा अपार है।
जय-जय अभय आजाद चन्द्रशेखर हे !
चरणों में विनत नमन बार-बार है।।१०७।।

हे प्रकाश पुंज चन्द्रशेखर प्रखर तव-
पाने को कृपा-प्रसाद फैली शुभाँजलि है।
अमर सपूत क्रान्ति दूत चन्द्रशेखर हे !
शुभ चरणों में मेरी यह श्रद्धाँजलि है।।
अचल हिमादि्र-सम द्रुत मनोवेग-सम,
अनुपम जीवट हे तुम्हें पुष्पाँजलि है।
अद्वितीय नेता हे स्वातन्त्र्य भाव चेता, जेता,
तुमको ‘संदीप’ देता स्नेह भावाँजलि है।।१०८।।

लेखन-सृजन है कठिन, कवि द्वारा प्रभो !
आपकी महती कृपा-शक्ति-काव्य-प्राण है।
कल्पना तुम्हीं हो तुम्हीं कविता हो कवि तुम्हीं,
‘दीप’ काव्य का प्रकाश होना वरदान है।।
‘‘चन्द्रशेखर आजाद-शतक’’ सुपूर्ण हुआ,
परम प्रसन्न मन धरे तव ध्यान है,
प्रभो क्षमावान क्षमा कीजिए अजान जान,
बालक से त्रुटियाँ हो जाना तो आसान है।१०९।।