Saturday, February 28, 2009

हो जाये सरकलम कलम ये नहीं रुकेगी।।

रुक जाये ये सूर्य, चाँद चाहे रुक जाये।
रुक जाये ये सृष्टि चक्र चाहे रुक जाये।।
रुक जाये ये वायु वेग जल का रुक जाये
रुक जाये प्रश्वास श्वास चाहे रुक जाये
जो मुझमें संदीप ज्योति वह नहीं बुझेगी
हो जाये सरकलम कलम ये नहीं रुकेगी।।


उदय अस्त न होवें चाहे सूरज चाँद सितारे,
गंगा यमुना सूखें चाहे सूखें सागर सारे।।
उथल पुथल हो धरती चाहे काल खड़ा हो द्वारे ,
हो जाये सर कलम कलम ना कभी रुकेगी।।

Friday, February 27, 2009

आज़ाद बलिदान दिवस

सन् इकत्तीस की है सत्ताईस फरवरी,
बड़ी मनहूस न था पता ये आज़ाद को।
सुखदेवराज को ले साथ अलफ्रेड पार्क,
बैठ के विचारते थे दल के विषाद को।।
पास से गुजरते जो देखा वीरभद्र को तो,
चौंक पड़े चन्द्र तज दिया था प्रमाद को।
शायद न देखा हमें, अभद्र ने यह सोच,
दोनों ने बढ़ाया आगे अपने संवाद को।।९७।।

सनसनाती आ धँसी सहसा ही गोली एक-
जाँघ में, आजाद की भृकुटि तन गई थी।
गोली का जवाब गोली मिला, हाथों हाथ हुआ-
हाथ ‘‘नॉट बावर’’ का साफ, ठन गई थी।।
पीछे पेड़ के जा छुपा झपट के झट ‘‘नाट’’
पुलिस के द्वारा ले ली पोजीशन गई थी।
घिसट-घिसट के ही ले ली ओट जामुन के,
पेड़ की आजाद ने भी, बात बन गई थी।।९८।।

दनादन गोलियों की हो गई बौछार शुरू,
पुलिस न थाम सकी शेखर के जोरों को।
दाईं भुजा बेध गोली फेफड़े में धँस गई
तो भी भून डाला बायें हाथ से ही गोरों को।।
साफ बच निकला था साथी सुखदेवराज,
अकेले आजाद ने छकाया था छिछोरों कों।
एस०पी० विश्वेसर का जब उड़ा जबड़ा तो,
हड़बड़ा उठे खौफ हुआ भारी औरों को।।९९।।

था अचूक उनका निशाना बायें हाथ से भी
गोरों को चखाया खूब गोलियों के स्वाद को।
चन्द्र ने अकेले ही पछाड़ा अस्सी सैनिकों को,
होता था ताज्जुब बड़ा देख के तादाद को।।
दिन के थे बज गये दस यूँ ही आध घंटा,
गुजर गया था जूझते हुए आजाद को।
शनैः शनैः शिथिल शरीर हुआ गोलियों से,
भर भी न पाये पिस्तौल वह बाद को।।१००।।


शेखर की तरफ से स्वयमेव गोलियों की,
दनदन कुछ देर बाद बंद हो गई।
फुर्र हो गया आजाद पंछी देह रूपी डाली,
धरती पै गिरकरके निस्पंद हो गई।।
बात छूने की तो दूर पास तक भी न आये,
सभी, गोरों की तो गति-मति मंद हो गई।
दागी थी दुबारा गोली कायरों ने लाश पर,
दहशत दिल में थी यों बुलंद हो गई।।१०१।।

ब्रिटिश-सत्ता का पत्ता-पत्ता बड़ी बुरी भाँति,
अरे ! जिसकी हवा से काँपे थर-थर था।
खौफ भी था खाता खौफ, खतरा था कतराता,
जिससे बड़े से बड़ा डरे बर्बर था।।
गिरेबाँ पकड़ के गिराये गद्दी से गद्दार,
पँहुचाया जिसने गदर दर-दर था।
किया था जवान वो जेहाद फिर आजादी का,
जालिमों के जुल्मों ने जो किया जर्जर था।।१०२।।

परम पुनीत नवनीत सम स्निग्ध शुभ्र,
सरस सुसेव्य शुचि सुधा सम पेय है।
शशि-सा सुशीतल, अतीव उष्ण सूर्य-सम,
उग्र रुद्र सा, प्रशान्त सागरोपमेय है।।
सर्वदा अजेय वह, जिसका प्रदेय श्रेय,
रहा भारतीय जन मानस में गेय है।
धन्य-धन्य अमर आजाद चन्द्रशेखर वो,
जिसका चरित्र चारू धरम धौरेय है।।१०३।।

कोड़े खूब झेले पेले कोल्हू पाया कालापानी,
दे दीं अनगिन कुर्बानियाँ जेहाद में।
भूख-प्यास भूल भटके जो भक्त उम्रभर,
देशहित पायीं परेशानियाँ प्रसाद में।।
माँ की आबरू के लिए ही जो जिये मरे, बस
उन्हीं की सुनाते हैं कहानियाँ उन्माद में।
करते अखर्व गर्व सर्व भारतीय, पर्व-
पावन मनाते बलिदानियों की याद में।।१०४।।


मोम हो गई थीं गुलामी की वजह से जो भी,
बदल गईं वही जवानियाँ फौलाद में।
गोरों के गुरूर एक चुटकी में किये चूर,
हो गये काफूर वे ब्रिटानियाँ तो बाद में।।
फूँकी नई जान जंगे आजादी हो उठी जिंदा,
जादू था, अजब थी रवानियाँ आजाद में।
करते पूजन जन-जन, मन-मंदिर में,
बस रह गयीं है निशानियाँ ही याद में।।१०५।।

प्रभो ‘चन्द्रशेखर’ आदर्श हों हमारे सदा,
प्राणों की पिपासा, बुझे प्रेमाह्लाद भाव से।
परहित नित हो निहित प्राणियों में सब,
विरहित जन-मन हो विवाद भाव से।।
दमके ‘संदीप’ दिव्य द्युति नव जीवन में,
धधके नवल क्रांन्ति उन्माद भाव से।
वाणी का विलास औ हृदय का हुलास लिए,
कवि-काव्य का विकास हो आजाद भाव से।।१०६।।

जय-जय विस्मय विषय चन्द्रशेखर हे !
रण-चातुरी से तेरी रिपु गया हार है।
जय-जय विनय निलय चन्द्रशेखर हे !
झुका आज चरणों में सकल संसार है।।
जय-जय सदय हृदय चन्द्रशेखर हे !
दिव्य आचरण तब महिमा अपार है।
जय-जय अभय आजाद चन्द्रशेखर हे !
चरणों में विनत नमन बार-बार है।।१०७।।

हे प्रकाश पुंज चन्द्रशेखर प्रखर तव-
पाने को कृपा-प्रसाद फैली शुभाँजलि है।
अमर सपूत क्रान्ति दूत चन्द्रशेखर हे !
शुभ चरणों में मेरी यह श्रद्धाँजलि है।।
अचल हिमादि्र-सम द्रुत मनोवेग-सम,
अनुपम जीवट हे तुम्हें पुष्पाँजलि है।
अद्वितीय नेता हे स्वातन्त्र्य भाव चेता, जेता,
तुमको ‘संदीप’ देता स्नेह भावाँजलि है।।१०८।।

लेखन-सृजन है कठिन, कवि द्वारा प्रभो !
आपकी महती कृपा-शक्ति-काव्य-प्राण है।
कल्पना तुम्हीं हो तुम्हीं कविता हो कवि तुम्हीं,
‘दीप’ काव्य का प्रकाश होना वरदान है।।
‘‘चन्द्रशेखर आजाद-शतक’’ सुपूर्ण हुआ,
परम प्रसन्न मन धरे तव ध्यान है,
प्रभो क्षमावान क्षमा कीजिए अजान जान,
बालक से त्रुटियाँ हो जाना तो आसान है।१०९।।

Thursday, February 26, 2009

दैनिक जागरण से साभार

आज़ाद मेरे आदर्श हैं किशोरावस्था में लिखे क्रांतिकाव्य आज़ाद-शतक को पढ़्ने के लिये पुन:ब्लॉग पर आएं।
Feb 26, 12:19 pm

नई दिल्ली। अंग्रेजों को नाकों चने चबवाने के चंद्रशेखर आजाद के किस्से हर भारतीय जानता है। आलम ये था कि जब पंडितजी को जिंदा पकड़ने की अंग्रेजों की तमाम कोशिशें असफल हो गईं तो उन्होंने एक अचूक दांव खेला। आजाद को मारने के लिए स्काटलैंड यार्ड से बाकायदा एक शार्प शूटर नाट वावर भारत बुलाया गया।

27 फरवरी, 1931 को आजाद इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में अपने साथी से मिलने पहुंचे। मुखबिर की सूचना के आधार पर अंग्रेजों ने उन्हें वहां घेर लिया। आजाद का प्रण था कि अंग्रेज उन्हें कभी जिंदा नहीं पकड़ सकेंगे। और उन्होंने इसे साबित भी कर दिखाया। अंग्रेज उन्हें कभी जिंदा गिरफ्तार नहीं सके। बाद में क्रांतिकारियों के डर से वावर को मुंबई भेज दिया गया।

तत्कालीन आईजी की पुस्तक नो टेन कमांडमेंट्स

ब्रिटिश पुलिस के तत्कालीन आईजी एच.टी. हालिंस की पुस्तक 'नो टेन कमांडमेंट्स' में इसका विवरण मिलता है। पुस्तक के अनुवादक नरेश मिश्र के मुताबिक 'नो टेन कमांडमेंट्स' में आजाद के शहीद होने के बाद वावर को मुंबई भेजने की घटना का उल्लेख है। हालांकि किताब में इस बात का कहीं जिक्र नहीं है कि आजाद ने खुद को गोली मारी थी।

जिंदा नहीं पकड़ सके अंग्रेज

मिश्र बताते हैं कि पुलिस कानपुर से ही आजाद का पीछा कर रही थी। उन्हें पता था कि आजाद अचूक निशानेबाज हैं और अपने पास हमेशा पिस्तौल रखते हैं। 27 फरवरी को अल्फ्रेड पार्क में अपने एक साथी से मिलने पहुंचे आजाद को अंग्रेजों के एक मुखबिर ने देख लिया। सूचना मिलते ही वावर टीम लेकर अल्फ्रेड पार्क पहुंच गया। अपने घिरने का एहसास होते ही आजाद ने साथी को वहां से रवाना किया और अकेले ही मोर्चे पर डट गए। जैसे ही वावर उनके पास पहुंचा, आजाद ने उसके हाथ में गोली मार दी। अंग्रेजों और आजाद के बीच 25 मिनट तक गोलीबारी चली। आखिर जब उनके पास सिर्फ एक ही गोली बची तो उन्होंने खुद को गोली मार ली।

अंग्रेजों को भारी पड़ी 15 डंडे मारने की सजा

चंद्रशेखर आजाद का जन्म 23 जुलाई, 1906 को झाबुआ [मध्यप्रदेश] में हुआ था। उनके पिता का नाम सीताराम तिवारी व माता का नाम जगरानी देवी था। 15 साल की उम्र में उन्हें पहली और आखिरी बार ब्रिटिश सरकार का विरोध करते पकड़ा गया। जज के सामने उन्होंने अपना नाम आजाद बताया। उन्हें छोड़ दिया गया, लेकिन इससे पहले 15 डंडे मारने की सजा दी गई। बस यहीं से शुरू हुआ चंद्रशेखर आजाद का क्रांतिकारी सफर। हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के संस्थापक सदस्य रहे आजाद ने ही काकोरी ट्रेन लूट और लाला लाजपत राय के हत्यारे सांडर्स को मारने की योजना तैयार की थी।

Wednesday, February 25, 2009

होली

सात जनम तक भी ना छुटेगा याद रहेगा सारी उमर।
प्रेम रंग में रंग डालेंगे दिलवर तेरे दिल की चुनर।।

कंचन काया पिचकारी की बौछारों से तर होगी।
लाल गुलाल की लाली निराली गोरे गालों पर होगी।।
रंग बिरंगी कर देंगे प्रियतम हम तोरी पतरी कमर ।।।

भागोगे जो दूर तुम हमसे छम छम पायल खनकेगी ।
भीगे अम्बर के अन्दर से देह दामिनी दमकेगी।।
इन्हें रोकने को ज्यों रुकोगे दामन में लेगें तभी भर।।

खुल कर खेलो होली प्रिये संग मन में उमडा भाव अनंग।
नाचो गाओ रंग लाओ अंग अंग उमड़ी उमंग।।
’दीप‘ नेह के प्यासे है हम छोड़ेंगे न कोई कसर।।

Tuesday, February 24, 2009

दवा दिल की बन दिलरुबा

दवा दिल की बन दिलरुबा दिल खिला दो।
बहुत प्यास है जाम ए लब ये पिला दो।।

ना शरमाओ चिलमन हटाओ जरा ये,
कि मदहोश कर दो उठाओ निगाहें।
सिमट जाओ बाहों में तुम पास आके,
कि जिससे शुरू प्यार का सिलसिला हो।।

घटाओं में जुल्फों की हमको छुपा लो,
मुहब्बत के दरिया में हमको डुबा लो।
यों खो जायें तुममें ज्यों भँवरा कँवल में,
सनम अपनी सासों में हमको बसा लो।।

तुम्हें देख चंदा हुआ पानी पानी,
हमें मार डालेगी तेरी जवानी।
खुदा की महरबानी ओ मेरी रानी ,
शुचि स्नेह में दीप का दिल डुबा दो।।

Wednesday, February 18, 2009

सो रहा क्यों नौजवां ?

है अशान्त देश फिर भी सो रहा क्यों नौजवां ?
बीज खुद ही दासता के बो रहा क्यओं नौजवां ?

सरहदों पे शत्रुसेना युद्ध के लिए खड़ी।
बिलख रही है सभ्यता व संस्कृति कहीं पड़ी।।
कायरों की भाँति किन्तु रो रहा क्यों नौजवां ?

शिवा प्रताप जैसे वीर लुप्त हो गये कहाँ।
घोष वन्देमातरम् प्रलुप्त हो गये कहाँ।।
कामी बनके देश को डुबो रहा क्यों नौजवां ?

जम्मू-काश्मीर धू-धु करके दखो जल रहा।
पंच नद प्रदेश प्यारा मोम सा पिघल रहा।।
हो खड़ा समय को व्यर्थ खो रहा क्यों नौजवां ?

चाहे तो तूफान का भी तू बदल दे आज रूख।
हिमाद्री को हिला दे और दुःख को बना दे सुख।।
फिर भी तू हताश आज हो रहा क्य नौजवां ?

Saturday, February 14, 2009

प्यार करते हैं बेइन्तहा

प्यार करते हैं बेइन्तहा इम्तहां चाहे ले ले जहाँ।
हम ना होंगे ज़ुदा जाने जाँ हम हैं दो जिस्म और एक जाँ॥

चाँदनी चाँद में ज्यों बसी,फूल में है ज्यों मीठी हँसी।
त्योंही उर में बसी उर्वशी छोड़कर तुम ये सारा जहाँ॥

सुन हकीकत ऐ हुस्ने परी,मैं हूँ शायर हो तुम शायरी।
चश्मो-दिल में हो कब से मेरी कह नहीं सकती है ये जुबाँ॥

बिन पिए भी नहीं होश है,क्या नशीला ये आगोश है।
जाम-ए-लब में भरा जोश है मिलगये हैं ज़मीं आसमां॥

मय मयस्सर हुई ही नहीं हमको दुनिया में ऐसी कहीं।
जैसी तुमने पिलाई हसीं उम्रभर के लिए मेहरबाँ॥

गुलबदन का बदन अनछुआ एक भँवरे ने जब आ छुआ।
बदहवासी में ऐ साकिया मिट गये सरहदों के निशां॥

Thursday, February 12, 2009

गर्म अश्कों में जल रही होंगी

गर्म अश्कों में जल रही होंगी,
सुर्ख़ आँखें पिघल रही होंगी।
ले मिलन की नवीन उम्मीदें,
आहें दिल से निकल रही होंगी॥

नज़र से वो सभी की बच बचके,
मुँह गीले सिरहाने पै रख के।
पड़ीं होंगी जुदाई में तनहा,
सिसकियाँ उनकी चल रही होंगी॥

सर्द रातों में ठंडे बिस्तर पर
सोईं होंगी भला कहाँ पलभर।
सिलवटें करवटें बदलने से
बिछौने में उभर रही होंगी॥

मिलन की रात के सुहाने पल
याद कर होएँगी कभी विह्वल।
अँधेरे में मधुर होठों की पाँखुर,
विकल खुद ही मसल रही होंगी।

हमारी ले छवि खयालों में
अँगुलियाँ वो सुनहरे बालों में।
कभी गोरे गुलाबी गालों में
छुआ छुआ सिहर रही होंगी॥

Wednesday, February 11, 2009

अनुशंसा

नमस्ते कनाडा
उत्तरी अमेरिका का प्रथम हिन्दी-अंग्रेजी सामाचार-विचार साप्ताहिक
जिस प्रकार कुबुद्धि संसार ने नारी को अबला की संज्ञा दी है उसी प्रकार कविता को भी केवल कोमल भावनाओं की अभिव्यक्ति का माध्यम मान लिया है। यह सच है कि अधिकतर कवियों ने कविता को मुख्यरूप से शृंगार और प्रेम जैसी कोमल भावनाओं के प्राकटन हेतु एक सेतु के रूप में प्रयोग किया है परंतु कुछ ऐसे भी कवि हैं जिनकी कविता संरचना का उद्देश्य कवि की कोमल भावनाओं की अभिव्यक्ति के अतिरिक्त समाजोपयोगी संदेशों की सीढ़ी के रूप में प्रयोग करना है। ऐसे कवियों ने ही नारी को सबला और कविता को सुशक्ति संदेश की सरिता के रूप में स्थापित किया है। जब-जब ऐसे कवियों ने अपनी कलम उठाई है कविता रसिकों को नारी देह की गहराइयों से बाहर निकाल कर नारी शक्ति की सच्चाइयों से अवगत कराया है और ऐसे ही कवियों ने कविता को हृदयोद्गारों की अभिव्यक्ति के साथ-साथ समाजोत्थान और देशप्रेम जैसे सार्थक सुप्रयासों में भी प्रयुक्त किया है।
ऐसी ही देशप्रेम की भावना से परिपूर्ण कविताओं के रचयिता हैं आचार्य संदीप कुमार त्यागी। आचार्य संदीप, जिन्हें मैंने सदा ही अपने छोटे भाई के रूप में देखा है, से मेरा परिचय कुछ ज्यादा पुराना नहीं है पर जितना है वह वर्षों की पहचान से कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। जितनी बार मैं उनसे मिला हूँ, उन्होनें अपने जीवन-यात्रा के अनुभव के पृष्ठ मुझ पर खोले हैं और सदैव मैंने उनसे प्रेरणा हासिल की है। कुदरत का कैसा अनोखा खेल है कि मैं शहीद भगत सिंह का प्रशंसक हूँ और वे शहीद चन्द्रशेखर के। भगत सिंह ने चन्द्रशेखर को अपने भाई के रूप में देखा और मैंने आचार्य संदीप को।
आचार्य संदीप की यह प्रथम प्रस्तुति चंद्रशेखर आज़ाद शतक उनके चन्द्रशेखर के प्रति प्रेम की अनुभूति की अप्रतिम प्रस्तुति है। संदीप ने इस रचना हेतु घनाक्षरी छंद का प्रयोग किया है जो वीर रस के काव्य हेतु सर्वथा उपयुक्त है। उनके काव्य में शब्द चयन की सार्थकता, भाषा की सहजता और ओजमय विचारों की चमक देखते ही बनती है। इतिहास के पन्नों से उकेरे चंद्रशेखर की जीवनयात्रा के प्रातः स्मरणीय उद्धरणों से सजी-धजी इस काव्य मंजूषा में आचार्य संदीप की लेखनी का जादू सर्वत्र दिखाई पड़ता है। मुझे विश्वास है एक बार प्रारंभ करके इस पुस्तक को पाठक छोड़ नहीं पायेगा, जब तक इसके तमाम पृष्ठों का रसास्वादन न करले। उनकी रचना शैली की बानगी के रूप में ये दो छंद मैं विशेष रूप से उद्धृत कर रहा हूँ --------
ललमुहों को थे ललकार रहे लाल यह
छलियों दो छोड देश, न तो देंगे सिसका।
होशियार हो सियार, शेर जाग गया अब
लगेगा पता है हक हिन्द पर किसका ?
* * * * * * * * * * * *
ऐसा चला चोला था पहन वसंती एक
टोला बालकों का, नेता शेखर था जिसका,
लेके हाथों में तिरंगे, जंगे आजादी के मैदां
बीच कूद पडे वीर देख रिपु खिसका।
गर्जना से गूंज उठा गगन, भूगोल डोल
गया औ दहल गया महल ब्रिटिश का।
चलता ही गया वो कुचलता फिरंगियों को
उसको न रोक पाया पहरा पुलिस का।
* * * * * * * * * * * *
गली गली आजादी का अलख जगाते हुए
शेखर का आर्य वीर दल बढ़ रहा था।
वतन पे तन-मन-धन सब वार, बाँधे
सर से कफन प्रति पल बढ़ रहा था।
अगर खुली दृष्टि से देखा जाये तो आचार्य संदीप का काव्य साहित्यिक संपूर्णता और भाषायी परिपक्वता से ओतप्रोत है, और ऐसे काव्य का सृजक अपनी पहचान खुद बना लेता है।
मुझे विश्वास है आचार्य संदीप का भविष्य आगे आने वाले समय के हाथों न केवल सुरक्षित है अपितु आगे आने वाली पीढ़ियों को सामाजिक सुरक्षा का कवच पहनाने को भी सक्षम है।
सरन घई
संपादक-प्रकाशकः नमस्ते कनाडा
१९१५ मार्टिन ग्रोव रोड, अपार्टमेंट ५०८,

प्ररोचना

- डॉ० सत्यव्रत शर्मा ‘‘अजेय’’
एम०ए०, पी-एच०डी०, साहित्याचार्य
अध्यक्ष-लावणी साहित्य परिषद्
४८३, आर्य नगर (पानी की टंकी के पीछे)
ज्वालापुर, हरिद्वार-२४९७०७

जन्म-जन्मान्तर की साहित्य-साधना के संस्कार युवाकवि संदीप कुमार ‘दीप’ में देदीप्यमान हुये हैं। वह अतीत से प्रेरणा प्राप्त कर युगानुरूप नव-निर्माण में संलग्न हुआ है। वह परम्परावादी भी है और स्वच्छन्दतावादी भी। उसकी कला में क्रियाशील स्वीकृति और विद्रोह के स्वर साथ-साथ प्रतिबिम्बित हुये हैं। वह नव नवोन्मेषशालिनी प्रतिभा से सम्पन्न क्रान्तदर्शी कवि है और वह प्रत्यक्ष रूप में भूत, भविष्य और वर्तमान को प्रत्यक्ष चित्र के रूप में दिखाने में सक्षम है। उसकी काव्य-कला जीवन की आलोचना है, उसमें एक आत्मा का दूसरी आत्मा के लिए निवेदन है। मैथ्यू आरनल्ड ने ठीक ही कहा है -
"Poetry is at bottom a criticism of life" अर्थात् कविता जीवन की व्याख्या है।
संदीप का ओजस्वी काव्य कायरों में वीरता एवं वीरों में उत्साह का संचार करता है। ‘‘आजाद-शतक’’ मुक्तक काव्य है, संदीप ने ‘‘आजाद-शतक‘‘ में प्रबन्ध काव्य के समान ही रस का अभिनिवेश किया है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने प्रबन्ध काव्य और मुक्तक काव्य में भेद प्रदर्शित करते हुये लिखा है ‘‘............................... यदि प्रबन्ध काव्य एक विस्तृत वनस्थल है तो मुक्तक एक चुना हुआ गुलदस्ता है।’’ संदीप ने अमर शहीद चन्द्रशेखर आज़ाद के जीवन के कुछ प्रेरक प्रसंग चुनकर ऐसा स्तवक कल्पित किया है, जिसे देखकर सहृदय भावक भाव-विभोर हो जाता है। उसका व्यंग्य-प्रयोग, सरसता, कल्पना की समाहार शक्ति, शब्द-सौष्ठव, मार्मिक घटनाओं का चयन, नाद-सौन्दर्य एवं अर्थद्योतन का सामर्थ्य देखते ही बनता है।
वर्तमान-काल में लिखा जाने वाला अधिकांश काव्य छन्द-बन्ध-विनिर्मुक्त स्वच्छन्द हो गया है, न मात्राओं की नाप-तोल, न वर्ण की गणना। जैसे आधुनिक बालाओं ने बालकों की वेशभूषा धारण कर स्त्री-पुरूषों की पृथक पहिचान को मिटा दिया है उसी प्रकार ‘‘नई कविता’’ ने गद्य-पद्य को समरूप बना दिया है। कविवर जगन्नाथ दास ‘‘रत्नाकर’’ ने ऐसे नयें कवियों के लिए लिखा था कि- ‘‘अनुप्रास-प्रतिबन्ध कठिन जिनके उर माँही’’ और जो कविताओं में छन्दशास्त्र के नियमों के पालन को न मानते हुए पद्य-रचना करते हैं, वे सीधे-सीधे गद्य ही क्यों नहीं लिखते। परन्तु जमाने की हवा रंग ला रही है और ‘‘नई कविता’’ या ‘अकविता’ की भरमार हो रही है। ऐसी कविताएँ नीरस और निष्प्राण होती हैं, वे पाठकों या श्रोताओं को तो क्या स्वयं रचयिताओं को भी कण्ठस्थ नहीं होती । ऐसी कविताओं में न तो काव्य के आन्तरिक तत्त्व पाये जाते हैं, न बाह्य। उनमें से कुछ अच्छी रचनाओं में विचार-वैदग्ध्य अवश्य होता है अतः ऐसी रचनाओं को कविता न कहकर ‘वैचारिकी’ कहना समीचीन होगा।
कवि संदीप हमारे अखाड़े (कवि-मण्डल) का उद्भट भट है, उसकी भाषा-शैली पर अखाड़े की छाप स्पष्टतया परिलक्षित होती है अतः वह इस नई कविता से कोसों दूर है, उसने अपने प्रस्तुत काव्य के प्रणयन में ‘‘घनाक्षरी’’ छन्द को चुना है, ‘कवित्त’ और ‘मनहरण’ भी इसी छन्द के अन्य नाम हैं। इसमें चार पंक्तियाँ होती है और प्रत्येक पंक्ति में ३१, ३१ वर्ण होते हैं। क्रमशः ८, ८, ८, ७ पर यति और विराम का विधान है, परन्तु सिद्धहस्त कतिपय कवि प्रवाह की परिपक्वता के कारण यति-नियम की परवाह नहीं भी करते हैं। यह छन्द यों तो सभी रसों के लिए उपयुक्त है, परन्तु वीर और शृंगार रस का परिपाक उसमें पूर्णतया होता है। इसीलिए हिन्दी साहित्य के इतिहास के चारों कालों में इसका बोलबाला रहा है। मैं इस छन्द को छन्दों का छत्रपति मानता हूँ।
मैंने सन् १९९२ ई० में ‘‘अमर हुतात्मा चन्द्रशेखर ‘आजाद’ संस्कृत टेलीफिल्म’’ (नाटिका) की रचना की थी। जो ‘‘भारतोदय’’ मासिक पत्रिका में क्रमशः प्रकाशित हो चुकी है, उससे प्रेरित होकर ‘संदीप’ ने अपने इस हिन्दी काव्य का उपादान ‘आज़ाद’ को चुना। उसका यह चुनाव उसके व्यक्तित्व के अनुरूप है।
इस काव्य में उसकी आन्तरिक भावनाएँ व्यक्त हुई हैं, वह चाहता है कि प्रत्येक मनुष्य के मन में देश भक्ति के भाव भरे हों, सत्य, धर्म, संस्कृति और सभ्यता का सदा विकास होता रहे, इन्हीं मांगलिक भावनाओं के साथ कवि आगे बढता है और तत्कालीन समाज की परिस्थितियों का सजीव चित्रण करता है-
‘‘भारतीय सभ्यता का पश्चिम में डूब गया-
भानु, घिरा चहुँओर घोर अँधियार था।
विकराल काली कालरात्रि से थे सब त्रस्त,
जनता में मचा ठौर-ठौर हाहाकार था।।’’
ऐसी विकट संकट बेला में मुक्ति दिलाने वीर चन्द्रशेखर आज़ाद का अवतरण होता है-
क्रान्ति का संदीप ले के गुलामी का अंधकार,
मेटने को आया चन्द्रशेखर आज़ाद था।
उक्त पँक्ति में ‘संदीप’ शब्द का श्लिष्ट प्रयोग सराहनीय है।
वीर रस के इस काव्य में वात्सल्य आदि रसों के भी छींटे कहीं-कहीं दृष्टिगोचर होते हैं। वीप्सा, अनुप्रास तथा मालोपमा-मण्डित बाल-छवि का चित्रण दृष्टव्य है-
प्यारा-प्यारा गोल-गोल, मुख चन्द्र सदृश था
अतिकृश होने पै भी सुन्दर था लगता।
उसके नयन थे विशाल, मृग-दृग-सम,
मोहक, निराले, सदा मोद था बरसता।।
कोमल-कमल-नाल-सम नन्हें-नन्ह हाथ,
धूल-धूसरित-गात और भी था फबता।
मिश्रीघोली मीठी बोली लगती थी अति प्यारी,
देख उस बालक को मन था हरषता।।
संदीप ने आजाद की बाल छवि को कला-मय कलापक (चार मुक्तकों का समूह) के माध्यम से निरूपित किया है। इसी प्रकार कहीं ‘युग्मक’ (दो छन्द) कहीं संदानितक (तीन-तीन छंदों का समूह), और कहीं कुलक (पाँच-पाँच छंदों का समूह) द्वारा उसने कथानक के तारतम्य को अक्षुण्ण बनाया है। यद्यपि ‘आज़ाद-शतक’ के मुक्तक पाठ्य मुक्तकों की कोटि में आते हैं। परन्तु उन्हें गाया भी जा सकता है अतः वे गेय भी हैं।
घटनाओं के समन्वय को कथानक कहते हैं, ‘आजाद शतक’ की घटनाओं का प्रबल प्रभाव हृदय पर पड़ता है, प्रकाशनोपरान्त देश और काल भी उस प्रभाव से अछूते नहीं रह सकेंगे। ‘आजाद-शतक’ की प्रमुख घटनाएँ इस प्रकार हैं - ब्रिटिश गवर्नमेन्ट के समय भारत की दुर्दशा का चित्रण, बालक चन्द्रशेखर का जन्म, वात्सल्य, अलीराजपुर में भीलों की संगति, धनुष-बाण-साधना, वाराणसी में संस्कृत का अध्ययन, जलियाँवाला बाग-काण्ड से शेखर का स्वातन्त्र्य-संग्राम में प्रवेश, बालक आजाद का ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध असहयोग आन्दोलन में भाग लेना और गिरफ्तार होना, जज के समक्ष अपना नाम ‘आजाद’ बताना और सदैव आजाद रहने की दृढ़ प्रतिज्ञा करना, हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ का सक्रिय सदस्य होना। काकोरी-काण्ड (काकोरी रेलवे स्टेशन पर ट्रेन रोककर सरकारी खजाने को लूटना), मुखबिरों द्वारा घटना का भेद अंग्रेजी सरकार को मिलना, क्रान्तिकारियों पर मुकदमा चलना और उसमें से कुछ को फाँसी व कुछ को अन्य सजाएँ दी जाना, आज़ाद का फरार होना, मोटर ड्राईविंग सीखना, रियासत खनियाधाना के राजा कालका जी सिंह देव से मित्रता, शेखर का झाँसी से बम्बई जाना, जहाजों पर माल लादने का कार्य करना, सरदार भगतसिंह से भेंट। हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी का गठन और कानपुर में आज़ाद का अपनी माँ से मिलन, भगत सिंह द्वारा सांडर्स-वध कर लाला लाजपतराय का बदला चुकाना, बम बनाने की कला कलकत्ता में सीखना, असेम्बली, दिल्ली में बम विस्फोट, अल्फ्रेड पार्क में अंग्रेजों के साथ युद्ध, अन्त मे आज़ाद का शहीद होना। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के इतिहास में घटने वाली घटनाएँ, भौतिक संघर्ष और विभिन्न विकास इन घटनाओं से कुछ न कुछ अनुप्राणित अवश्य हैं।
‘आज़ाद शतक’ का कार्य उदात्त है। इसका अंगी रस ‘वीर’ है उसका नायक महासत्त्व, निगूढ अहंकारवान् और दृढ़व्रत है।
काव्य की शैली में असाधारणता है, इसीलिए उसमें अद्भुत अलंकार-योजना, पद-योजना, बिम्ब-विधान की समृद्धि है। सन्दर्भ के अनुरूप भाषा में सुष्ठु शब्दावली का संयोजन हुआ है।
शतक परम्परा में ‘आजाद शतक’ एक अद्भुत साहित्यिक उपलब्धि है। हमारी कामना है कि-
‘‘दीपः द्युतिं वै प्रकटीकरोतु,
दूरीकरोतु प्रभयाऽन्धकारम्।
देशे-विदेशे लभतां प्रकामं,
स्नेहं सुकीर्ति गुरु-गौरवञच।।’’

समर्पण

समर्पण
दिया नेक वारि-दान वट-द्रुम-दल को औ,
गुरुकुल-वाटिका जिलाये खूब हरि हैं।
हरियाली हरि-तृतीया है ये निराली अहो,
महिमा अनूठी दिखलाये खूब हरि हैं।।
काँट छाँट डाले कोटि-कोटि-कष्ट-कण्टक हैं,
फूल खुशियों के ये खिलाये खूब हरि हैं।
सहृदय हृदय हैं, सदय हैं हरि ‘दीप’
हरि ही की कृपा ने मिलाये खूब हरि हैं।।
हरि के इशारे बिना इस जहाँ में किसी के,
जीवन का नहीं चला स्यन्दन है करता ।
प्राणों का भी प्राण प्राणी पाते सभी त्राण हरि-
बिन कौन प्राणी यहाँ स्पन्दन है करता।।
पास नहीं चन्दन है हरि-भाव-चन्दन है,
धूप दीप बिना ‘दीप’ वन्दन है करता।
आनन्दित हो उठा है हरि दर्श पाके, तव-
नन्दन-सुमन अभिनन्दन है करता।।
-संदीप ‘दीप’

Tuesday, February 10, 2009

हमें मोहरा बना के चाल ना चलना प्यारे

हमें मोहरा बना के चाल ना चलना प्यारे ।
हम भी शतरंज के माहिर हैं संभलना प्यारे ॥

जिच को जाँचे बिना परखे बिना घोड़ों को ना छू,
हाथियों से नहीं प्यादों को कुचलना प्यारे॥

मानते हैं बड़ा शातिर है तू सियासत में।
देख के पर बिसात अपनी उछलना प्यारे ॥

पैनी पैनी निगाह तुझपै खूब रखते हैं।
भूल कर भी हमें ना तू कभी छलना प्यारे ॥

मुँह की खायेगा तू लाजिमी यूँ ही हरदम ।
छोड़ दे छोड़ दे हमसे तू बिचलना प्यारे ॥

अंगुली मत उठा इस ओर, गर चाहे गनीमत।
सिपाही चाहते हैं आग उगलना प्यारे॥

नेस्तनाबूद सब होंगे चिलमची आज तेरे।
तेरी दहशत को होगा जड़ से उखलना प्यारे॥

असल बाप आतंकवाद का

असल बाप आतंकवाद का

अरब है या अमरीका है।

हुआ रूस के चक्कर में

भारत भी अदू सरीखा है॥


मंसूबे नापाक पाक

उकसाया काश्मीर देखो।

सरहद पार तराशे सब

खालिस्तानी तीर देखो॥

संदेहास्पद आइ एस आइ का

हर एक तौर तरीका है।


बना सिमि सीमा के भीतर

होकर अब आइ एम मजबूत ।

लोकतंत्र को दफ़नाने को

मजहब बना रहा ताबूत॥

इस्लामिक उन्माद ही क्यों

हर आतंकी में दीखा है ॥


हर सवाल का अल जवाहिरी

देता है अब वैब जवाब।

तालिबान पढ़ें अलकायदा

कट्टर पंथी गढ़ें हैं ख्वाब॥

बेरोजगार जवानों ने

बारूदी इल्म ही सीखा है॥


मुम्बई जयपुर अहमदाबाद

हुई हाय दिल्ली बर्बाद।

देशद्रोह को जाफ़र की

औलाद कहे फिर भी जेहाद

फांसी के फतवे जारी

होते जो होती टीका है ।।


नौ ग्यारह के बाद हुआ

नौ दो ग्यारह लादेन कहाँ।

क्या कहना अब भी मुश्किल

ना-पाक इरादे मुल्क जहाँ॥

खिसियाई बिल्ली सा बुश का

हो गया चेहरा फीका है ॥

Wednesday, February 4, 2009

मानस पुत्री कविता



मूर्त्त अमूर्त्त चराचर जग के चित्र विचित्र स्वतः चित्रित हों।
चचंल चलचित्रों की भाँति भाव चित्र जब एकत्रित हों॥
मनस पटल पर प्रगट तभी मानसपुत्री कविता होती है।
क्रांतदर्शी कवि के सुवर्णमय सृजन गर्भ में यह सोती है॥

सुचिर रुचिर नवरस संयुक्ता उत्तम ध्वनिपद-अवली युक्ता,
छ्न्दशैली गुणरीति अनूठी सृष्टि नियम से बिल्कुल मुक्ता।
व्यष्टि
व्यष्टि में व्यक्त समष्टि कविता के द्वारा होती है,
सदा मंत्र दृष्टा हृदयों में जगी जगी कविता ज्योती है॥

क्या है कविता की परिभाषा निश्चित क्या सविता की आशा,
अंतर्बाह्यजगत परिभाषित कैसे करे शब्द की भाषा॥
वेद पुराण काव्यग्रंथों में सदा काव्य-चर्चा होती है,
लेकिन क्या कवि मानस पुत्री कविता पुस्तक में सोती है।

यदि कविता को पाना है तो अपना हृदय टटोलो तुम,
कुण्डलियाँ गिरधर खोलेंगे मीरा से गर हो लो तुम॥
खुसरो तुलसी सूर कबीरा रहिमन के मन होती है ,
कविता ब्रह्मानंद से बढ़िया प्रेम बीज मन बोती है॥

कविता तो है भूखे नंगेभिखमंगों की खोली में,
कविता तो हर देशभक्त के लाल लहू में गोली में॥
सघन जघनकच कुच कलशों पर जिनकी कविता होती है।
उनके देश की आने वाली पीढ़ी सदियों रोती है॥