Tuesday, January 20, 2009

तुम्हारे प्यार से

आचार्य संदीप कुमार त्यागी "दीप"

पुर सकूँ होती है रुह मेरी तेरे दीदार से।
बन गये आँसू मेरे मोती, तुम्हारे प्यार से।।

मैं निष्ठुर तन्हाई के सूखे में व्याकुल था मगर।
तुम सघन-सावन-सरिस, बरसे सरस-रसधार-से।।

ज़िन्दगी मे छा रहा था इक अजब पतझार-सा।
आ खिलाये फूल खुशियों के बसंत बहार से।।

हम पुकारें तुमको क्या कहकर हमें बतलाइये।
लगते हो वैसे तो तुम मुझको मेरे संसार से।।

रोशनी कब तक अरे! रहती भला इस दीप की।
जल रहा यह "दीप" तेरे स्नेह के आधार से।।

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