Thursday, December 23, 2010

खुद की तलाश

जिस्म तो बस लिबास है यारों।

मुझको खुद की तलाश है यारों।।

 

खुद ही खुद का वज़ूद पहचानूँ।

खुद से ख्वाहिश ये खास है यारों॥

 

फलसफ़े औरों के कुबुल नहीं

गहरी खुद ही में प्यास है यारों

 

आजमाइश बग़ैर इल्म ए कुतुब

होता कोरी कयास है यारों ॥

 

जो ना तदबीर ए तजुर्बात करे

शख्स वो जिंदा-लाश है यारों॥

 

किस पयम्बर ने दकियानूसी का

ना किया पर्दाफाश है यारों॥

 

लाऊँ इमान क्यों इमामों पर

दिल में कुरआन ए खास है यारों॥

Friday, August 6, 2010

स्मारिका २०१०

हिन्दी राइटर्स गिल्ड की स्निग्ध काव्य कला कौमुदी में कनाडा का साहित्यिक जगत आम आदमी से जुड़ता जा रहा है। हिन्दी राइटर्स गिल्ड की अबतक की उपलब्धियों को गिनाना मेरा उद्देश्य नहीं है, क्योंकि कनाडा में रहने वाले सभी हिन्दी कलमकारों ने हिन्दी राइटर्स गिल्ड से अनुप्रेरित होकर जो सजग सक्रियता विशेषतया इस वर्ष दिखायी है वह अपने आप में हिन्दी राइटर्स गिल्ड के सशक्त अस्तित्त्व का तुमुल नाद है।अहिन्दीभाषी साहित्यकारों,पुस्तकालयों,एवं समय समय पर हिन्दी राइटर्स गिल्ड की मुख्यधारा के मीडिया (अखबार टी.वी,रेडियो) में भी दर्ज़ उपस्थिति दर्शाती है कि गिल्ड के कर्णधार सभी कवि,लेखक,कहानीकार, गीतकार,नाटककार व ग़ज़लकार अपनी अपनी विधाओं के विदग्ध या वज़नदार जानकार हैं।
जैसा कि सभी जानते हैं कि हर किसी को अपने पैरों पर खड़े होने के लिए एक ज़मीन तथा सिर उँचा करने के लिये एक आसमान की जरुरत पड़ती है वैसे ही हम सभी साहित्यकारों को भी अरसे से एक ऐसे
धरातल की तलाश थी जिस पर खड़े हो कर हम विश्व के साहित्य के आकाश में अपना सिर आत्मगौरव के साथ उँचा उठाये रक्खें।हिन्दी राइटर्स गिल्ड ही वो संस्था साबित हुई जिसने हमें बड़े सलीके व इल्मोहुनर से हिन्दी साहित्य के जमीनो आसमां से परिचित कराया है।
ऐसी जागरुक संस्था को उन्नत शिखर पर बनाये रखने के लिये अपना तन मन धन आदि से हर संभव सहयोग देना हमारा नैतिक कर्त्तव्य सा बन जाता है।
जैसा कि सभी को मालूम ही है कि हिन्दी राइटर्स गिल्ड की वार्षिक स्मारिका का प्रकाशन आगामी महीनों में हो रहा है।जिसमें आप अपनी मौलिक रचना पसंदीदा विधा में टाइप करके भेज सकते हैं,टंकण संबन्धी कोई समस्या हो तो हिन्दी राइटर्स गिल्ड के संपर्क में आ समाधान प्राप्त कर सकते हैं।
स्मारिका के प्रकाशक व संपादक मंडल ने मुझे जिम्मेदारी सौंपी है कि मैं आप सभी कविश्रेष्ठों से आपकी चुनिन्दा एक एक कविता इकट्ठी करूँ।साहित्यिक गुणवत्ता की दृष्टि से सर्वोत्तम आप कृपया अपनी एक एक रचना EMAIL—smarikahwg@gmail.com par भेज कर कृतार्थ करें।
कविता के अलावा कहानी,लेख,संस्मरण,गीत, ग़ज़ल,आदि सभी तरह की रचनाएं पूर्वोक्त email पर ही भेजें।साथ में अपना वर्तमान फोन या इमेल का पता भी प्रेषित कर दें जिससे कि आवश्यकता पड़ने पर हम आपके संपर्क में रह सकें।
साहित्यानुचर
संदीप कुमार त्यागी
दूरभाष-६४७ २८२ २५२९

Friday, June 4, 2010

मुक्तक इश्किया कोरी जवानी!

चटख रंग प्यार का कोरी जवानी पर चढ़ा ऐसा।
बदन सुन्दर सलोना सोनजुही सा खिला ऐसा।
सुनहरी हो उठी सुबहा, बसन्ती रूप का सागर,
मचल उट्ठा दिवाना दिल हुआ है इश्किया ऐसा॥

उनींदी शबनमी अँखियाँ कनखियों में वो बतियाये।
हैं लब पुरसुर्ख़ मस्ती से मगर फ़िर भी वो शर्माये।
मिलन की रात की ले ख़ास खबरें चाँद सा चेहरा
बड़ी आहिस्ता आहिस्ता सनम चिलमन को सरकाये।

Tuesday, May 25, 2010

Bursts freely as romance.

Oh my mystic majesty I have trust in you
to transcend all strife of life into dance.
To take a step on steep I do seek just in you.
Confidence boosts bliss bursts freely as romance.


A wonderful wish Flaps like fish in heart’s lake
Absolute fun under new sun chirps at morn.
Their long tails as Fluffy puppies shake
Oh sweetheart! in my heart love songs born.

Your bluish eyes clear like sky of happy springs.
Inner beauty blooms looms pure love.
To touch all heights so strong yours wings.
You’ve caught thy eye while you flying above.

Like an angel of love you are always around.
I know where you live I find you surround.

Saturday, May 8, 2010

माँ


माँ
परमपिता के ध्यान में टिके न लाख टिकाये।
माँ की ममता में मगर मन आनन्द मनाये

होने को भगवान भी, बड़ी कौन सी बात।
“माँ होना” भगवान की भी पर नहीं बिसात॥

मन से किस सूरत हटी मूरत माँ की बोल।
बच्चे से बूड़े हुए माँ फिर भी अनमोल॥

दूह दूह कर स्वयं को किया हमें मजबूत।
कैसे माँ के दूध का कर्ज़ उतारें पूत॥

माँ की ममता की अरे समता नाही कोय।
क्षमता माँ की क्या कहूँ प्रभु भी गर्भ में सोय॥

अनुपमा माँ


अनुपमा माँ !
सात समुद्रों से भी ज्यादा
तेरे आँचल में ममता है।
देखी हमने सारे जग में,
ना तेरी कोई समता है॥

सौम्य सुमन सरसिज के हरसें
सरसें स्नेह सरोवर नाना।
सुप्रभात की अनुपमा सुषमा,
सदा चाहती है विकसाना॥
सुधा स्पर्श सा सुन्दर शीतल
सुखद श्वास प्रश्वास सुहाना।
कल्पशाख से वरद सुकोमल
कर अभिनव मृणाल उपमाना॥
स्वर्ग और अपवर्ग सभी कुछ,
माँ की गोदी में रमता है॥

हो शुचि रुचि पावन चरणों में,
तेरा करूँ चिरन्तन चिन्तन।
शीश चढ़ा दूँ मैं अर्चन में,
अर्पित कर लोहू का कण कण॥
मणिमय हिमकिरीटिनी हेमा
माँग रहे वर तव सेवक जन।
शुभ्रज्योत्स्ना स्नात मात तव
वत्स करें शत शत शुभ-वंदन॥
सप्त सिन्धु का ज्वार तुम्हारे
पद पद्मों को छू थमता है॥

Monday, April 26, 2010

its romance to groove yourself.

It’s all up to you that you in light your life.
Or throw yourself in the fire of desire to burn.
All alone day & night you can fight with all strife.
A candle of light house waits for deep one’s return.

To come across of this cosmic dark sea
You may be notice a little light, from inside
What will indicate divine path very clearly.
Toward peace proceed with passion and pride

So what? If no one is beside behind or with you
The journey of joy can’t you enjoy with inner one.
Like sun with no companion shines brings new view.
You too Oh Deep Certainly unique! Knower of your depth is none.
How? Pure Love improves yourself you’ve yourself to prove yourself.
Movement of life is a dance its romance to groove yourself.

Friday, April 16, 2010

मुक्तक:संयोग-जवाँ अल्हड़ सी एक लड़की।

निगाहों ही निगाहों में हुई कुछ गुफ़्तगू ऐसी
दिलों में बढ़ गई एक दूसरे की आरजू ऐसी।
बयां ना कर सकेगी ये जुबां अहसासे उल्फत को
गज़ब महबूब की चाहत जगी है जुस्तजू कैसी॥

कभी जंगल में रहता हूँ कभी बस्ती में रहता हूँ।
हुआ जोगी दिवाना दिल, तेरी मस्ती में रहता हूँ॥
न कोई डूबने का डर, न चिंता पार होने की,
कभी मौज़ों में रहता हूँ, कभी कश्ती में रहता हूँ॥

जवाँ अल्हड़ सी एक लड़की,सुनहरी धूप सी सुन्दर,
बिना दस्तक दिए खिड़की से दिल की ,घुस गई अंदर॥
बड़े चुपके से और रौशन हुई यूँ रुह तक मेरी
बनी कविता ऋचा पावन बना मन प्यार का मंदिर॥

बदन उसका सलोना ज्यों वसन्ती हो लता कोई
नवल कोंपल कलि कुसुमों में उसकी नवलता सोही।।
छिटक सी है रही सुन्दर छ्टा क्षण क्षण भुवन वन में
भ्रमर मन में अमर रस कामना हूँ पालता त्योंही॥

तुम्हें मालूम क्या कविताओं में, मेरे वो छ्न्दों में
वही ग़ज़लों के शेरों में,मेरे गीतों गयन्दों में॥
वही स्वछन्द हो लयताल सुर पर गुनगुनाती है।
वही पहली वही है आखिरी मेरी पसन्दों में॥

मुक्तक

हमारी ही तरह अहसास ए उल्फत यार तुमको भी,
हुआ था वाकई सच्चा क्या हमसे प्यार तुमको भी॥
नहीं लगता नहीं लगता ये बदले देखकर तेवर,
बसाना था मोहब्बत का नया संसार तुमको भी ॥

मुहब्बत को तिजारत के तराजू में धरा तुमने।
वजह है कौनसी माशूक जो बाजू करा तुमने॥
हवस में हुस्न की, जेबें जो खाली कर रहा तुमपर।
उसी शातिर को सर आँखों पै हाय क्यूं धरा तुमने॥

नहीं है इश्क जो शर्तों पै समझौतों पै टिकता है।
नहीं है इश्क जो जिस्मों की गर्माहट में सिकता है॥
रुहानी असलियत है इश्क ,न तजवीज दुनियावी
तभी तो यार ये बाजार में बिल्कुल न बिकता है।

Wednesday, April 14, 2010

Love is real

Deal
As you feel
Love is real
On life’s reel,

Seal
Don’t unseal
With true love
Life can’t deal.

Heal
Pain won’t peel
Always wounds
Time is wheel.

Monday, April 12, 2010

on the life’s canvas

How can I stop listening, my heart‘s song?
Through your eyes you’re singing, so sweet.
With the symphony of Silence, you prolong.
Harmonious Melody along with heart’s beat.

As an artist within finest beauty of you
Reflects like moonbeam oh Deep one sun!
Most romantic radiance full new view
You create on the life’s canvas as a poetic companion.

Your vigorous vibes Compel absolute peace and bliss
With a lively groove one move wholesome.
Extremely fun, full of freedom just feel and wish
Wondrous life‘s kisses are just awesome.
It’s so sweet your presence, Dreamy creamy is your touch.
My whole soul ready to love you much oh much .

Thursday, April 8, 2010

Divine Messenger

Dear Divine Messenger Please come close, come closer.
The whole world awaits your word, sing out loud so you’ll be heard.

Wonder ~ full is your vibration, dance in deepone’s celebration
Quench our thirst at Christmas time with your nectar: Divine wine.

We are ships lost at sea, with no map, no destiny.
Hold your Holy candle so; we can see the way to go.

Prayers of innocence and joy, forget us not that baby boy!
Born to share that Holy night, a message of his LOVE & LIGHT

Deep Angels Poem

Only me lonely me
In your love diving deep
Stillness allows me to be
Forever one our hearts sleep

Chocolate lips will take sips
In silence on hearts lake
Always strong always true
No misplaced word shall either take

Oh angel lovely heart
Clinging why singing why
The lake is a reflection of the story inside
Dancing and twinkling the stars in the sky

Golden time will prolong
Infinite deepones the song
Compassionate warriors come together hand in hand
Against the harsh storms of nature as one we stand.

Freedom Freedom Love Love

I am wanted, but I want Freedom Freedom, Love Love.
I have chanted, but I chant Sacred Sounds from Above.

Piece of Peace, give me please, I beg you on my bened knees.
My wings are weak, I am not free, Reaching for thee over seas.

Behind the cloud of confusion, is thy Remover of Illusion.
Give bright light my holy sun,~Deepone peace for everyone.

I don’t want to be unique, fame nor fortune do I seek?
I don’t want to live in heaven, nor be a wonder of the seven.

I want only simple life, with honesty and all strife
Grace of God for always, sincere spirit night and days

My heart is singing a welcome song, oh love please bring freedom along
Fly so high in infinite sky, change vibrations at least try

Open my hands and from my glove, release the bird of peace: A dove
Oh my messenger, Oh my dove, Share my prayers of Freedom Love.

Lotus of love

Lotus of love is smiling sweet,
Like sugar cane when our lips meet.
My heart’s lake is trying to dance,
In rhythmic waves of deep romace.

Oh my sun please send me soon,
Your rays of light delight in tune.
Face of flowers with sincere sent,
Spreading love with pure intent.

Inspired spirit, heal my soul,
To reach loves height is ~Deepones goal.
Heart is hard in hiding place,
So walk soft in God’s Grace.

Leaves of thought growing up,
Seeds of season fill my cup.
My hear beatst by your heat,
Bowing by thee Divine feet….

Oh My Moon

Oh Lord receive my hands up please!
I bend before you on my knees.
In an ocean I have a moon
to keep safe I need a boon.

When will it come closer to me?
My hands are like the wave of sea.
I want to hold like a balloon.
Why so high in sky that moon?

With smiling stars and singing trees,
I feel inside Midsummer's breeze.
Your rays, Your light in night of June.
Inspire hearts to dance in tune.

To touch you, kiss you boundaries dying.
All that's left is my heart sighing.
My heart is ocean your face the moon.
In your vibration I start to swoon.

Thought are flying like a cloud,
Sounds of love like thunder loud.
Within my life please come soon,
Remove all darkness, oh my moon.

Tuesday, April 6, 2010

Secret of life

You are the nectar of my life.
Bringing sweetness where there’s strife.

Through your breath my love grows.
Like a long stem of red red rose.

Language of love is silent and still.
Listen closely if you will.

Tongue can’t tell Heart can’t disguise
the brilliant light shining from your eyes.

Rhythmic waves of sincerity.
Rise to reach divine clarity.

Secret of life is deep one.
Searching for that moon and sun.

I don’t know

Who are you? I don’t know.
Who am I you don’t know.
Don’t try to know who we are!
Just continue to go…..
Don’t be fast don’t be slow
Follow your own flow.

Love’s flower life‘s a tree
Throw your thorns to be free.
Who is good? who is god?
Who is real? Who’s a fraud?
Heart’s heat, Mountain’s snow,
a drop of words, tear’s that blow.

Everyone has a deep mystery
Why do you cry for history?
Don’t worry dear be happy
Lift thyself from sorrow’s sea,
Please don’t wait for tomorrow
Who knows how long is life’s show.

Monday, April 5, 2010

Divine rain

I have capacity to hold my pain.
Sincere heart, but not smart brain.
Life is topsy turvy like Himalayan
To climb it’s not so easy, smooth or plain.

To love means to lose all
To never again gain,
So don’t think, feel it
It is divine rain.

Sun and moon are wheels of time.
Creating movement in moments prime,
For day and night is not good rhyme
Yet to rise and set join Deep-one’s chain.

Spirit of Love

Oh my Great Spirit why are you so high?
To reach you, to touch you many times I try.

So many times I try to reach you, to fly
But I cannot fly, so my heart begins to cry.

I climb the steps up to you 6 upon 20,
Covering great distances, and still there is plenty.

My eyes have no power, to see your whole size.
To comprehend your vastness, I am just not that wise

Oh more wonderful wonder, creator from above.
You are my all, my everything! Eternal Spirit of Love.

Sunday, April 4, 2010

upholding you, is my goal

I was so comfort full for you as an old shoe.
You weren’t afraid if I got stolen or ruined.
Didn’t matter if I had on me mud, dust or dew.
You had banged me hard all the time & attuned.

On your own foot there is always my tongue
You had stretched it daily and tied tight with lace.
I felt sophisticated, wet internally, unheard & unsung.
To sing my tragic song where do I go with this face?

I am so deep from inside, on my high hill,
I will carry you correctly if you will fill me in.
I don’t have any shiny polish or to refill
The cranky cracks of my rough and tough skin
I need the touch of love to heal my sole.
I’m still beneath you as a shoe upholding you, is my goal.

Friday, April 2, 2010

adore you love Always!

There are tears, but not from fears at all.
Insensible appearance of love wet eyes.
Oh mystic being! Try to hide, don’t let them fall
On your cheeks, these pearls are beyond any price.

I know that you want to meet and touch thy feet
Everything that you think you have,
Offering to thee as a divine greet.
In the church with love you filled the nave.

Accomplished with love’s rhythmic beat
Your pure deepest heart’s song,
Resonating angel’s heart, so lovely so sweet
Congregation repeats with devotion all along.
To prolong this unique song purely deep one prays.
With wet rosy cheeks adore you love Always!

Thursday, April 1, 2010

step back to the start.

When your back becomes heavy, the strain too much.
Dig deep inside, feel the stillness you have the support.
Feel his presence and calm…. and ground your heart.
Its ok, everything is perfect step back to the start.

I have seen the forces of nature.
Swing the pendulum to where it belongs.
When the spirit and word are only of truth.
The bird sings its song.

Honesty and hard word prevail, they will always win the race.
I have tested the boundaries, stood fear in the face.
Now I sit quietly and ponder, everything’s natural home.
In the shade or in the sun or where the wilder beast roam.

Each person has a decision; where their energy should lie.
Move towards safety away from harm, the body does cry.
When the heart is pure there is nothing to fear.
Always protected, always one with the divine its clear.

Small acts of kindness, like pure magic dust.
Sprinkling light in a world of darkness appreciation is a must.
And oceans of gratitude break through the dam.
A tender humble heart, that does maketh the man.

Tuesday, March 30, 2010

You are not alone dear

You are not alone dear, I’m with you forever.
May be you can’t see me near, but I will leave you never.

Only you can feel me clear, when your senses are sincere.
I’m the scent of your feelings; truly you’re a fresh flower.

You are right you continue but don’t think I’m not following.
I’m the bank of your flow, you’re a beautiful River.

Lovers heart evergreen, like the great Garden of Eden.
Love is love always alive, flourishing with supreme power.

Two lonely hearts become “Deep-one” with pure lovely vibrations.
Earth will fly up to the sky, sky spreading a divine shower

Monday, March 29, 2010

Infinite love from day first

Your love makes me a real saint.
While I am unaware, have no one’s care.
Disaster of desires tried to make me faint.
You tapped me in, to continue our pure affair.

Who doesn’t love exotic eyes?
Charming cheeks, Cherry lips.
Dream weaver walk, or smiles in surprise
Whose mind doesn’t blow by beauty’s clips?

I have seen unbelievable trust
-In your heart for Deep-one.
Infinite love from day first
-lighting life’s path like a lovely sun.

Oh my beloved love love’s angel!
I am in your hands you are in my heart
Stay surrounding me from every Angle
Like co-existing in the artist’s art.

stay safe in the nest

Tired, vulnerable, scared and uptight
Questioning choices, is it fair is it right
Where does this doubt come from never seen it before
Always told to walk through an open door.

Lethargic, no sparkle, the suns in the shade
The body slumps, head down, the decision is made
How to cut the fog, uncover the bud
How to keep that compassion awake in the mud

From above everything is beautiful happening just right
From below on the ground still unknowns still uptight
Just a few words and freedom to sore to the sky
Please let them be kind, no poke in the eye.

So demanding the desire to succeed, all consuming at times
Let the body rest, flow with the force, everything will be fine
The long wait is now over the end is in sight
But will beauty really be there in the middle of the night

Every soul is tender scared and true
When there is so much to be grateful for why pity you
So the wounds should be nurtured, body left to rest
Everything passes, keep your calm and stay safe in the nest

Infinite love is always there

Crazy moments restless mind
Always grasping & acquiring… never find
Stillness and energy to uplift ones heart
In a hidden oasis they have a made it a special art

Selfless gifts through selfless acts
Through nurturing, sharing and giving back
Reflecting wisdom from the sages of old
Why is this truth so hard to hold

Smiles of the elders soften the heart melt the soul
Reflecting an impact so great one can only bow
In reverence, in shame
How can such an individual value my name

The light has been shone on the path so bright
Deep angels provide support to give up the fight
Searching deep inside for the message that’s true
Why should anyone feel blue

On the darkest days when its hard to find
Searching inside and outside the restless mind
Turn your head to the sun and realize once more
Infinite love is always there like it was before

Sunday, March 7, 2010

अमीर खुसरो

संस्कृतछंद- भुजंगप्रयातं भवेद्‍ यश्चतुर्भि:=एक पंक्ति में १२अक्षर यगण(यमाता ।ऽऽऽ) के क्रम से।

फ़ारसी बहर=फ़ऊल फेलन फ़ऊल फ़ेलन-२

ज़ेहाले मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल्दोरायनैना बनाय बतियां।
कि ताबे हिजरां नदारम एजां न लेहो काहे लगाय छतियां॥

शबाने हिजरां दराज़ चूं जुल्फ बरोजे बसलत चो उम्र कोतह।
सखी पिया को जो मैं न देखूं तो कै से काटूं अंधेरी रतियां॥

यकायक अज़ दिल दो चश्मे जादू बसद फरेबम बबुर्द तस्कीं।
किसे पड़ी है जो जा सुनावे पियारे पी को हमारी बतियां॥

चो शम्मा सोज़ां चो ज़र्रा हेरां हमेशा गिरयां बे इश्क आं मेह।
न नींद नैना न अंग चैना न आप आवें न भेजें पतियां॥

बहक्के रोजे विसाले दिलबर कि दाद मारा गरीब खुसरो ।
सपीत मन के बराय राखूं जो जाए पाऊं पिया के खतियां॥

Friday, February 26, 2010

छंद-परिचय:घनाक्षरी

अपने प्रस्तुत काव्य के प्रणयन में ‘‘घनाक्षरी’’ छन्द को चुना है, ‘कवित्त’ और ‘मनहरण’ भी इसी छन्द के अन्य नाम हैं। इसमें चार पंक्तियाँ होती है और प्रत्येक पंक्ति में ३१, ३१ वर्ण होते हैं। क्रमशः ८, ८, ८, ७ पर यति और विराम का विधान है, परन्तु सिद्धहस्त कतिपय कवि प्रवाह की परिपक्वता के कारण यति-नियम की परवाह नहीं भी करते हैं। यह छन्द यों तो सभी रसों के लिए उपयुक्त है, परन्तु वीर और शृंगार रस का परिपाक उसमें पूर्णतया होता है। इसीलिए हिन्दी साहित्य के इतिहास के चारों कालों में इसका बोलबाला रहा है। मैं इस छन्द को छन्दों का छत्रपति मानता हूँ।

चंद्र शेखर आज़ाद बलिदान दिवस २७ फ़रवरी

मंगलाचरण
होवे हर क्षण जन-जन का मुदित मन,
देश भक्ति-भागीरथी बहे रग-रग में।
सदा धर्म संस्कृति व सभ्यता का हो विकास,
सत्य का ‘‘संदीप’’ जले जगमग-जग में।।
चले जायें चाहे प्राण रहे किन्तु आन-बान,
साहस भरा हो भगवान! पग-पग में।
चन्द्रशेखर ‘आज़ाद’ जैसे वीर-पुंगव हों,
क्रान्ति की प्रचण्ड-ज्वाल बसे दृग-दृग में।।१।।

प्रभो! नहीं अभिलाष स्वर्ग में करूँ निवास,
भौतिक विलास यह मुझको न चाहिए।
आपका वरद-हस्त शीश पर रहे सदा,
प्रभो! निज शरण में मुझको बिठाइए।।
राग-द्वेष-क्लेश-शेष रहे न भवेश! भव-
भय-बन्ध से आजाद सबको कराइए।
प्रभो! चन्द्रशेखर शतक हो अबाध-पूर्ण,
ऐसा कृपामृत आप मुझको पिलाइए।।२।।

अंगरेजों का था राज-कुटिल-कठोर-क्रूर,
उनके उरों में मया नाम की न चीज थी।
खुलेआम खेलते थे आबरू से नारियों की,
लोक-लाज खौफे-खुदा नाम की न चीज थी।।
दासता के पाश में थी भारत माँ बँधी हुई,
दिल में किसी के दया नाम की न चीज थी।
दानवता मानवता की थी छाती पर चढ़ी,
आँखों में किसी के हया नाम की न चीज थी।।३।।

मूर्ख, धूर्त, बेईमान मारते थे मौज, रोज,
दाने-दाने को ईमानदार थे तरसते।
पड़ते थे कौड़े खूब असहाय जनता पै,
नयनों से गोरों के अँगार थे बरसते।।
करने के बाद कड़ी मेहनत दिन भर,
मजदूरों के अभागे बाल थे बिलखते।
घुट-घुटकर कष्ट सहते थे तब सब,
भारत माता के प्यारे लाल थे सिसकते।।४।।

हो रहे थे अत्याचार, धुँआधार धरा पर,
देख जिन्हें धैर्य धर सकना कठिन था।
अंधी आँधी ऐसी चल रही थी विकट अरे!
जिसमें दो डग भर सकना कठिन था।।
गगन से अगन के गोले थे बरस रहे,
जिनसे बचाव कर सकना कठिन था।
चहुँओर नदियाँ थी बह रहीं शोणित की,
धरती का भार हर सकना कठिन था।।५।।

भारतीय सभ्यता का पश्चिम में डूब गया-
भानु, घिरा चहुँओर, घोर अँधियार था।
विकराल-काली कालरात्रि से थे सब त्रस्त,
जनता में मचा ठौर-ठौर हाहाकार था।।
रैन में भी कभी नहीं मिलता था चैन हन्त !
उठता तूफान पुरजोर बार-बार था।
हम भारतीयों पर जो कुछ था मालोजर,
उस पर होता गोरे चोर का प्रहार था।।६।।

पैरों में पड़ी थी दासता की मजबूत बेड़ी,
फन्दा फाँसी का हमारे सिर पै था लटका।
पड़ती निरन्तर थी हन्टरों से मार बड़ी,
बार-बार लगता था बिजली-सा झटका।।
अरे! भयभीत भारतीयों को खटकता था,
सदैव किसी न किसी झंझट का खटका।।
दुर्भाग्य की थी घनघोर घटा घहराई,
भारत का भाग्य-भानु उसमें था भटका।।७।।

जाल में थी फँसी हुई, मछली-सी तड़फती,
हाय! हाय ! की पुकार पड़ती सुनायी थी।
पत्थर भी पिंघल गये थे किन्तु दानवों के,
हृदय में तनिक भी नहीं दया आयी थी।।
घाव पर घाव नित करते थे दुष्ट जन,
रग-रग में उनके दगा ही समायी थी।
सह-सह सैकड़ो सितम खूनी दरिन्दो के,
बेचारी भारत-माता खून में नहायी थी।।८।।

एक क्रान्ति-यज्ञ रण-बीच था आरम्भ हुआ,
वीरों द्वारा सन अट्ठारा सौ सत्तावन में।
गोरे चाहते थे करना तुरन्त-अंत, क्योंकि -
मंत्र आजादी के गूँजे थे इस हवन में।।
क्रान्ति के पुजारी चन्द्रशेखर आजाद ने, ये,
यज्ञानल धधकाया अपने जीवन में।
वीर क्रान्तिकारी हुए इसमें बहुत-हुत,
फैली भीनी-भीनी थी सुगन्ध त्रिभुवन में।।९।।

पोषण के नाम पर करता जो शोषण औ,
भाई-भाई में कराता नित ही विवाद था।
धर्म-ग्लानि देख लगता था भगवान को भी,
गीता में दिया वचन नहीं रहा याद था।।
भोली-भाली भारत-माता पै अत्याचार देख,
मन में वीरों को होता बड़ा ही विषाद था।
क्रान्ति का ‘‘संदीप’’ लेके गुलामी का अंधकार,
मेटने को आया ‘‘चन्द्रशेखर आज़ाद’’ था।।१०।।

एक धनहीन विप्रवर सीताराम जी -
तिवारी वास करते थे ‘‘भावरा’’ देहात में।
धर्मपरायणा पत्नी ‘‘जगरानी देवी’’ जी थीं,
रखतीं बहुत ही विश्वास सत्य बात में।।
तेईस जुलाई सन, उन्नीस सौ छह में था,
जनमा आज़ाद, भरी खुशी गात-गात में।
खिल उठे हृदयारविन्द तब सबके ही,
खिलते कमल-दल जैसे कि प्रभात में।।११।।

साथ-साथ हर्ष के ही देखकर बालक को,
माता और पिता को बहुत रंजोगम था।
क्योंकि था ये नवजात शिशु अति कमजोर,
साधारण बच्चों से वजन में भी कम था।।
जनम से पूर्व इस शिशु के तिवारी जी, की -
सन्तति को निगल गया वो क्रूर यम था।
करवाना चाहते माँ-बाप थे इलाज, किन्तु-
दीन थे बेचारे ‘दीप’ इतना न दम था।।१२।।

प्यारा-प्यारा गोल-गोल, मुख चन्द्र सदृश था
अतिकृश होने पै भी सुन्दर था लगता।
उसके नयन थे विशाल, मृग-दृग-सम,
मोहक, निराले, सदा मोद था बरसता।।
कोमल-कमल-नाल-सम नन्हें-नन्ह हाथ,
धूल-धूसरित-गात और भी था फबता।
मिश्रीघोली मीठी बोली लगती थी अति प्यारी,
देख उस बालक को मन था हरषता।।१३।।

तनु-तन बाल वह, धीरे-धीरे चन्द्रमा की-
सुन्दर-कलाओं के समान लगा बढ़ने।
स्वस्थ और हृष्ट-पुष्ट हुआ प्रभु-कृपा से था,
तब सिंह-शावक सा वह लगा लगने।।
नटखट-हठी-साहसी था नट-नागर-सा,
वत्स-सा उछल-कूद वह लगा करने।
लख-लख अपने अनोखे लाल शेखर को,
पितु-मात-हृदय में प्रेम लगा जगने।।१४।।

मामूली-सी नौकरी में अंगरेजी पढ़ा पाना,
सीताराम पण्डित के था ही नहीं बसका।
संस्कृत के अध्ययन-हेतु चन्द्रशेखर को,
उन्होने दिखाया पथ सीधे बनारस का।।
पहली ही बार वह गया दूर देश, अतः -
आता ध्यान घर का, न लगा मन उसका।
चाचाजी के पास ‘‘अलीराजपुर’’ भाग आया,
उसको तो लगा बनारस बिना रस का।।१५।।

चंचल-चतुर चन्द्रशेखर को ‘‘अलीराज-
पुर’’ रियासत में भीलों का संग भा गया।
उनके ही साथ-साथ रहकर के धनुष-
बाण अतिशीघ्र उसको चलाना आ गया।।
उसका निशाना था अचूक चूकता ना कभी-
छूटा तीर कमां से ना खाली उसका गया।
दिशि-दिशि उसकी प्रशंसा होने लगी और-
सब पर उसका प्रभाव पूरा छा गया।।१६।।

किन्तु चाचाजी ने सोचा, शेखर अगर इन,
भीलों बीच रहेगा तो, भील ही कहायेगा।
मीन-मांस-मदिरा अवश्य भीलों की ही भाँति -
होकर के ब्राह्मण भी, यह रोज खायेगा।।
धर्म-कर्म-मर्म ये समझने के लिए कभी,
करेगा प्रयास नहीं, पाप ही कमायेगा,
इसके लिए न ठीक भीलों का समाज यह,
रहकर इनमें ये, भ्रष्ट ही हो जायेगा।।१७।।

बालक का भविष्य सुधर जाये, बिगड़े ना,
बन जाये एक भला आदमी जीवन में।
सदा सुधा-वृष्टि करे बन घनश्याम यह,
गन्ध ये सुमन-सी बिखेरे उपवन में।।
बने बलवान, ज्ञानवान, दयावान, धीर,
महावीर इस-सा न कोई हो भुवन में।
इसी सदाशय से था शेखर को भेज दिया,
काशीपुरी जो कि है प्रसिद्ध त्रिभुवन में।।१८।।

इस बार बड़े मनोयोग से बनारस में,
लगा चन्द्रशेखर था देवभाषा पढ़ने।
अष्टाध्यायी, लघुकौमुदी तथा निरूक्त जैसे,
शास्त्र पढ़ने से और ज्ञान लगा बढ़ने।।
पढ़ाई के साथ-साथ देशभक्ति का समुद्र-
मानस में उसके यों लगा था उमड़ने।
देश की आजादी के लिए किशोर शेखर तो,
भीतर ही भीतर गोरों से लगा लड़ने।।१९।।

जलियान वाले बाग काण्ड की खबर सुन,
चन्द्रशेखर का खूब खून लगा खोलने।
देश की दशा को देख दिल हुआ धक-धक,
और लगा धिक-धिक उसको ही बोलने।।
छली छद्मी अंगरेजों का हरेक अत्याचार,
छोटे से शेखर का कलेजा लगा छोलने।
फलतः पढ़ाई छोड़-छेड़ दी लड़ाई और,
आजादी के आन्दोलन में वो लगा डोलने।।२०।।

चहुँओर इक्कीस में, गाँधी जी के द्वारा आँधी
प्रथित ‘‘असहयोग’’ की याँ चल रही थी।
इसके आँचल में थी, विकराल-ज्वाल वह,
जो कि सत्तावन से सतत् जल रही थी।।
फैलती ही गई चाहा जितना बुझाना इसे,
फूँकने फिरंगियों को ये मचल रही थी।
लपटों में लिपटी थी विटप-ब्रिटिश-सत्ता,
देख-देख सरकार हाथ मल रही थी।।२१।।

देश की आजादी हेतु सजी-भारतीय-सेना,
सहयोग दिया मजदूरों ने, किसानों ने।
कूद पड़े भूल स्कूल, कालेजों को छोड़ छात्र,
आग यह और धधकायी परवानों ने।।
दिल-हिल गये दुष्ट-दानवों के तब जब -
लगा दी छलांग रणभूमि में दिवानों ने।
मच गई हलचल, कुचल पदों से दिये,
दुष्ट गोरे-दल, इस देश के जवानों ने।।२२।।

इस आँधी के बहाव में तुरन्त बह चली,
भव्य-भगवान भूतनाथ की नगरिया।
इसके प्रचण्ड-वेग के समक्ष टिक पाने-
में थी असमर्थ अरे! ब्रिटिश-बदरिया।।
साहसी सपूतों ने था ठान लिया अब यह,
फाड़ेंगे, न ओढ़ेगें गुलामी की चदरिया।
सब जन होके तंग एक संग उठ गये,
फोड़ने फिरंगियों की पाप की गगरिया।।२३।।

सारे देश की ही भाँति सड़कों पै उमड़े थे,
बृहद जुलूस बनारस में किशोरों के।
जल रहीं थीं विदेशी वस्तुओं की होली गली-
गली गूँज रहे थे विजय-घोष छोरों के।।
प्रतिशोध की धधक रही थी दिलों में ज्वाल-
विकराल काल बाल बने थे ये गोरों के।
इनके मुखों से थी निकल रही ध्वनि यही,
‘‘नहीं हैं गुलाम हम इन गोरे चोरों’’ के।।२४।।

सह लिए बहुत सितम अब सहेगें ना,
लेंगे आजादी हो प्राण चाहे मोल इसका।
गुलामी में जीने से है बेहतर मर जाना,
चूम लेना फाँसी थाम लेना प्याला विषका।।
ललमुहों को थे ललकार रहे ‘‘लाल’’ यह,
छलियों दो छोड़ देश, ना तो देगें सिसका।
होशियार हो सियार ! शेर जाग गया अब,
लगेगा पता है हक हिन्द पर किसका।।२५।।

ऐसा चला चोला था पहन बसन्ती एक -
टोला बालकों का, नेता शेखर था जिसका।
लेके हाथों में तिरंगे, जंगे आजादी के मैदां-
बीच, कूद पड़े वीर, देख रिपु खिसका।।
गर्जना से गूँज उठा गगन, भूगोल डोल,
गया औ दहल गया महल ब्रिटिश का।
चलता ही गया वो कुचलता फिरंगियों को,
उसको न रोक पाया पहरा पुलिस का।।२६।।

गली-गली आजादी का अलख जगाते हुये,
शेखर का आर्यवीर दल बढ़ रहा था।
वतन पै तन-मन-धन वार कर, बाँधे-
सर से कफन प्रतिपल बढ़ रहा था।।
खतरों की खाइयों को फाँद सरफरोशों का-
जय-जयकार कर बल बढ़ रहा था।
जलती विदेशी चीज, की यों दुकानों को देख,
गोरों के दिलों में क्रोधानल बढ़ रहा था।।२७।।

तभी भूखे भेड़िये की भाँति भागा पुलिस का,
एक अधिकारी उस दल को कुचलने।
कर दिया लाठी-चार्ज उन पर जालिम ने,
खून की धाराएं लगी सिरों से निकलने।।
यह देख रह गया ‘‘चन्द्र’’ दंग अंग-अंग -
काँप उठा, मारे क्रोध के लगा उबलने।
पास में ही पड़ा एक, छोटा-सा पत्थर देख,
मन में तूफान लगा उसके उमड़ने।।२८।।

चुपके से उसने उठाया वह पत्थर औ,
दाग दिया उस दुष्ट दारोगा के सिर में।
सही था निशाना सधा, लगते ही पत्थर के,
बदला नजारा सारा वहाँ पलभर में।।
छूट गया लठ, फट गया सिर, सराबोर,
खूँ में हो गया ले बैठ गया सिर कर में।
दीख गये दिन में ही तारे उस जालिम को,
घूमने लगे भू-नभ उसकी नजर में।।२९।।

ज्यों ही देखा एक सिपाही ने चन्द्रशेखर को -
फेंकते यों पत्थर, तो दौड़ा वो पकड़ने।
भीड़ में छिपा यों ‘‘चन्द्र’’ बादलों में जिस भाँति,
छिप जाता चन्द्र, मूढ़ लगा हाथ मलने।।
साथ ले सिपाहियों को ‘‘चन्दन के टीके वाले-
शेखर’’ की खोज वह लगा तब करने।
ढूँढ-ढूँढ हार गये जब सब तब उसे,
पकड़ा था धर्मशाला से सिपाही-दल ने।।३०।।


डाल के हाथों में हथकड़ियाँ ले गये थाने,
कर दिया बन्द ‘‘चन्द्र’’ शीघ्र हवालात में।
वहाँ थे अनेक सत्याग्रही स्वाभिमानी वीर,
धीर, मिलती थी मार उन्हें बात-बात में।।
ओढ़ने-बिछाने को न वसन भी उसे दिया,
जिससे कि ठिठुरे वो शिशिर की रात में।
पुलिस ने सोचा भयभीत होके शीत से ये,
क्षमा माँग लेगा हो विनीत कल प्रात में।।३१।।

आधी रात पुलिस निरीक्षक ने सोचा यह,
चलो देख आयें उस छोरे का क्या हाल है।
बेचारा! ठिठुर रहा होगा मारे ठण्ड के वो,
क्योंकि धरा शिशिर ने रूप विकराल है।।
गया हवालात, देखा खिड़की से झाँककर,
पेल रहा दण्ड वह भारत का लाल है।
रह गया दंग देख दृश्य वह कह उठा-
बाँधे जो इसे, न बना ऐसा कोई जाल है।।३२।।

न्यायाधीश ‘‘खरेघाट’’ के समक्ष लाया गया,
दूसरे दिवस उस वीर को पकड़ के।
पूछा ‘‘नाम’’ जज ने कड़कती आवाज में तो,
बतलाया बालक ने ‘‘आजाद’’ अकड़ के।।
उसी लहजे में फिर पूछा - ‘‘बता बाप का तू -
नाम ‘‘बोला वो’’ स्वाधीन’’ मुटिठयाँ जकड़ के।
फिर से सवाल किया - ‘‘बता तेरा घर कहाँ ?
तो कहा कि ‘‘हम हैं निवासी जेलघर के’’।।३३।।

जज ये जबाब सुन भुन गया क्रोध में था,
सजा पन्द्रह बेतों की थी सुना दी शेखर को।
सजा थी ये बड़ी-कड़ी, चमड़ी उधड़ जाती,
लेकिन तनिक भी न डर था निडर को।।
कमल से कोमल वपु पै बेंत तड़ातड़ -
पड़ने लगे, न उसने झुकाया सर को।
हर बेंत पर ‘‘गाँधी जी की जय’’ बोली ‘‘उफ’’ -
तक न की, धन्य, धन्य उस वीरवर को।।३४।।


जेल से निकलते ही जनता ने मालाओं से -
लाद दिया, कन्धों पै उठा लिया ललन को।
ज्ञानवापी में उसके स्वागत में सभा सजी,
सारे काशीवासी टूट पड़े दरसन को।।
जय ‘‘चन्द्रशेखर’’ की, ‘‘भारत माता की जय’’,
‘‘गाँधी जी की जय’’ ने गुंजा दिया गगन को।
मचल रहा था जन-गण-मन-क्रान्ति-दूत,
शेखर के पावन वचन के श्रवण को।।३५।।

तालियों की गड़गड़ाहट संग पुष्पवृष्टि -
हुई, जब चढ़ा ‘‘चन्द्र’’ मंच पै भाषण को।
श्रद्धाँजलि शहीदों को देके श्रोताओं से बोला -
‘‘राजी से ये गोरे नहीं छोड़ेंगे वतन को’’।।
भाषा नहीं प्यार की ये कुटिल समझते हैं,
अतः देशवासियों उठाओ ‘‘गोली-गन’’ को।
काटेंगे अवश्य, ये विषैले-विषधर नाग,
पूर्व ही सँभल के कुचल डालो फन को।।३६।।

गोलियों का सामना करेंगे, हैं ‘‘आजाद’’ हम
गोरों की गुलामी से छुड़ायेंगे वतन को।
देश की आजादी हित मिटना स्वीकार हमें,
जियेंगे गुलामी में न हम इक क्षण को।।
एक बार दुष्ट डाल चुके हथकड़ी किन्तु,
अब कभी बाँध न पायेंगे इस तन को।
अभी तक तो हमारा शान्तिरूप ही है देखा,
अब दिखलायेंगे स्वक्रान्तिरूप इनको।।३७।।

फिर अन्य गणमान्य लोगों के भाषण हुए,
सबने सराहा मुक्तकण्ठ से ‘‘आजाद’’ को।
श्री शिवप्रसाद गुप्त व सम्पूर्णानन्द जैसी,
हस्तियों ने उस पै लुटाया प्रेमाह्लाद को।।
हो गया विख्यात साथ भाषण के ‘‘मर्यादा’’ में,
छपी तसवीर वीर बालक की बाद को।
पा के समाचार दौड़े पिताजी तुरन्त काशी,
बोले बेटा! ‘‘घर चल छोड़ दे जेहाद को’’।।३८।।

तात की ये बात सुन सुत ने जबाब दिया,
‘‘गोरों को मैं स्वामी कभी नहीं कह सकता।’’
आप कहते हैं - ‘‘घर रहूँ सुख से’’ परन्तु-
‘‘चैन से गुलामी में मैं नहीं रह सकता।।’’
‘‘धन-धान्य-धरा-धाम, देह तज सकता हूँ’’
‘‘राष्ट्र-अपमान किन्तु नहीं सह सकता।’’
देके शुभ आशिष पिताजी घर जाओ, अब -
हिन्द को ये दुष्ट गोरा नहीं दह सकता।।३९।।

लौट गये पिता किन्तु कूद पड़ा आन्दोलन -
में, सपूत वह पुनः नये जोरों शोरों से।
किन्तु पड़ गया मन्द-चन्द दिनों बाद ज्वार,
उठा था असहयोग का जो बड़े जोरों से।।
गाँधी जी का चौरी-चौरा-कांड से नाराज होना,
व्यर्थ ही था गोरे कभी जाते ना निहोरों से।
राष्ट्र मुक्ति हेतु सेतु क्रान्ति के रचाये ‘‘चन्द्र’’
लेके क्रान्ति-केतु बढ़ा लड़ने को गोरों से।।४०।।

ख्याति सुन ‘‘हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ’’ का था,
‘‘चन्द्र’’ को सदस्य क्रान्तिवीरों ने बना दिया।
संघ को हृदय सौंप दिया सहा हर दुख,
उन्होंने स्वदेश पै स्वयं को मिटा दिया।।
विकराल-क्रान्ति-ज्वाल जला, जवां शेरे दिल-
दल में शामिल किये, दल को बढ़ा दिया।
अन्नधनाभाव में वे रहे चने चबाके या -
फाके से ही रहे किन्तु गोरों को रूला दिया।।४१।।

‘गाजीपुर’ में महन्त एक जराजीर्ण-काय-
है असाध्य रोग ग्रस्त-त्रस्त-अस्तप्राय है।
उसके समीप है असीम धन-मठ सब,
किन्तु नहीं कोई योग्य शिष्य या सहाय है।।
धन मिल जायेगा अपार यदि हममें से,
शिष्य बन जाये कोई, सरल उपाय है।
साधु बना भेज दिया दल ने शेखर को था,
सबको सुहायी ‘‘रामकृष्ण’’ की ये राय है।।४२।।

शेखर ने लिखा पत्र ‘‘मठ से यों साथियों को,
हम सबका गलत अनुमान हो गया।
महन्त के पास मास दो गुजर गये मुझे,
गुजरा न यह फिर से जवान हो गया।।
रोज खूब करता है कसरत, कई-कई-
किलो दूध पीता खाके मेवा साँड हो गया।
मुझसे यहाँ पै अब रहा नहीं जाता, कर -
कर सेवा इसकी मैं परेशान हो गया।।४३।।

मच गई खलबली दल में पाते ही पत्र,
‘‘गोविन्द’’, ‘‘मन्मथ गुप्त’’ गये गुप्त वेश में।
देख दुर्ग-सम मठ रह गये दंग, खूब -
समझाया - ‘‘भाई चन्द्र रहो इसी भेष में।।
इस धन के समक्ष सब धनपति तुच्छ,
कुछ धैर्य धरो छोड़ो इसको न तैश में।
इस धन से हमारे होंगे मनसूबे पूरे,
इसी भाँति धारे रहो ध्यान अखिलेश में।।४४।।




हो गया विवश बस चन्द्र का न चल पाया
काट हर बात दोनों लौट गये दल में।
बुरी भाँति फँस गया शेखर बेचारा ऐसे,
जैसे फँस जाता कोई गज दल-दल में।।
घुटने लगा वहाँ पै हर दम दम, उठी
हठ, मठ तज कूद पड़ा रण स्थल में।
धन था न पास, आश छूट गई अब सब,
क्रान्ति-दल छिप गया गम के बादल में।।४५।।

जरमनी हथियार गुप्त जलयान से थे,
आ गये परन्तु दल पै न एक पाई थी।
गन-गोली-बम और बारूद मिल सकते थे,
कैसे ? पैसे बिना बड़ी भारी कठिनाई थी।।
ट्रेन से जाता हुआ राजस्व लूट लिया जाय,
राय यह ‘‘बिस्मिल’’ की सबको सुहाई थी।
किया था कमाल-माल लूट दस युवकों ने,
खुलेआम खिल्ली गोरी सत्ता की उड़ाई थी।।४६।।

नौ अगस्त सन उन्नीस सौ पच्चीस की शाम,
को ‘‘काकोरी’’ के निकट घटी एक घटना।
हवा संग बतियाती गाती उड़ी जा रही थी -
ट्रेन, यात्री सभी देख रहे थे सु-सपना।।
खिंचने से चैन, चैन उड़ गया सबका ही,
बंद हुआ पटरी पै गाड़ी का रपटना।
कैबिन से गार्ड दौड़ा देखने तुरन्त, हुए -
‘‘धाँय-धाँय’’ फायर तो, पड़ा उसे लुकना।।४७।।

गार्ड पै पिस्तौल तानते हुए शचीन्द्र बोले,
हरी बत्ती देता है क्यों, क्या तुझे है मरना।
हाथ जोड़ गार्ड गिड़गिड़ाया कि - ‘‘क्षमा करो’’
नाथ मेरे बच्चों को अनाथ मत करना।
बख्शी बोले - ‘‘एकदम लेट जा जमीन पर-
औंधे मुँह, मार डाला जायेगा तू वरना।
झटपट धरा पै वो लेट गया उलटा हो,
नाम सुन मौत का है स्वाभाविक डरना।।४८।।

अंधकार किया झटपट चटकाये बल्ब,
जिससे किसी को कोई पहिचान पाये ना।
पलक झपकते ही हथियार बन्द, कब -
हो गये तैनात लोग यह जान पाये ना।।
गाड़ी में मेजर एक गोरे फौजियों के साथ,
थे पै वे ‘‘चूँ’’ करने की भी तो ठान पाये ना।
गोलियों की दनादन सुन चित्रलिखे-से वे,
क्रान्तिकारियों को कर परेशान पाये ना।।४९।।

रेलवे के खजाने का ट्रंक जमीं पर खींच,
खोलना चाहा पै चाबी उनके न पास थी।
माल डाल उस से निकालना असम्भव था,
विकट सुदृढ़ ऐसी बनावट खास थी।।
खुले बिना बक्से से निकालें माल किस भाँति,
यही सोच युवकों की मँडली उदास थी।
घन-छेनी से प्रहार किये कई वीरों ने पै,
छिद्रमात्र हुआ, यह देख दबी आश थी।।५०।।

पकड़ो पिस्तौल करूँ चौड़ा मैं सुराख यह,
कह-अशफाक उल्ला घन लेके आ पिले।
पुरजोर चोट से तिजोरी हुई खील-खील,
रुपयों से भरे थैले उनको वहाँ मिले।।
लगे चटपट-चादरों में माल बाँधने वो,
खुशी-खुशी सबके ही मन थे खिले-खिले।
किन्तु लखनऊ की तरफ से जो आती देखी,
रेलगाड़ी तो सभी के दृढ़ दिल भी हिले।।५१।।

सबने ही बन्दूकें, छुपा लीं इस भय से कि -
कही देख इन्हें गाड़ी यहीं रूक जाये ना।
हथियार बन्द गोरे हुए इसमें भी यदि,
तब तो चलाए बिना गोली बचा जाये ना।।
कोई न कोई तो ढेर हो ही जायेगा जरूर
किये औ कराये पर पानी फिर जाये ना।
बिना गड़बड़ी गाड़ी गुजर गई वो जब
सब बोले अब यहाँ और टिका जाये ना।।५२।।

चालाकी से लखनऊ पहुँचे ले माल सब,
फिर वे वहाँ से कहाँ गये नहीं ज्ञात ये।
जग-जंगल में ज्वाल के समान काकोरी की,
ट्रेन-डकैती की फैली बात रातोंरात ये।।
सुन सनसनी खेज-खबर ये अंगरेज,
चीखे-किन्होंने की खौफनाक खुराफात ये।
फाँसी पै चढ़ा दो फाँसे में जो भी फासिस्ट आयें,
ब्रिटिश सत्ता के सीने पर मारी लात ये।।५३।।

इस धर पकड़ में पकड़े पचासों ही बे-
गुनाह गुनहगार गोरी सरकार ने।
हत्या-राजद्रोह-लूटपाट के चलाये शीघ्र,
सब पै मुकदमें छिछोरी सरकार ने।।
पाँच सौ रुपये रोज ‘‘जगत नारायण’’ को -
दे, कराई पैरवी निगोड़ी सरकार ने।
सभी गुप्त बातें मुखबिरों ने बता दीं, लोग -
तोड़ लिए कई, चोरी-चोरी सरकार ने।।५४।।

गोविन्द वल्लभ-चन्द्र भानु औ मोहन जैसे,
क्रान्तिकारियों के थे वकील कई जोर के।
‘‘पन्त-दल’’ ने अकाट्य तीक्ष्ण - तर्क तीरों-द्वारा,
गोरों के वकील रख दिये झकझोर के।।
वर्ष बीत गया डेढ़, दस लाख रुपया औ
हुआ सरकारी खर्च चलते ही दौर के।
किन्तु फाँसी चार को औ कड़ी कैद बीसियों को,
दे दी, जज ने न सुने तर्क किसी ओर के।।५५।।

क्रान्तिकारी चुन-चुन देश-द्रोहियों ने दिये -
पकड़वा पै आजाद अभी भी फरार थे।
उन पै हुआ ईनाम भारी, भित्ति-भित्ति-चित्र,
चिपकाये, लालच में लोग बेशुमार थे।।
पल-पल बदल-बदल वेश घूमते थे,
शेखर निडर खाए बैठे गोरे खार थे।
पारे के समान झट जाते हाथ से खिसक,
चकमा पुलिस को वे देते बार-बार थे।।५६।।

कुछ काल काट काशी जी से पहुँचे वे झाँसी,
झौंककर धूल खूब आँखों में पुलिस की।
घर रहे देशभक्त चित्रकार शिक्षक श्री -
रूद्रनारायण के पै चिन्ता थी दबिश की।।
अतः ओरछा के घोर वन में वे रहे बन -
साधु ‘‘रूद्र जी’’ ने जब सलाह दी इसकी।
मोटर चलाना व सुधारना वे सहसा ही,
सीखने लगे, जो पड़ी नजर ब्रिटिश की।।५७।।

करना व्यायाम प्रातः मोटर चलाना नित,
साधना निशाना खूब जाकर के वन में।
चप्पे-चप्पे पर बैठी पुलिस को चकमा दे,
चुपचाप जाना कभी-कभी संगठन में।।
सिखलाना गन-गोली गोरों के विरूद्ध तीव्र,
क्रान्ति-ज्वाल धधकाना युवकों के मन में।
इस वक्त यही था समक्ष-लक्ष्य-लक्ष-लक्ष,
बहु विघ्न-बाधा आते-जाते थे जीवन में।।५८।।

चाहते थे चतुर चितेरे ‘‘रूद्र’’ एक चित्र,
खींचना चहेते चन्द्रशेखर आजाद का।
किन्तु थे हताश, मित्र को भी चित्र के लिए था,
इनकार में, सदैव उत्तर आजाद का।।
एक दिन नहाने के बाद तहमद में थे,
मान गया हृदय था प्रवर आजाद का।
‘‘मूँछ ऐंठ लूँ मैं’’ कहते ही था उठाया हाथ,
चित्र मित्र ने ले लिया सत्वर आजाद का।।५९।।

अलि-कुल-से थे घने-घुँघराले काले-काले-
बाल, भव्य भाल पर तेज था दमकता।
घड़ी बँधा बाँया हाथ ऐंठ रहा था कटार -
जैसी पैनी मूँछे मुख-चन्द्र था चमकता।।
कारतूसों की थी कसी कमर पै पेटी, हाथ-
दाँया माऊजर पर तभी आ धमकता।
कन्धे पै जनेऊ था सुशोभित शरीर-स्वर्ण-
जैसा शान से विशाल-वक्ष था झमकता।।६०।।

रियासत खनियाधाना के राजा कालकाजी
सिंह देव क्रान्तिकारियों के बड़े भक्त थे।
‘‘झाँसी में ही हैं आजाद’’ सुन ये प्रसन्न हुए,
भाव-भेंट के लिए उन्होंने किये व्यक्त थे।।
मोटर-मैकेनिक के गुप्त वेश में आजाद,
गये राजा साहब के यहाँ जिस वक्त थे।
हो गई प्रगाढ़ प्रीत, मीत बन गये दोनों,
क्रान्ति-दल करना वे चाहते सशक्त थे।।६१।।

खाना-पीना खेलना शिकार आदि सब कुछ,
शेखर के साथ ही थे महाराज करते।
यह देख चापलूस सोचने लगे - कि’’ राजा
अब न तनिक ध्यान हैं हमारा धरते।।
दरबारी चमचे इसी से लगे चिढ़ने पै
बेबस थे बस कुढ़-कुढ़ ही थे मरते।
शेखर ये भाँपते ही झाँसी से बम्बई गये,
बन कुली माल थे जहाजों पै वे भरते।।६२।।

सत्तु, चने खाते कभी-कभी भूखे ही सो जाते,
नील-नभ-चदरिया ओढ़ फुटपाथ पै,
पुलिसिया कुत्ते पीछे पड़े धोके हाथ हर
हथकण्डे चले ‘‘चन्द्र’’ आये नहीं हाथ पै।।
बम्बई में मिले बोले वीर सावरकर कि -
चन्द्र धो दो दाग ये जो लगा माँ के माथ पै।
कोटि-कोटि-कष्ट-कण्टकों से घिरा क्रान्ति-पथ,
परमेश-अनुकम्पा आप के है साथ पै।।६३।।

राष्ट्र-प्रेमी ‘‘श्री गणेश शंकर विद्यार्थी जी’’ का,
था ‘‘प्रताप’’ पत्र कानपुर से निकलता।
राष्ट्र-भाव-भरी रचनाएँ छपती थीं, जिन्हें
पढ़, जवानों में क्रान्ति-ज्वार था मचलता।।
हो गया प्रगाढ़-परिचय ‘‘चन्द्र’’ से थे खुश,
जान-जवाँ-दिल ‘‘दीप’’ देश पर जलता।
देशभक्त ‘भगत’ से हुई भेंट यहीं पर,
‘चन्द्र’-हृदय खुशी से बाँसो था उछलता।।६४।।

पाते ही भगत सिंह जैसा होनहार साथी,
शेखर का हौसला था द्विगुणित हो गया।
‘‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’’ के,
नाम से नवीन-दल था गठित हो गया।।
था अखिल भारतीय स्तर का ये क्रान्ति दल,
इसमें हरेक प्रान्त सम्मिलित हो गया।
सभी क्रान्तिकारियों के अनुरोध पर ‘चन्द्र’
‘‘कमाण्डर इन चीफ’’ चयनित हो गया।।६५।।

बड़े बेटे ‘‘सुखदेव’’ को निमोनिया निगल -
गया, गया उठ सर से पति का साया था।
बोझ से बुढ़ापे के न आपा था सँभल पाता,
माता जगरानी ने पै दुखों को उठाया था।।
‘‘भावरा’’ से आ बसी थीं कानपुर में ही हाय !
असहाय! बेटे के वियोग ने सताया था।
काकोरी-काण्ड के बाद से ही थे फरार ‘‘चन्द्र’’
माँ के दर्श का भी नहीं मौका मिल पाया था।।६६।।।

खुशी से थे खिले-खिले दिल दो बरस बाद,
मिले थे माँ-बेटे अहो! सुखद समय था।
‘‘नयनों के तारे ! प्यारे ! हूँ मैं तेरे ही सहारे,
कहा माँ ने गदगद हो उठा हृदय था।।
भारत माता के दुःख दूर करने को ही तो,
तुमने पिलाया माता मुझे निज पय था।
ऋण से उऋण तेरे हो न सकूँ मात, दे तू
वर, देशहित मिटूँ माँगता तनय था।।६७।।

लिया शुभाशीष शीश माँ के चरणों में धर,
शेखर खदेड़ने फिरंगियों को निकले।
था ‘‘प्रताप’’ ‘‘श्री गणेशशंकर’’ का निःसंकोच
चन्द्र घूमते थे गोरे जो भी अड़े कुचले।।
कुन्दन-भगत-शिव-राजगुरू-विजयादि,
वीरों को ले संग थे जुगाड़ सोचे अगले।
राह में लो रोक गाड़ी काकोरी के कैदियों की,
पिस्तौलों से कोर्ट को वो जेल से ज्यों ही चले।।६८।।

कोशिश की काकोरी के वीरों को भगाने की ये,
पर हर पहर था पहरा बड़ा कड़ा।
चौकस थी पुलिस न लग सका मौका हाय !
खाली हाथ क्रांतिकारियों को लौटना पड़ा।।
रोशन, लाहिड़ी, अशफाकउल्ला, बिस्मिल को,
गोरी सरकार ने था फाँसी पै दिया चढ़ा।
इनके लहू की लाल धार लख लाखों लाल,
लाल हो उठे औ खेल उन्होंने किया खड़ा।।६९।।

गोरे अधिकारियों का साइमन कमीशन
सन अट्ठाइस में आ धमका दमन को।
धूर्त-छलियों का झुण्ड अमन का नाम लेके,
करना ये चाहता था चौपट चमन को।।
चाहते हैं आगम न साइमन लौट जाओ,
हम सब गये जाग लगी आग मन को।
हर शहर ये गूँजे घोष रोष में आ गये,
सब भारतीय, सहा नहीं दुःशमन को।।७०।।

पहुँचा ज्यों ही लाहौर कमीशन ‘‘साइमन-
शीघ्र लौट जाओ’’ वहीं आये जिस ठौर से।
नारे ये लगाते चले लाखों लोग लाजपत-
जी के नेतृत्व में दशों दिशा गूँजी शोर से।।
लाठियों से निहत्थे लोगों को पीटा पुलिस ने,
चाहती थी नहीं हो विरोध किसी ओर से।
स्कॉट ने ‘‘पंजाब केसरी’’ पै लठ तड़ातड़-
जड़े, जान ‘‘जान जुलूस की’’ बड़े जोर से।।७१।।

हुये थे लहू से लथपथ लाला लाजपत-
राय हाय! जनता को कुचला झपटके।
गरजा सभा में ‘‘मोरी गेट’’ के मैदान मध्य,
घायल ‘शेरे-पंजाब’ पल हैं संकट के।।
बनेंगे ब्रिटिश शासन के कफन की कील,
मुझ पर लठ शठ ने हैं जो ये पटके।
सतरह नवम्बर सन अट्ठाईस को वे -
चल बसे, जालिमों के झेले बड़े झटके।।७२।।

सारे देश दौड़ गई शोक की लहर, कथा-
गोरों के कहर की थी शहर-शहर में।
भगत जुलूस में थे रहे सक्रिय, छवि थी-
घूमती शहीद लाला जी की ही नजर में।।
मुल्क की ये बेइज्जती नहीं सह सके, जल
उठी तीव्र ज्वाल प्रतिशोध की शेखर में।
खून से ही खून का था बदला लिया, सांडर्स-
मारा गया, दुष्ट ‘‘सर स्कॉट’’ के चक्कर में।।७३।।

‘‘जय’’ ने किया बहाना थाने के समक्ष, ठीक-
करने का साईकिल, लोगों को दिखाने को।
शाम के बजे थे चार निकला ज्यों ही बाहर
एक गोरा अफसर घर पर जाने को।।
करके मोटर साईकिल चालू चला, किया-
‘जय’ ने संकेत गुप्त गोलियाँ चलाने को।
राजगुरु, भगत ने कर दी बौछार, मार-
उसे, छिपने को दोनों भागे आशियाने को।।७४।।

भागते भगत, राजगुरु को दबोचने को,
दौड़े पुलिस के कुत्ते द्वार पै जो खड़े थे।
मारी टाँग पे जो गोली भगत ने ‘‘फार्न’’ के तो,
रुक गये सब भीरू यूँ ही पीछे पड़े थे।।
चमचा ‘‘चनन’’ चौकड़ी था हेकड़ी से भर-
रहा किन्तु चुपचाप ‘‘चन्द्र’’ छिपे खड़े थे।
‘‘चनन’’ को मजा मॉऊजर से चखाया, और-
उनको भी जो भी मरने को आगे अड़े थे।।७५।।

‘साण्डर्स’ की हत्या का संदेश देश-देश फैला,
शीघ्र भारतीय सुन हुए मगरूर थे।
पुलिस के छूटे थे पसीने-सीने पै सत्ता के,
गिरी गाज गोरों के गुरूर हुए चूर थे।।
करके था रख दिया नाक में वीरों ने दम,
शासन के लिए शूर वे हुए नासूर थे।
सरदी की रात थी पै हुआ था लाहौर गर्म,
नाकेबन्दी में भी बन्दे वे हुए काफूर थे।।७६।।


कूर्च-केश कटवाके गोरे बाबू बन गये,
वे असरदार बाजी पै लगाये प्राण थे।
सीने से लगे शचीन्द्र उनके थे राजगुरु,
बने चाकर चतुर करते प्रयाण थे।।
दुर्गाभाभी बिलायती पत्नी बन गई, धन्य-
धन्य! धैर्य-धुरी देश के ही ध्रुव-ध्यान थे
लाँघे थे दुर्गम दुर्ग दुर्गादेवी की दया से,
भगत ने भगवती-चरण महान थे।।७७।।

थे आजाद पंछी फुर्र फौरन ही हो गये वे,
नहीं फँस सके सब काट डाले जाल थे।
भगे वे भगवे-भेष में भ्रमित कर दिया,
राम-नाम रटते वे चले मस्त चाल थे।।
जहाँ-तहाँ बम बनाने के कारखाने खोले,
दुष्टों को दिखाना चन्द्र चाहते कमाल थे।
कलकत्ता में सीखी थी बम बनाने की विधि-
भगत ने, गोरों पर भारी हुए लाल थे।।७८।।

औद्योगिक विवाद औ जनता-सुरक्षा-बिल
गोरों ने बनाये, चला नई कूट चाल को।
इन बिलों द्वारा प्रतिबन्धित था किया, हर
जन-आन्दोलन, मजदूरी हड़ताल को।।
देख ‘‘बिल’’ बिल बिला उठा देश, बलबले
दिलों में वीरों के उठे बदलने हाल को।
‘‘दत्त’’ व ‘‘भगतसिंह’’ ने था बम-धमाकों से,
देहली में दहलाया ‘‘असेम्बली-हाल’’ को।।७९।।

उन्नीस सौ उंतीस की आठ अप्रैल को थे,
अरे! सुने बहरों ने भी धमाके बम के।
छा गया धुआँ ही धुआँ, ‘‘क्रांतिकारी-पम्पलेट’’,
बरसे गगन से थे वहाँ थम-थम के।।
क्रांति होवे चिरंजीवी ‘‘इंकलाब जिंदाबाद’’,
‘‘गोरों का हो नाश’’ गूँजे नारे यह जमके।
होश औ हवास हुए गुम, गश खाके गिरे,
‘‘मेम्बर-असेम्बली’’ के मारे भय, गम के।।८०।।

इधर-उधर धर सिर पर पैर सब-
नर भाग खड़े हुए चीखते-चिंघाड़ते।
चाहते अगर भाग सकते थे क्रान्तिवीर,
बड़े ही मजे से, भीरू गोरे क्या बिगाड़ते।।
आ गई पुलिस झट, उनको पकड़ने को,
पर शेरे दिल वहीं रहे वे दहाड़ते।
हुए नहीं परेशान-शान से खड़े थे सीना-
ताने मस्ताने गोरों को ही थे लताड़ते।।८१।।

हथकड़ी हाथों में न डाल सकने की हुई-
हिम्मत, सिपाहियों की, सब डर रहे थे।
हो गये हैरान खुद, होने को हवाले जब,
पुलिस की ओर वे कदम धर रहे थे।।
पुलिस हिरासत में जाके भी ‘भगत’, ‘दत्त’,
‘‘इंकलाब जिंदाबाद’’ घोष कर रहे थे।
कायम मुकदमा हो गया सजा फाँसी की थी
निश्चित, पै गोरे न्याय-ढोंग भर रहे थे।।८२।।

सांडर्स की हत्या का भी खोला भेद सब कुछ
कुछ दुष्ट देशद्रोही ज्यादा ही मक्कार थे।
किये जयगोपाल कैलाशपति व फणीन्द्र,
जैसे मुखबिरों ने गोरे खबरदार थे।।
पकड़-पकड़कर कर दिये बन्द वीर,
राजगुरु, सुखदेव, विजय कुमार थे।
उदासी की दलदल में था धँसा दल, हुए-
शिववर्मा जैसे वीरों को भी कारागार थे।।८३।।

अखरा आजाद को अभाव भारी भगत का,
दल के वह असरदार सरदार थे।
भुगते भगत सजा फाँसी की असम्भव है,
किया निश्चय ‘‘चन्द्र’’ बड़े ही खुद्दार थे।।
यशपाल भाई भगवती चरण, सुशीला-
दीदी, दुर्गाभाभी सभी के यही विचार थे।
भगत को जेल से भगाने की जुगत जान-
दाँव पै लगा के करी सभी होशियार थे।।८४।।

धावा बम-गोलो, पिस्तौलों द्वारा पुलिस पै,
बोलके छुड़ाया जाये ‘‘दत्त’’ सरदार को।
लाहौर सेंट्रल जेल से बाहर ज्यों ही आयें,
दिखलाया जाये जरा जोर सरकार को।।
सभी अभियुक्त मुक्त कराने के लिए चुना
एक जून उन्नीस सौ तीस रविवार को।
उठती थीं मानस में तरल तरंगे जंगे-
आजादी के यौद्धा थे तैयार तकरार को।।८५।।

हाय! योजना पै पानी फेर गई वो अशुभ-
शाम अट्ठाईस मई की दुखद बड़ी थी।
रावी तट के निकट फट गया हाथ में ही,
बम, जाँच के दौरान विपद की घड़ी थी।।
हाथ की तो बात ही क्या जल गया, गात सारा,
मांस-लोथड़ों से रक्त-धार फूट पड़ी थी।
सारी आँत पेट से बाहर हो चुकी थीं, चोट
विस्फोट की थी मौत सामने ही खड़ी थी।।८६।।

वेदना असह्य दिल में दबाते हुए बोले,
भगवती चरण यूँ सुखदेव राज से।
चुक गई बाती सब जल गया तेल ‘दीप’
जीवन का खेल खत्म हुआ यह आज से।।
जाकर खबर कर दो ये दल में कि मुझे,
बम ले बैठा न बच सका यमराज से।
मेरे बचने की नहीं अब कोई आशा भाई,
टाँग ये कराओ ठीक अपनी इलाज से।।८७।।

सुखदेवराज न थे चाहते कराहते का,
छोड़ना यूँ साथ पर बड़ी मजबूरी थी।
एक ओर मित्र का था प्यार और दूजी ओर,
दल में खबर ये पहुँचनी जरूरी थी।।
धीरे-धीरे छा रही थी धरा पै अँधेरी शाम,
दल के ठिकाने की वहाँ से काफी दूरी थी।
देखभाल हेतु साथी ‘बच्चन’ को पास छोड़,
दौड़े, धरी रह गई योजना अधूरी थी।।८८।।


झटपट तट पै जा पहुँचे दो साथियों के-
साथ यशपाल, हाल बहुत गम्भीर था।
चन्द्र चेहरे की झलक की ललक थी, दिल-
भगत की मुक्ति युक्ति के लिए अधीर था।।
धीर वीर झेल रहा पीर के था तीर, यम-
मर्म को कुरेद रहा होकर बेपीर था
लाद के हाथों या कन्धों पै ले जाना मुश्किल था-
बुरी भाँति लोथड़ो में बदला शरीर था।।८९।।

कर पाये जब लों इलाज का प्रबन्ध हाय !
असहाय ‘‘बोहरा’’ ने पा ली वीर गति थी।
अगली प्रभात बात खुलने के खौफ से की,
वहीं पै अन्तिम क्रिया, सभी की सम्मति थी।।
दल के थे दिल, दायाँ हाथ थे आजाद का वे,
उनके प्रयाण हा! अपूरणीय क्षति थी।
भाभी के सुखों का तो मृणाल मानों तोड़ डाला,
दुर्भाग्य-गज ने की नीचताई अति थी।।९०।।

भगत की मुक्ति इच्छा आखिरी थी ‘‘बोहरा’’ की
पूर्ण करने की जिसे ‘चन्द्र’ ने भी ठानी थी।
निश्चित दिनाँक एक जून को तैयार होके,
जेल में जा छिपे किन्तु बदली कहानी थी।।
पूर्व निश्चयानुसार किया न संकेत गुप्त,
‘भगत’ ने साथियों को बहुत हैरानी थी।
‘‘बोहरा’’ के बाद जो ‘‘आजाद’’ को भी छीन लेवे,
‘भगत’ को चाहती न ऐसी जिन्दगानी थी।।९१।।

हो गया विफल दल ऐसी विपरीत बात,
चली कली खुशी की हरेक झड़ गई थी।
किन्तु फिर भी न छोड़ी तदवीर वीर क्रान्ति-
दल के खिलाफ ये खुदाई अड़ गई थी।।
गरमी से रात को ठिये पै खुद फट गया,
बम अचानक मच भगदड़ गई थी।
ऊपर आ पड़ा था पहाड़ परेशानियों का,
तकदीर बहुत ही मन्द पड़ गई थी।।९२।।

हो गया था तितर-बितर क्रान्ति-दल ‘‘चन्द्र’’
सोचते थे कैसे करें सुगठित इसको।
आसन प्रयागराज आ-जमाया आजमाया,
क्या बतायें उन्होनें वहाँ पै किस किसको।।
जवाहरलाल नेहरू के घर जाके मिले,
वहाँ पै भी देखा खूब करके कोशिश को।
अफसोस ! घृणित ‘‘आतंकवाद’’ नाम दिया,
‘‘नेहरू’’ ने, ‘‘चन्द्र’’ क्रान्ति कहते थे जिसको।।९३।।

‘चन्द्र’ ने जवाब देते हुए ये सटीक कहा-
नेहरू जी ! शान्ति से हैं राज नहीं मिलते।
आपकी अहिंसा में जो होता कोई दम तो ये,
बुरे दिन देखने को आज नहीं मिलते।।
कभी का हो गया होता भारत आजाद यदि,
गाँधी जी की शान्ति के रिवाज नहीं मिलते।
सुमनों की सजी सेज होती होते सुख साज,
कष्ट-कंटकों के सरताज नहीं मिलते।।९४।।

परतन्त्रता का ये तमाम तमतोम तूर्ण,
चूर्ण करने की पूर्ण ताकत है क्रान्ति में।
होती है प्रचण्ड ज्वाला-ज्वाल ज्यों कराल-काल-
कालिमा का, त्यों ही ये है, रहो नहीं भ्रान्ति में।।
चमाचम चमक दमक उठते विदग्ध,
कुन्दन की भाँति चुँधियाते चश्म कान्ति में।
आने वाले वक्त में हो जायेगा मालूम सब,
कितना है दमखम गाँधीवादी शान्ति में।।९५।।

खूब हो गयी थी तंग आ गई थी नानी याद,
सत्ता को आजाद की आजादी तड़पाती थी।
धरे थे ईनाम भारी-भारी सरपर और,
लोभी गद्दारों के गिरोहों को उकसाती थी।।
रहने लगे थे यूँ तो चन्द्र भी बेचैन चैन,
दिन रैन क्योंकि अब पुलिस चुराती थी।
चंपत हो लेते थे चतुर चकमा दे किन्तु,
हाथ मलकर गोरी सत्ता रह जाती थी।।९६।।

सन् इकत्तीस की है सत्ताईस फरवरी,
बड़ी मनहूस न था पता ये आज़ाद को।
सुखदेवराज को ले साथ अलफ्रेड पार्क,
बैठ के विचारते थे दल के विषाद को।।
पास से गुजरते जो देखा वीरभद्र को तो,
चौंक पड़े चन्द्र तज दिया था प्रमाद को।
शायद न देखा हमें, अभद्र ने यह सोच,
दोनों ने बढ़ाया आगे अपने संवाद को।।९७।।

सनसनाती आ धँसी सहसा ही गोली एक-
जाँघ में, आजाद की भृकुटि तन गई थी।
गोली का जवाब गोली मिला, हाथों हाथ हुआ-
हाथ ‘‘नॉट बावर’’ का साफ, ठन गई थी।।
पीछे पेड़ के जा छुपा झपट के झट ‘‘नाट’’
पुलिस के द्वारा ले ली पोजीशन गई थी।
घिसट-घिसट के ही ले ली ओट जामुन के,
पेड़ की आजाद ने भी, बात बन गई थी।।९८।।

दनादन गोलियों की हो गई बौछार शुरू,
पुलिस न थाम सकी शेखर के जोरों को।
दाईं भुजा बेध गोली फेफड़े में धँस गई
तो भी भून डाला बायें हाथ से ही गोरों को।।
साफ बच निकला था साथी सुखदेवराज,
अकेले आजाद ने छकाया था छिछोरों कों।
एस०पी० विश्वेसर का जब उड़ा जबड़ा तो,
हड़बड़ा उठे खौफ हुआ भारी औरों को।।९९।।

था अचूक उनका निशाना बायें हाथ से भी
गोरों को चखाया खूब गोलियों के स्वाद को।
चन्द्र ने अकेले ही पछाड़ा अस्सी सैनिकों को,
होता था ताज्जुब बड़ा देख के तादाद को।।
दिन के थे बज गये दस यूँ ही आध घंटा,
गुजर गया था जूझते हुए आजाद को।
शनैः शनैः शिथिल शरीर हुआ गोलियों से,
भर भी न पाये पिस्तौल वह बाद को।।१००।।


शेखर की तरफ से स्वयमेव गोलियों की,
दनदन कुछ देर बाद बंद हो गई।
फुर्र हो गया आजाद पंछी देह रूपी डाली,
धरती पै गिरकरके निस्पंद हो गई।।
बात छूने की तो दूर पास तक भी न आये,
सभी, गोरों की तो गति-मति मंद हो गई।
दागी थी दुबारा गोली कायरों ने लाश पर,
दहशत दिल में थी यों बुलंद हो गई।।१०१।।

ब्रिटिश-सत्ता का पत्ता-पत्ता बड़ी बुरी भाँति,
अरे ! जिसकी हवा से काँपे थर-थर था।
खौफ भी था खाता खौफ, खतरा था कतराता,
जिससे बड़े से बड़ा डरे बर्बर था।।
गिरेबाँ पकड़ के गिराये गद्दी से गद्दार,
पँहुचाया जिसने गदर दर-दर था।
किया था जवान वो जेहाद फिर आजादी का,
जालिमों के जुल्मों ने जो किया जर्जर था।।१०२।।

परम पुनीत नवनीत सम स्निग्ध शुभ्र,
सरस सुसेव्य शुचि सुधा सम पेय है।
शशि-सा सुशीतल, अतीव उष्ण सूर्य-सम,
उग्र रुद्र सा, प्रशान्त सागरोपमेय है।।
सर्वदा अजेय वह, जिसका प्रदेय श्रेय,
रहा भारतीय जन मानस में गेय है।
धन्य-धन्य अमर आजाद चन्द्रशेखर वो,
जिसका चरित्र चारू धरम धौरेय है।।१०३।।

कोड़े खूब झेले पेले कोल्हू पाया कालापानी,
दे दीं अनगिन कुर्बानियाँ जेहाद में।
भूख-प्यास भूल भटके जो भक्त उम्रभर,
देशहित पायीं परेशानियाँ प्रसाद में।।
माँ की आबरू के लिए ही जो जिये मरे, बस
उन्हीं की सुनाते हैं कहानियाँ उन्माद में।
करते अखर्व गर्व सर्व भारतीय, पर्व-
पावन मनाते बलिदानियों की याद में।।१०४।।


मोम हो गई थीं गुलामी की वजह से जो भी,
बदल गईं वही जवानियाँ फौलाद में।
गोरों के गुरूर एक चुटकी में किये चूर,
हो गये काफूर वे ब्रिटानियाँ तो बाद में।।
फूँकी नई जान जंगे आजादी हो उठी जिंदा,
जादू था, अजब थी रवानियाँ आजाद में।
करते पूजन जन-जन, मन-मंदिर में,
बस रह गयीं है निशानियाँ ही याद में।।१०५।।

प्रभो ‘चन्द्रशेखर’ आदर्श हों हमारे सदा,
प्राणों की पिपासा, बुझे प्रेमाह्लाद भाव से।
परहित नित हो निहित प्राणियों में सब,
विरहित जन-मन हो विवाद भाव से।।
दमके ‘संदीप’ दिव्य द्युति नव जीवन में,
धधके नवल क्रांन्ति उन्माद भाव से।
वाणी का विलास औ हृदय का हुलास लिए,
कवि-काव्य का विकास हो आजाद भाव से।।१०६।।

जय-जय विस्मय विषय चन्द्रशेखर हे !
रण-चातुरी से तेरी रिपु गया हार है।
जय-जय विनय निलय चन्द्रशेखर हे !
झुका आज चरणों में सकल संसार है।।
जय-जय सदय हृदय चन्द्रशेखर हे !
दिव्य आचरण तब महिमा अपार है।
जय-जय अभय आजाद चन्द्रशेखर हे !
चरणों में विनत नमन बार-बार है।।१०७।।

हे प्रकाश पुंज चन्द्रशेखर प्रखर तव-
पाने को कृपा-प्रसाद फैली शुभाँजलि है।
अमर सपूत क्रान्ति दूत चन्द्रशेखर हे !
शुभ चरणों में मेरी यह श्रद्धाँजलि है।।
अचल हिमादि्र-सम द्रुत मनोवेग-सम,
अनुपम जीवट हे तुम्हें पुष्पाँजलि है।
अद्वितीय नेता हे स्वातन्त्र्य भाव चेता, जेता,
तुमको ‘संदीप’ देता स्नेह भावाँजलि है।।१०८।।

लेखन-सृजन है कठिन, कवि द्वारा प्रभो !
आपकी महती कृपा-शक्ति-काव्य-प्राण है।
कल्पना तुम्हीं हो तुम्हीं कविता हो कवि तुम्हीं,
‘दीप’ काव्य का प्रकाश होना वरदान है।।
‘‘चन्द्रशेखर आजाद-शतक’’ सुपूर्ण हुआ,
परम प्रसन्न मन धरे तव ध्यान है,
प्रभो क्षमावान क्षमा कीजिए अजान जान,
बालक से त्रुटियाँ हो जाना तो आसान है।१०९।।

Tuesday, February 9, 2010

DEEP LOVE'S SIPS



Rhythmic steps oh dear, tapping to unfold.
Hidden love up glowing so uniquely.
Through your eyes it’s clear, how deeply you hold
Thou art, up shows in your heart obliquely.

On surface so furious, tidal wave
-Dances to the moon with magnetic force.
Its mysteries hide in Cordial cave
Melodious harmony love’s real source.

Of course in every spring, bud’s beauty blooms.
To touch untouched butterfly’s lovely lips
An essential unquenchable thirst looms.
To take freely lips to lips DEEP LOVE'S sips.

Because of you I perceive beyond things
You’re the source of love that brings always springs.

Wednesday, January 27, 2010

अनुपमा सुषमा माँ !

उत्तरीअमेरिकीय द्वीप ही नहीं अपितु समस्त हिन्दी साहित्य-जगत के आधुनिक हिन्दी हस्ताक्षरों में सर्वाधिक सुवर्णमय सौम्य समीर लाल जी के ब्लाग उड़न तश्तरी - udantashtari.blogspot.com पर पढ़कर पता चला कि उनकी अपनी माँ के पावन पद्मपदों के प्रति कितनी अप्रतिम प्रीति है :अनायास मेरे मन में जो कुछ भावप्रसून विकसे मैं भी उन्हें माँ के हर उस रूप पर समर्पित करता हूँ जिसकी वन्दना वेदों तक में की गई है- आचार्य संदीप कुमार त्यागी
माँ
परमपिता के ध्यान में टिके न लाख टिकाये।
माँ की ममता में मगर मन आनन्द मनाये

होने को भगवान भी, बड़ी कौन सी बात।
“माँ होना” भगवान की भी पर नहीं बिसात॥

मन से किस सूरत हटी मूरत माँ की बोल।
बच्चे से बूड़े हुए माँ फिर भी अनमोल॥

दूह दूह कर स्वयं को किया हमें मजबूत।
कैसे माँ के दूध का कर्ज़ उतारें पूत॥

माँ की ममता की अरे समता नाही कोय।
क्षमता माँ की क्या कहूँ प्रभु भी गर्भ में सोय॥


अनुपमा सुषमा माँ !
सात समुद्रों से भी ज्यादा
तेरे आँचल में ममता है।
देखी हमने सारे जग में,
ना तेरी कोई समता है॥

सौम्य सुमन सरसिज के हरसें
सरसें स्नेह सरोवर नाना।
सुप्रभात की अनुपमा सुषमा,
सदा चाहती है विकसाना॥
सुधा स्पर्श सा सुन्दर शीतल
सुखद श्वास प्रश्वास सुहाना।
कल्पशाख से वरद सुकोमल
कर अभिनव मृणाल उपमाना॥
स्वर्ग और अपवर्ग सभी कुछ,
माँ की गोदी में रमता है॥

हो शुचि रुचि पावन चरणों में,
तेरा करूँ चिरन्तन चिन्तन।
शीश चढ़ा दूँ मैं अर्चन में,
अर्पित कर लोहू का कण कण॥
मणिमय हिमकिरीटिनी हेमा
माँग रहे वर तव सेवक जन।
शुभ्रज्योत्स्ना स्नात मात तव
वत्स करें शत शत शुभ-वंदन॥
सप्त सिन्धु का ज्वार तुम्हारे
पद पद्मों को छू थमता है॥

Sunday, January 24, 2010

दो दो घर इक आदमी रहता फ़िर भी तंग

बचपन से था ख्वाब इक उड़ूँ हवा के संग।
मैं भी ज्यों आकाश में उड़ते सभी विहंग॥१॥

धीरे धीरे पर हुआ मुझको भी मालूम।
बिना पंख नहीं आदमी सका व्योम को चूम।।२॥

मुझको जब जब दीखते नभ में वायुयान।
उड़ने को व्याकुल हुआ तब तब मैं नादान॥३॥

हवई जहाज में बैठ कर सात समन्दर पार।
आ पाऊँगा मुफ़्त में पता नहीं था यार॥४॥

गजब देश है अजब हैं सभी यहाँ के ढंग।
दो दो घर इक आदमी रहता फ़िर भी तंग॥५॥

तनिक तनिक सी बात पर तुनक तुनक कर यार।
बीवी मीयाँ को करे बाहर ठोकर मार॥ ६॥

साठे पर पाठा भई लगना अच्छी बात।
पर क्यूँ बूढ़ा षोडशी संग गात सुलगात॥७॥

पचपन में बचपन चढ़ा,बचकानी करतूत।
गणिकालय में हैं पड़े चढ़ा काम का भूत॥८॥

बच्चे आवारा रहें गायब रातोंरात।
गलबइयों से ली बढ़ा बहुत ही आगे बात॥९॥

गमछू प्रेसीडेंट की दूजी ब्याहता जाई।
वो नाबालिग छोकरी इक दिन मंदिर आई॥१०॥

पाँव पन्द्रहवें साल में ही करवाके भारी।
क्या सुख से बन पाएगी नारी वो बेचारी।।११॥

भ्रूणहनन पर मनन भी है संवेदनशील।
स्कूलों में बँट रहा लिटरेचर अश्लील।।१२॥

सोने की चिड़िया छुटी लुटी सभी जागीर।
हाय क्यों परदेश में ले आई तकदीर॥१३॥

होते ढोल सुहावने सदा दूर के यार।
अभी तलक समझे नहीं प्यारे रिश्तेदार॥१४॥

हाथ पाँव हैं मारते करते हर तदबीर।
चले कनाडा के लिए बेच सभी जागीर॥१५॥

झरते डालर डाल से हैं यूरो के पेड़।
बने विदेशों के लिए घने पढ़े भी भेड़।।१६॥

हर युवक है बुन रहा ख्वाब यही दिन रैन।
सोते जगते हों भले खुले अधखुले नैन॥१७॥

अमरीका इंलैण्ड में ही है असली चैन।
लैन्डेड होना मांगता है हर इण्डियन मैन॥१८॥

ऐसे भी पकड़े गये कई कबूतरबाज।
जिनका अपना था अलग साज बाज अंदाज॥१९॥

कई केस ऐसे खुले जिनमें खुद माँ बाप।
बेटे बेटी से करा रहे भयंकर पाप॥२०॥

लालच डालर का बुरा,बिका दीन ईमान।
बार बार हैं हो रहे, नकली कन्या दान।।२१॥


पंद्रह बीस हजार में दूल्हे दुल्हन फर्जी।
जहाँ तहाँ उपलब्ध हैं ले लो जितनी मर्जी॥२२॥


हमने तो यहाँ तक सुना इधर उधर से यार।
रिश्तों को रख ताक पर ब्याह रचें मक्कार॥२३॥


लेकिन हम दस साल में असल समझ यह पाए।
सौ फ़ीसद परदेश में कौन सुखी रह पाए॥२४॥

सब भूमि गोपाल की बात अगर सिरमाथ।
भारत को रख हृदय में रहो प्रेम के साथ॥२५॥

तुम चाहे जिस देश में रहो कुटुम्ब समान ।
आर्य कार्य करते रहो वसुधा का कल्याण॥२६॥

Friday, January 22, 2010

विजयघोष बोस का

पड़ा कर्ण कुहरों में क्रन्दन करुण स्वर
भारत माता का, तो हो उठा वो करुण था।
हुआ नष्ट परतन्त्रता का तमतोम तभी
तमतमा उठा तीव्रतेज से तरुण था॥
मारे डर के जा घुसे सब वैरी विवरों में,
विश्व वन्दनीय वरणीय वो वरुण था।
फौज में था ओज क्रांति अरुणाई छाई खिले-
खुशियों के उर अरविंद वो अरुण था॥१॥

धैर्य शौर्य साहस था जिसमें असीम दीप
सामना न कर सका कभी कोई रोष का ।
दिव्य भव्य रुप था अनूप प्रगटा सके जो
जँचता न ऐसा कोई शब्द शब्द कोश का॥
जमने जमाने में न दिया जोर जालिमों का
जवानों में जिसने जगाया ज्वार जोश का ॥
जहाँ में है जाह्नवी जमुन जल जबतक,
गूँजेगा गगन में विजयघोष बोस का ॥

भारतं विभासतां

हे विभो ! भवन्तु मे भारते सुनायका:।
मोद शान्तिदायका: सुसम्पदा प्रदायका:॥

हस्ति-तुल्य गर्जनं सिंह तुल्य नर्दनं,
कुर्वतां रणाङ्गणे शत्रु-मानमर्दनं।
कण्टकेन कण्टकं ये हरन्तु सत्वरं,
सन्तु ते भुवि प्रभो! क्रान्ति-गीत-गायका:॥

ये सदैव तन्वतां देशभक्ति भावनां
भारतं विभासतां पूर्यताञ्चकामनां।
मातरं भजन्तु ये दीनतां दलन्तु ये,
भान्तु तेऽखिला: जना: नायका: विधायका:॥

कुछ घटिया प्रवासी

लोहे की चिड़िया चढ़े आये देश सुदूर।
कुछ ने ढूँढा रोकड़ा और कुछ ताकें हूर॥
और कुछ ताकें हूर नूर है तनिक न जिनपे।
रखते हैं वो रकम हरामी मोटी गिनके।।
कहना इनको भारतीय बिल्कुल ना सोहे।
लठ तुड़वाओ ऎसो पे पड़वाओ लोहे॥१॥

कुछ को नहीं मालूम है यहाँ प्रवासी कुछ ।
भूल भाल निज सभ्यता हरकत करते तुच्छ॥
हरकत करते तुच्छ तुच्छ ही चलते चालें।
भारतीय गुण धर्म संस्कृति बना के ढालें॥
हैवानों के हाथ,बने जालिम हैं सचमुच।
आतंकी अड्डों से जुड़ करते कुछ का कुछ॥२॥

Friday, January 1, 2010

दो हजार दस ईसवी हुआ दीप प्रारम्भ।

नये साल के जश्न में लोग सभी खुशहाल।
दुल्हनिया उम्मीद की पहिने चोला लाल॥

लालपरी की बोतलों में पानी सा लाल।
लल्लू जिस पै लुटा रहे पैसा बिना मलाल॥

स्वागत में नये साल के छूटी स्वतः शरम।
पी बोतल बूढ़े बदन होने लगे गरम ॥

हट्टी पर लहरा रहे उल्लू गाँधी छाप।
जबकी बापू मानते थे शराब को शाप॥

कांग्रेस को मिल गया अजी दूसरा चांस।
गाँधीवादी कर रहे कुर्सी संग रोमांस॥

गाँधीवादी महामहिम नारायण के संग।
गणिकाएं लख अंतरंग है गणतंत्र भी दंग॥

तापमान रहे संतुलित लगे तनिक ना ठंड।
बना बहाने बेतुके फूंक रहे सब फंड ॥

बिना दवा के मर रहे लोग रोज़ के रोज़ ।
कहती है सरकार पर बड़ा आर्थिक बोझ॥

सरकारें करवा सकीं नहीं दवा उपलब्ध।
स्वाइन फ्लू ने कर दिया यू एन तक स्तब्ध॥

इंतजाम कैसे करें मंदी की है मार।
छोटे मोटे बड़े बड़े बंद हुए व्यापार॥

साल गया यह सालता कहें सियाने लोग।
अमरीका तक को लगा बुरा रिसेशन रोग॥

दो हजार दस ईसवी हुआ दीप प्रारम्भ।
आशा है अब मिटेगा शीघ्र सभी छ्ल दंभ॥