निगाहों ही निगाहों में हुई कुछ गुफ़्तगू ऐसी
दिलों में बढ़ गई एक दूसरे की आरजू ऐसी।
बयां ना कर सकेगी ये जुबां अहसासे उल्फत को
गज़ब महबूब की चाहत जगी है जुस्तजू कैसी॥
कभी जंगल में रहता हूँ कभी बस्ती में रहता हूँ।
हुआ जोगी दिवाना दिल, तेरी मस्ती में रहता हूँ॥
न कोई डूबने का डर, न चिंता पार होने की,
कभी मौज़ों में रहता हूँ, कभी कश्ती में रहता हूँ॥
जवाँ अल्हड़ सी एक लड़की,सुनहरी धूप सी सुन्दर,
बिना दस्तक दिए खिड़की से दिल की ,घुस गई अंदर॥
बड़े चुपके से और रौशन हुई यूँ रुह तक मेरी
बनी कविता ऋचा पावन बना मन प्यार का मंदिर॥
बदन उसका सलोना ज्यों वसन्ती हो लता कोई
नवल कोंपल कलि कुसुमों में उसकी नवलता सोही।।
छिटक सी है रही सुन्दर छ्टा क्षण क्षण भुवन वन में
भ्रमर मन में अमर रस कामना हूँ पालता त्योंही॥
तुम्हें मालूम क्या कविताओं में, मेरे वो छ्न्दों में
वही ग़ज़लों के शेरों में,मेरे गीतों गयन्दों में॥
वही स्वछन्द हो लयताल सुर पर गुनगुनाती है।
वही पहली वही है आखिरी मेरी पसन्दों में॥
Friday, April 16, 2010
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BAHUT KHUB
ReplyDeleteSHEKHAR KUMAWAT
http://kavyawani.blogspot.com/