Saturday, March 21, 2009

"वेदना" प्रणेता: आचार्य पं.हरिसिंह त्यागी

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किसी का भला क्या, बुरा कर रहा हूँ।
गरल पी चुका हूँ, गरल पी रहा हूँ।।

किसी को रूलाना बुरा तो है लेकिन,
किसी को हँसाना बुरा क्या है, लेकिन-
हँसा ही रहा हूँ स्वयं को रूलाकर,
कि जख्मों पे अपने, नमक मल रहा हूँ।।१।।

दृगों के कणों से विजन-वन की दावा,
बुझाना ही मुझको भला लग रहा है।
कि श्वासों के झोंको से सूखे समन्दर,
ये प्रयास अपना, सफल कर रहा हूँ।।२।।

चला जा रहा हूँ विषम वक्र-पथ पर,
हवाओं की टक्कर सहन कर रहा हूँ।
तपन पड़ रही है मुसाफिर के सिर पर,
जलन से जलन को शमन कर रहा हूँ।।३।।

तिरस्कार कितने सहे जा चुके हैं।
प्रतिकार कितने किये जा चुके हैं।।
किया जा चुका है हृदय को भी पत्थर,
‘‘हरि’‘ वेदनाएँ सहन कर रहा हूँ।।४।।

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