प्रस्तुत है महर्षि दयानंद सरस्वती के जीवन पर आधारित “दयानंद शतक” जिसका प्रणयन आज से ठीक १९ साल पहले होली के शुभ दिन डॉ. सत्यव्रत शर्मा “अजेय” ने पूरा किया था।स्वर्गीय डॉ० “अजेय” एक अप्रतिम क्रांतदर्शी कवि होने के साथ ही मुझ जैसे असंख्य नवोदित कवियों के प्रेरणास्रोत हैं मेरे काव्यगुरु हैं।
समर्पण
अपने स्वर्गीय पूज्य चाचा सोमदत्त शर्मा को, जो सरलता और सौम्यता की प्रति मूर्ति थे एवं आदित्य ब्रह्मचारी थे। परोपकार ही जिनके जीवन का व्रत था, जिन्होंने चिकित्सा-क्षेत्र में जनता जनार्दन से “डॉक्टर”की उपाधि प्राप्त की थी और हाथ को ऐसा यश था कि यदि किसी को एक चुटकी राख भी पुड़िया में बांध कर दे दी तो उसका रोग छूमंतर हो गया।
रूखा मिला चाहे सूखा मिला,मिल
जैसा गया बस वैसा ही खा लिया।
शत्रु में मित्र में भेद न था ,सम
भाव से ही सबको अपना लिया॥
नेकी की टेक से नेक डिगे नहीं
लोक भलाई में नाम कमा लिया।
सोम ने सौम्यता से अपनी,शुचि
सूर्य के लोक में ओक बना लिया॥
-सत्यव्रत “अजेय”
सम्मति
डॉ. सत्यव्रत शर्मा “अजेय” आर्य विचारधारा के सशक्त कवि हैं।“दयानंद शतक”इस दृष्टि से “अजेय” जी का प्रौढ़ काव्य है।चित्रमयी भाषा,नाद ,सौंदर्य,लक्षणा का चमत्कार तथा कल्पना की उड़ान उनकी घनाक्षरियों की विशेषता है।वह एक ओर रीति कवियों की विदग्धत परम्परा की याद दिलाते हैं तो दूसरी ओर प्रवाहमयता,सहजता और मार्मिकता में हितैषी.गोपालशरण सिंह और अनूप जी को ला खड़ा करते हैं।
डॉ.विष्णुदत्त “राकेश”
मानविकी संकायाध्यक्ष
गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार
दो शब्द
तपतेजधारी,आदित्यब्रह्मचारी,दयासिन्धु स्वामी दयानंद के नाम को विश्व में कौ नहीं जानता!
उन्होंने हिमालय की कंदराओं में रहकर आत्मसुख और आत्मिक शान्ति प्राप्त करने की अपेक्षा भूलोक में विचरण कर उद्विग्न,आकुल-व्याकुल मनुष्यों को वचनामृत पिलाना अधिक श्रेयस्कर समझा एवं गुरुवर विरजानंद के निर्देश से देश को भव-भय से मुक्त कराने तथा विभिन्न मत मतांतर रूपी कण्टकों को उखाड़ फेंक कर जनता के लिए सच्चा सीधा वेदविहित पथ प्रशस्त करने का व्रत लिया।
महर्षि का अनंत प्रदेय है।महर्षि ने ही स्वतंत्रता का मंत्र सर्वप्रथम देशवासियों को देकर उनमें राष्ट्रीय चेतना का संचार किया।आर्यों को अपने सच्चे स्वरूप का भान कराया,आर्यावर्त में व्याप्त भ्रान्तियों का निराकरण किया,रूढ़ियों के गढ़ को गिराया और पाखण्ड को खण्ड खण्ड किया।वास्तव में यदि देव दयानंद दया कर देश को वैदिक सुधा का पान न कराते,स्त्रीजाति एवं शूद्रों को वेद पढ़ने का अधिकार न दिलाते तो आर्य धर्म ध्वस्त हो गया होता। और आर्यावर्त का जो भूखंड ले देकर हमारे पास बचा है वह भी शायद न बचा होता।
स्वामी दयानंद ने ही हिन्दी खड़ीबोली गद्य का अविष्कार एवं परिष्कार कर उसका प्रचार-प्रसार किया।एक बार हरिद्वार में एक व्यक्ति ने उनके ग्रन्थों का फारसी अनुवाद छपवाने की अनुमति माँगी,ताकि पंजाब निवासी भी आर्य धर्म सम्बन्धी उनके विचारों को समझ सकें।इस पर उन्होंने अपनी असहमति व्यक्त करते हुए कहा था:-
अनुवाद तो विदेशियों के लिए हुआ करता है।------ दयानंद के नेत्र तो वह दिन देखना चाहते हैं जब काश्मीर से कन्याकुमारी तक और अटक से कटक तक नागरी अक्षरों का का प्रचार होगा । मैंने आर्यावर्त भर में भाषा ऐक्य सम्पादन करने के लिए ही अपने सकल ग्रन्थ आर्यभाषा में लिखे और प्रकाशित किए हैं।”
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने “हिन्दी साहित्य का इतिहास” (संस्क० अष्टम,पृष्ठ ४४५)में यह माना है:-
“युक्तप्रांत के पश्चिमी जिलों पंजाब में आर्य समाज के प्रभाव से हिन्दी गद्य का प्रचार बड़ी तेजी से हुआ----आज जो पंजाब में हिंदी की पूरी चर्चा सुनाई देती है वह इन्हीं की बदौलत है”।
खड़ीबोली गद्य के प्रवर्तकों में निजनाम धन्य विद्वन्मूर्धन्य स्वामी दयानंद सरस्वती का नाम अग्रगण्य है,क्योंकि “सत्यार्थ प्रकाश” के द्वारा ही हिन्दी भाषा में गहन विषयों पर चिन्तन-मनन और वाद विवाद की शक्ति आई,व्यंग्य,कटाक्ष तथा तर्क शैली का आविर्भाव हुआ एवं गद्य विधा का विकास हुआ।
आज का मानव भौतिक वाद से ग्रस्त और त्रस्त है,वह शान्ति सुधा का पिपासु और अध्यात्म ज्ञान का जिज्ञासु है।उअसके पास बड़े बड़े पोथे पढ़ने का अवकाश नहीं है,शास्त्रों का अभ्यास नहीं।वह थोड़े में बहुत अधिक चाहता है।वह अज्ञान-अंधेरे में भटक रहा हैउसे ज्ञान की एक शलाका चाहिये,जिससे उसकी अमा भी राका बन जाए।
यह देखते हुए मेरे मन में विचार आया कि मुक्तक काव्य इस दिशा में सर्वाधिक प्रभावशाली होगा,क्योंकि रसचर्वणा में पूर्वापर पद्य परस्पर आलिंगित नही रहता है।अत: मैंने घनाक्षरीछंद में यह “दयानंद शतक” इतिहास सम्मत काव्य लिखा,जो मुक्तक भी है और इतिवृत्तात्मक भी।इसमें ऋषि के जीवन की प्रमुख घटनाओं का निर्देश करते हुए उनके सिद्धान्तों का समावेश भी संक्षेप में किया गया है।जो पाठकों को ऋषि के जीवन का परिचय देने के साथ साथ आध्यात्मिक एवं मानसिक शांति भी प्रदान करेगा,ऐसा मेरा विश्वास है।
यद्यपि केवल १००छंदों में महर्षि का महान चरित और उनकी समस्त धार्मिक मान्यताओं का समावेश तो संभव नहीं था,फिर भी प्रभु कृपा से मैंने प्रतीक रूप में ऋषि के चरित और इनके सिद्धान्तों का अंकन इस शतक में करने की चेष्टा की है। मैं अपने उद्देश्य में कहाँ तक सफल हुआ हूँ, इसका निर्णय स्वयं विज्ञ पाठक करेंगे।
यह काव्य फाल्गुन शुक्लपक्ष पूर्णिमा, संवत २०५०विक्रमी रविवार को ही पूर्ण हो गया था,परन्तु इसके प्रकाशन का मुहूर्त अब आया जब अनुसंधित्सु प्रिंसिपल श्रीमती सच्चिदानंदार्या “आनंदमयी” ने इस काव्य को टंकित करा कर धर्म प्रेमी सेठ आदित्य प्रकाश जी आर्य को प्रकाशानार्थ प्रेरित किया। ये दोनों ही धन्यवाद के पात्र हैं। प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ० विष्णुदत्त “राकेश” ने प्रस्तुत रचना का पारायण कर जो अपनी सम्मति प्रदान की है, उसके प्रति मैं आभारी हूँ।
-डॉ० सत्यव्रत शर्मा “अजेय”
दिनांक ६-६-९५
सत्य सदन, आर्यनगर
पानी की टंकी के पीछे
ज्वालापुर, हरिद्वार
“दयानंद शतक”
प्रणेता : डॉ० सत्यव्रत शर्मा “अजेय़”
भूतपूर्व प्राचार्य गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर,
हरिद्वार (उत्तराखंड) भारत
विघ्नबाधा विनिर्मुक्त होके ध्यान धार सकें
विभो ऐसा सुखद समय हमें दीजिए।
चाहती न ऋद्धि सिद्धि भौतिक समृद्धि प्रभो
निजपद-पद्म का प्रणय हमें दीजिये॥
नय पथ पर पग सतत “अजेय” पड़े,
यही है विनय कि विनय हमें दीजिए।
सृष्टि मूल शंकर, जयति अभयंकर हे,
जय विजयंकर ! विजय हमें दीजिए॥१॥
आलस, प्रमाद और आपस का वैर भाव
दूर कर निज पद- पद्म-प्रीति दीजिए।
आर्यावर्त पर होवे आर्यों का अखण्ड राज्य
अभय “अजेय़” प्रशासन – रीति दीजिए॥
ईति-भीति मिटाकर दीजिए प्रतीति दृढ़
प्रीति-युक्त गावें ऐसी राष्ट्र-गीति दीजिए।
वरणीय वरुण वरेण्य विभो हमें आप
वर राज्य, वर विद्या वर नीति दीजिए ।।२।।
दिशि दिशि उड़ रही धरा पै थी धूल, फूल
धूल में “अजेय” मिले बड़े बुरे हाल थे।
चैन की बजाते बाँसुरी थे बाँस, झंझाओं से,
टूक-टूक हो गये विशाल तरु शाल थे॥
पात पात झर गये ठूँठ हुई डाल डाल
सूख गये आलबाल विरस तमाल थे।
ऐसी विपरीत बात बही विश्व-वन में थी
झूमते बबूल और काँपते रसाल थे।।३।।
छाया था अविद्या का अँधेरा चारों ओर घोर
सूझता न हाथ को था हाथ काली रात में ।
संस्कृति समाप्त प्राय हुई थी हमारी हाय,
मेटने को हमें थे विदेशी लगे घात में ।।
हनुमान,भीष्म पितामह का ले ब्रह्मचर्य,
कपिल कणाद का ले कोविदत्व साथ में ।
करने को आर्यावर्त उपवन सुरभित
एक पारिजात खिला तब गुजरात में ।।४।।
संवत् अठारह सौ इक्यासी विक्रमी के मास
फागुन वदी की दशमी को जन्म धारा था ।
कर्षन तिवारी पिता,परम प्रसन्न हुए,
नवजात सुत अति सुंदर था प्यारा था ।।
ब्रह्म वंश अवतंस,कुल-गोत्र-दीपक था
हृदय का टुकड़ा था ,नयनों का तारा था।
घर-घर खुशियों के शादियाने बज उठे
सज उठा “सत्यव्रत” नगर “टंकारा”था॥५॥
रखा गया नाम मूलशंकर,उन्होंने सर्व-
वेद-शास्त्र आदि शिक्षा, घर पर पाई थी।
जब हुए वह वर्ष चौदह के, शिवरात्रि
उनके लिए तो बोधरात्रि बन आई थी॥
मंदिर में सकल पुजारी और भक्तगण
ऊँघने लगे थे,आई सभी को जम्हाई थी।
देखा मूलशंकर ने शंकर पै चढ़कर
खाई सब चूहों ने चढ़ावे की मिठाई थी॥६॥
कैसा त्रिपुरारि कैसा पाशुपत अस्त्रधारी?
चूहों से भी कर न सका जो निज त्राण है।
अपने पिता से चाहा जानना यथार्थ क्या है?
शंका का परंतु हुआ नहीं समाधान है ॥
पाहन की पिण्डी से सकल श्रद्धा मिट गई
भान हुआ यह नहीं,अन्य भगवान है।
शंकर नहीं है यह कंकर है कोरा मूल-
शंकर को हुआ मूलशंकर का भान है॥७॥
अपनी बहिन और चाचा जी की मृत्यु देख,
जाना, सब जग ग्रास है ये महाकाल का।
होते ही विराग,बस त्याग चला राग-रंग,
बना शुद्ध चैतन्य था ब्राह्मण का बालका॥
पुन:सिद्धपुर मेले से थे पिता लौटा लाए
भय दिखलाके निज क्रोध विकराल का।
किन्तु ब्रह्म में ही मन लगता था शंकर का
रमता ज्यों मानस में मानस मराल का॥८॥
एक दिन फिर पाके अवसर घर से वे
भाग कर अहमदाबाद चले गये थे।
वहाँ से बड़ौदा गये,ठहर चैतन्य मठ,
ले के साधु-संगति का स्वाद चले गये थे॥
मन में थी परिव्रज्या ले ने की प्रबल इच्छा
तज सब वाद औ विवाद चले गये थे।
“सत्य-शोध से न कोई मुझे रोक सकता है”
करते हुए ये सिंहनाद चले गये थे॥९॥
ऋषि तपलीन हिमगिरि के शिखर पर
परम पवित्र पुण्यमय प्रात:काल है।
प्राची से प्रकट हुआ दिव्य दिवाकर ऐसे,
सींपी से प्रकट जैसे मौक्तिक प्रवाल है॥
पुष्प-परिमल मल मल जाती मलयज-
मधुवात,मानो कि गुलाल लाल-लाल है।
विचलित कर सकी किन्तु न प्रकृति नटी
समाधिस्थ रहा ऋषि शैल सा विशाल है॥१०॥
मान्यवर,पूर्णानंद सरस्वती जी से विधि-
पूर्वक संन्यास-दीक्षा ऋषि ने ग्रहण की।
दयानंद सरस्वती नाम फिर रखा गया
जाग उठी इच्छा देश-देश में भ्रमण की॥
योग की अनेक सिद्धियों को प्राप्त करने की
विधियाँ विविध योगिवरों से श्रवण की।
शिवानंद गिरि, ज्वालानंद पुरी प्रभृति से
सीखीं क्रिया “सत्यव्रत” योग-आचरण की॥११॥
इसी भाँति नगर-नगर और गाँव-गाँव
द्वार द्वार घूमते वे गये हरिद्वार थे।
कुम्भ के प्रसिद्ध मेले में थे मिले ऋषि-मुनि
साधु औ महात्म जन साधक अपार थे॥
ऋषिकेश होते हुए गये फिर टिहरी वे,
देखे वहाँ तांत्रिक जनों के दुराचार थे।
बद्रीनाथ जा कर भी हाथ नहीं आया सत्य
वृथा झेले भूख और प्यास के प्रहार थे॥१२॥
ईस्वी सन् अट्ठारा सौ छप्पन में नर्मदा के
उद्गम की खोज की ऋषि ने ठान ठानी थी।
सुनसान जंगल में बढ़ चले यायावर
राह की विपत्तियों से हार नहीं मानी थी।।
जंगली सुअर,रीछ,मार्ग में अनेक मिले,
भूख और प्यास की भी बड़ी परेशानी थी।
लक्ष-लक्ष विघ्न झेल लक्ष्य पर पहुँचे वे,
उनके ये साहस की, शौर्य की कहानी थी ॥१३॥
इसके अनंतर ऋषि ने तीन वर्ष तक
क्या-क्या किया कुछ इस बारे में न ज्ञात है।
इस अवधि में हमें यह भी पता है नहीं,
कहाँ कटा दिन और कहाँ कटी रात है॥
अट्ठारा सौ सत्तावन सन में जो क्रांति हुई
सेना में “अजेय” इतिहास में सो ख्यात है।
तब दिया ऋषि ने ये मंत्र देशवासियों को,
“अपना हो राज्य यह सर्वश्रेष्ठ बात है॥१४॥
सम्भवत: उसी काल ऋषिवर क्रांतिकारी-
नाना धोंदुपंत से थे मिले कानपुर में।
भावी सत्तावन की प्रचण्ड क्रांति से थी पूर्ण
सह अनुभूति दयानंद जी के उर में ॥
चार-पाँच वर्ष तक अलख, स्वतंत्रता की-
अलख जगाते रहे वह शांत सुर में।
उनका था मत ,कोई करे कितना ही किन्तु,
होता है स्वराज्य सर्व उत्तम त्रिपुर में॥१५॥
ज्ञान बिना किसी को भी मुक्ति नहीं मिलती है,
पठन स्वदेशी और पाठन स्वदेशी हो॥
जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर गरीयसी
यजन स्वदेशी और भजन स्वदेशी हो॥
चलन स्वदेशी हो तुम्हारा भारतीय जनो,
अशन स्वदेशी और वसन स्वदेशी हो॥
प्रण करो जीते जी विदेशी वस्त्र धारेंगे न,
यदि मर जाएं भी तो कफन स्वदेशी हो॥१६॥
सत्य की तलाश में भटकते हुए यों उन्हें
लगभग चौदह बरस बीत गये थे।
इस बीच बीहड़ों वनों में और पर्वतों की
कन्दराओं में भी झेल ग्रीष्म शीत गये थे॥
प्रज्ञाचक्षु दण्डी स्वामी सुकृति विरजानन्द
जी का नाम सुन ,मथुरा सप्रीत गये थे।
परम पुनीत मन होकर विनीत ऋषि-
दयानन्द लेने ज्ञान नवनीत गये थे॥१७॥
गुजराती ब्राह्मण अमरलाल जोशी जी ने
भोजन का भार ऋषिवर के सँभाला था।
फिर फेंक यमुना में सकल अनार्ष ग्रंथ
गुरु का निदेश दयानन्द जी ने पाला था॥
वेद शास्त्र,व्याकरण,अष्टाध्यायी, महाभाष्य,
पढ़कर सार सार सारा ही निकाला था।
सत्य का रहस्य हुआ प्रकट समस्त,हाथ
लगते ही ज्ञान ताली खुल गया ताला था॥१८॥
गुरु ने कहा कि दयानन्द ! हुई विद्या पूर्ण
तुम मुझे दक्षिणा में जीवन दो अपना।
लख मत-मतान्तर,अंतर निरंतर ही,
करता विलाप, हरो मेरा ये विलपना॥
वेदों की जगाना तुम ज्योति इस जगत में,
उसके समान कोई और जप तप ना।
तपना “अजेय” तुम ज्ञानभानु बन कर
पूर्ण कर देना वत्स ! मेरा यह सपना॥१९॥
मत-मतान्तरों द्वारा फैली जो कुरीतियाँ हैं,
उनको मिटाओ सत्य ज्ञान को पसारो रे।
दीन हीन जन डूब रहे दु:ख सागर में,
जाओ तुम जाकरके उनको उबारो रे॥
आर्य जनता की दशा बिगड़ गई जो वत्स
दयानन्द ! दया कर उसको सुधारो रे।
गुरु ने कहा कि यही दक्षिणा दो तुम मुझे,
लोक हित करने को, लोक में पधारो रे॥२०॥
सफल मनोरथ हो सिद्धकाम हो तू वत्स
सुरसरि सदृश सभी को हितकारी हो।
निज गिरा-गदा से तू गिरा गढ़ रूढ़ियों के,
मोह बन्ध काटने को ज्ञान की तू आरी हो॥
शास्त्र की सकल कला सीख ली हैं तूने तात्
इकला तू कोटि कोटि रिपुओं पै भारी हो।
वेद की विभा से विभासित शुचि “सत्यव्रत”
सूर्य-चंद्र सम दयानंद ब्रह्मचारी हो॥२१॥
लेकर शपथ दयानंद ने कहा कि गुरो,
हरूँगा अवश्य भारी भूमि भार हरूँगा।
जितने भी वेद के विरुद्ध व्याप्त वाद यहाँ,
खण्डन के द्वारा उन्हें खण्ड खण्ड करूँगा॥
रचकर वेदों के अजेय नव्य भव्य भाष्य,
भ्रांत हृदयों में दिव्य ज्ञान ज्योति भरूँगा।
डरूँगा न काल से भी सत्य बात कहने में,
सत्य पर जियूँगा मैं सत्य पर मरूँगा॥२२॥
मथुरा से आगरा औ आगरा से ग्वालियर
ग्वालियर से करौली ऋषिवर पहुँचे।
महीप मदनपाल को दे उपदेश वहाँ
जयपुर होते हुये पुष्कर पहुँचे ॥
वहाँ पर मास द्वय वैदिक प्रचार किया ,
ख्याति सुन,मिलने को कमिश्नर पहुँचे।
प्रवचन सुन कर हुए बड़े प्रभावित
दर्शनों के लिए नित्य नारी नर पहुँचे॥२३॥
इसी बीच कर्नल ब्रुक से भी भेंट हुई,
उन से गौ रक्षा पर काफी बातचीत की।
स्वामी जी की युक्ति युक्त उक्तियों से प्रभावित
मानते थे विपरीत जन बात रीत की॥
“चरैवैति चरैवैति” लक्ष्य को समक्ष रख
भ्रमण में सारी आयु ऋषि ने व्यतीत की।
दश दिशि खल दल में मची थी खलबली
फहराई ऋषि ने पताका निज जीत की॥२४॥
लख लख लालिमा धवल मधुमास हुए
झूम उठे तरु तृण लता वन बाग थे।
गुणगंध भू पै प्रसरित हुई मंद मंद,
फैल गये प्रवचन पावन परग थे॥
मतवारे मानव मिलिन्द मंडराने लगे
गाने लगे शुचि शुभ्र सुयश का राग थे।
जहाँ जहाँ पड़ गये ऋषि के पुनीत पद
वहाँ वहाँ बन गये काशी औ प्रयाग थे॥२५॥
हरिद्वार सप्त सरोवर शुभ स्थान पर,
पहुँच महर्षि ने लगाया निज डेरा था।
भारत में व्याप्त अन्ध श्रद्धा का कुरीतियों का,
पाखण्ड का एक साथ वहाँ पर घेरा था॥
देखा ऋषिवर ने पतित हुई आर्यजाति,
खुले आम वहाँ नग्न साधुओं का फेरा था।
एक भी किरण नहीं सत के प्रकाश की थी,
चारों ओर घनघोर असत अन्धेरा था॥२६॥
कहीं पै विरागी औ उदासी,कनफाड़े मिले,
इन सब सन्तों के निराले ठाठ बाट थे॥
कुछ चढ़े हाथियों पै,घोड़ों पर कुछ चढ़े,
अकड़ते ऐसे जैसे मानो वही लाट थे॥
पण्डे मुस्टडे कहीं, तीर्थ के पुजारी कहीं,
कर रहे यात्रियों की भारी लूटपाट थे।
हर की पैड़ी को स्वर्ग-सीढ़ी सम मानकर
पटे जाते निपट मुमुक्षुओं से घाट थे॥२७॥
पाखण्ड की खण्डिनी पताका फहरा के वहाँ
ऋषिवर देते नित्य प्रति प्रवचन थे ॥
भागवत आदिक पुराण और मूर्तिपूजा
छापे – कण्ठी – तिलक का करते खण्डन थे ॥
फिर गये कनखल लँढ़ौरा औ मुहम्मद-
पुर बिजनौर प्रमुदित जन- मन थे ॥
वहाँ से वे गढ़मुक्तेश्वर रामघाट गये
घूम घूम, कर रहे जन – जागरण थे ॥२८॥
एक दिन शिशिर में जाह्नवी के तट पर
नभ में नखतगण जब हुए लीन थे।
परब्रह्म-लगन में मग्न तब हुए ऋषि
नग्न सर्वदेह बस बाँधे वे कौपीन थे॥
शीतल समीर तीर सदृश था चल रहा
शीत भीत तल में समाए दीन मीन थे॥
बदायूँ के कलक्टर और एक पादरी जी
हैरत में पड़ गये देख यह सीन थे॥२९॥
कहा ये कलक्टर ने,खाते क्या रसायन ये
जो न ठण्ड लगे इन नग्न धीर वीर को।
पादरी ने व्यंग से बताया खाते तर माल
खाने पीने की न कमी हिन्दू के फकीर को॥
सुनकर स्वामी जी ने कहा- हम खाते दाल
रोटी,आप खाते मांस,पीते मद्यनीर को।
फिर भी न झेल सको शीत क्योंकि साधा जाता
माल से न,साधा जाता योग से शरीर को॥३०॥
नश्वर है पत्थर विनश्वर हैं चित्र,इन्हें
ईश्वर जो कहे मति उसकी है खिसकी।
असत् अचित् अनानंद होते चित्र लिखे
देवतादि,चित्र ने की रक्षा कहो किसकी॥
अमृत के फल किस भाँति लगें इस पर
यह मूर्तिपूजा “सत्य” वल्लरी है विष की।
मानता है पत्थर को वही परमेश्वर कि
पड़ गए पत्थर हों अक्ल पर जिसकी॥३१॥
सुन यह उपदेश टीकाराम पुजारी ने
निराकार ब्रह्म से ही निज डोर जोड़ दी।
कर्णवास-स्थित देवमंदिर की पूजा तज
निजमन मंदिर की ओर मति मोड़ दी॥
अम्बादत्त पण्डित ने ऋषि से परास्त हो के
सबके समक्ष सभा में ही मूर्ति तोड़ दी॥
ऋषि-उपदेश से प्रभावित हो यों ही कोटि
कोटि मूर्तिपूजकों ने मूर्ति-पूजा छोड़ दी॥३२॥
वृंदावन वासी रंगाचार्य जी का एक शिष्य
राव कर्ण सिंह तलवार लिए हाथ में।
आया एक दिन कर्णवास में ऋषि के पास
कंठ में थी कंठी औ तिलक लगा माथ में॥
अंट संट टंट घंट बकने लगा था लंठ
भरा हुआ क्रोध में था सेवकों के साथ में।
बोला- मूर्ति पूजन का करते क्यों खण्डन हो
रखते “अजेय” क्यों न निष्ठा यदुनाथ में॥३३॥
यह कहकर उस नीच ने महर्षि पर
कर दिया वार तलवार विकराल का।
पकड़ कलाई दी मरोड़,असि तोड़ कर
फेंकी दयानंद ने ज्यों तंतु हो मृणाल का॥
सदृश अकर्ण अहि,नतफन हुआ कर्ण
वदन विवर्ण,भय लगा उसे काल का।
किंतु हँस कर कहा ऋषि ने अधम! तेरा
नाम तो है “सिंह” पर काम है शृगाल का॥३४॥
किसी को सताकर इकट्ठे किए धन से जो,
भोजन बना हो बंधु उसे भ्रष्ट जानिए।
भोज्य में अखाद्य वस्तु या कि गिर जाए कोई
उसको भी आप भ्रष्ट भोजन ही मानिए॥
साध का बनाया किंतु भोजन न होता भ्रष्ट,
साध के हृदय की भी साध पहचानिए।
भोजन पा साध का महर्षि ने कहा कि द्विजो
समता के शुचि भाव निज उर आनिए॥३५॥
वैदिक प्रचार हेतु ऋषि कानपुर गये
एक विज्ञापन छपवा के बँटवाया था।
आठ गप्प तजने का,सुकवि “अजेय” सत्
उपदेश उसमें ऋषि ने दरसाया था ॥
पुराणादि ग्रंथ मूर्तिपूजा,शैव सम्प्रदाय
वाममार्ग जोकि तंत्र ग्रंथ में जताया था।
परस्त्री गमन,मद्य-पान चौर्य,छल छद्म
छोड़ने के योग्य इन गप्पों को बताया था॥३६॥
चारों वेद,आर्षग्रंथ,गुरु-सेवा,ब्रह्मचर्य,
अग्निहोत्र,पंचमहायज्ञ तप अनुष्ठान।
चारों आश्रमों का करे पालन नियम से जो
श्रुति-स्मृति अनुसार समझे जो संविधान॥
सुख-दु:ख,हर्ष शोक से न विचलित होवे
मानता समान हो जो मान और अपमान।
धर्म अर्थ काम मोक्ष चतुर्वर्ग प्राप्त करे,
“सत्यव्रत” उसको ही सत्यव्रती सदा जान॥३७॥
एक दिन ऋषिवर कानपुर गंगा जी के
जल मध्य शुचि स्नान करने में लीन थे।
उनकी तरफ बढ़ा मगर विशाल एक
मगर महर्षि अलमस्त भयहीन थे॥
आकर निकट मुड़ गया वह दूजी ओर
दर्शनेच्छु उसके भी मानो दृगमीन थे।
घाट पै नहाने वाले कितने ही लोग वहाँ
परमचकित हुए देख यह सीन थे॥३८॥
ऋषिकृत खण्डन कुरान का “अजेय” सुन
काशी के मुसलमान लग गये जलने।
फेंकने को गंगा में उठाया उन्हें एक दिन
बगल में हाथ देके मुगल युगल ने॥
उनको जकड़ स्वयमेव ऋषि जाह्नवी में
कूदे और नहीं दिया उनको उछलने।
डुबकियाँ दे दे कर उनसे कराई तौबा
छोड़ा जब प्राण लगे उनके निकलने॥३९॥
अनूप शहर में विषैला पान दे के ,किसी
नीच ने कहा- मैं ऋषि मीठा पान लाया हूँ।
न्यौली क्रिया द्वारा विष ऋषि निकाला झट
पट,कहा-प्रभु ने मैं सर्वदा बचाया हूँ॥
मुलजिम हवालात पहुँचाया मुंसिफ ने
और कहा- ऐसों का मैं करता सफाया हूँ।
ऋषि ने कराया मुक्त अभियुक्त यह कह
आया न कराने कैद, मैं छुड़ाने आया हूँ॥४०॥
बाबू श्री केशव चंद्र सेन ने कहा –कि ऋषि
आप पर भारत को भारी अभिमान है।
खेद है कि जानते जो आप अंगरेजी भाषा
लाभान्वित होता इंग्लैण्ड जो महान है॥
हँसकर बोले ऋषि मुझको भी खेद है कि-
आप को भी संस्कृति की नहीं पहिचान है।
भारत निवासियों को ,धर्मशिक्षा देते आप
आँग्लभाषा द्वारा जिसका न उन्हें ज्ञान है॥४१॥
एक दिन जालंधरवासी मिथ्या अभिमानी
सरदार विक्रम ने पूछा ऋषिवर से।
आप में तो मुझसे भी कम बल लगता है
ब्रह्मचर्य की है शक्ति आप में किधर से॥
ऋषि ने कहा-कि दूँगा वक्त पै जवाब,
तब
विक्रम ने चलने को कहा ड्राइवर से।
हाँकने से ,थोड़े भी फिटिन के न घोड़े हिले
पकड़े थे ऋषि क्योंकि पहिया स्वकर से॥४२॥
सैंकड़ों जनों के साथ अलीगढ़ मंदिर में
बैठे ऋषि तभी वहाँ एक मूर्ख आता है।
आकर चबूतरे पै बैठ गया नालायक
सबसे महान फिर खुद को जताता है॥
बोले ऋषि उच्चासन पर सिर्फ़ बैठने से
कोई नर श्रेष्ठतर नहीं बन जाता है।
भला कहीं विटप की चोटी पर बैठा हुआ
कटु वाक काक भी क्या उँचा कहलाता है॥४३॥
प्रात: तीन बजे उठ कर ऋषि चार बजे
तक योगाभ्यास नित्य नियमादि करते।
पुन: स्नान उपरांत देह पर भस्म लेप
कर,ध्यान सत् चित् आनंद का धरते॥
नव बजे दर्शनेच्छु मानवों से मिलते थे
बारह बजे लौ शंका उनकी की थी हरते।
भोजन के बाद फिर एक से ले नव तक
दर्शनों के संग भाव भूमि में विचरते॥४४॥
आते जाते राजे महाराजे दर्शनार्थ नित्य
पर परवाह ऋषि उनकी न करते ।
कामना थी मन में न धन की ,न वैभव की
फिर धनी-मानी को वो ध्यान में क्यों धरते॥
राजा और रंक को समान सदा मानते थे
शूद्र को भी स्नेह से सदैव अंक भरते ।
भूत छुआछूत का भगाते रहे भारत से
सतत ही मानवों की पीड़ा रहे हरते॥४५॥
बालों को बढ़ाने से जो होता कोई त्यागी तपी
रीछ के समान फिर कोई नहीं त्यागी है।
तीर्थ में नहाने से जो मुक्ति मिला करती तो
मत्स्य-समुदाय सर्वश्रेष्ठ मोक्षभागी है॥
भूखा प्यासा रहने से होता जो विरागी कोई
तब तो बुभुक्षु भिक्षु परम विरागी है ।
इस भाँति ऋषि के “अजेय” उपदेश सुन
आर्य जनता की सोई सद्बुद्धि जागी है॥४६॥
मानते जिसे हों आप्त नित्य पर उपकारी
सत्यवादी जन वही पुरातन धर्म है।
जिसके विरोधी नहीं होते कभी “सत्यव्रत”
वही सच्चा सीधा पाप नसावन धर्म है॥
कोई भी अविद्या युक्त मत-मतान्तर वाला
माने अन्य को तो वह अपावन धर्म है।
आदिकाल से ही सभी मानते थे,मानते हैं
मानेंगे भी जिसे वही सनातन धर्म है॥४७॥
डरता नहीं जो कभी धनी-बली-जालिमों से
उनके विनाश की जो उर ठान ठानता ।
धर्मनिष्ठ सज्जनों की करे जो सुरक्षा सदा
हृदय में उन को सदैव दे प्रधानता ॥
न्याय-मार्ग से न विचलित हो “अजेय” कभी
लक्ष्य-प्राप्ति में जो रक्खे सदा सावधानता ।
मनुज वही है जो कि होता है मनन शील
पर सुख-दु:ख को जो आत्मवत् मानता ॥४८॥
ब्रह्म परमात्म आदि जिसके सहस्र नाम
जो कि सत् चिदानंद लक्षणों से युक्त है।
जिसके स्वभाव,गुण,कर्म,हैं पवित्र नित्य
युक्त भी है वही वही गुणों से वियुक्त है॥
निराकार सर्वव्यापी,कर्ता धर्ता,हर्ता,अज
विभु,सर्वशक्तिमान,न्याय में नियुक्त है।
मानते उसे ही परमेश्वर हैं ऋषिवर
वही पूर्णब्रह्म,पूर्णकाम,पूर्णमुक्त है॥४९॥
चारों वेद ऋक् यजु साम औ अथर्ववेद
ईश्वर प्रणीत अत: स्वत: ही प्रमाण है।
अपने स्वरूप का ज्यों स्वत:प्रकाशक सूर्य
जिससे अवनि- आसमान भासमान है॥
अंग औ उपांग षट्शास्त्र चार उपवेद
ब्राह्मणादि ग्रंथ सब वेदों के व्याख्यान हैं।
परत: प्रमाण ऋषि-ग्रंथ,वेद-अनुकूल
जो हैं वेद प्रतिकूल सर्व अप्रमाण हैं॥५०॥
“आर्यावर्त” नाम इस देश का है इसलिए
क्योंकि आदि सृष्टि से ही आर्य यहाँ रहते।
उत्तर में हिमालय दक्षिण में विन्ध्याचल
सीमाओं के प्रहरी का गौरव हैं गहते ॥
पश्चिम में अटक औ पूरब में ब्रह्मपुत्र
कल कल छल छल नाद कर बहते।
जितना भूभाग इन चारों के है मध्य बसा
उसको “अजेय” ऋषि आर्यावर्त कहते॥५१॥
“आर्य” होते श्रेष्ठ और “दस्यु” होते दुष्टजन
देव ऋषि,मुनिगण यही बतलाते हैं।
सांगोपांग वेद विद्या का जो अध्यापन करें
सत्याचारग्राही वे आचार्य पद पाते हैं॥
सत्य को सिखावें औ असत्य से छुड़ावें जो कि
अध्यापक माता-पिता “गुरु” कहलाते हैं।
जो कि सत्य शिक्षा और विद्या को ग्रहण करें
वे ही धर्मनिष्ठ शिष्ट “शिष्य” कहे जाते हैं॥५२॥
छोटे और बड़े का न भेदभाव रखता जो
जिसका कि न्याय-आचरण ही तो मर्म है।
नित्य सत्य भाषणादि ईश्वर की आज्ञाओं का
पालन ही जिसका कि एक मात्र कर्म है॥
इस कुरुक्षेत्र के समर में जयाभिलाषी-
मानवों के लिए जो सुरक्षाकारी वर्म है॥
जो कि वेदविहित,रहित पक्षपात से है
सर्वहितकारी नित ,वही सच्चा धर्म है॥५३॥
इच्छा द्वेष सुख ज्ञान आदि गुण युक्त नित्य
तदपि सतत जीव अल्पज्ञान वाला है।
भिन्न है स्वरूप से अभिन्न व्याप्य-व्यापक से
ईश्वर से इसका तो नाता ही निराला है॥
ईश्वर,प्रकृति के समान है अनादि यह
जगत का कारण है,ब्रह्म-मतवाला है।
नित्य गुण कर्म औ स्वभाव वाला “सत्यव्रत”
सबसे है अनुपम सबसे ही आला है ॥५४॥
“उपाध्याय” वेदपाठी होता “पुरोहित”नित
सत्य उपदेष्टा हितकारी यजमान का ।
सत्य का ग्रहण औ असत्य का जो त्याग करे
यही “शिष्टाचार” धर्मनिष्ठ मतिमान का॥
सर्वदा यथार्थ वक्ता,सर्वजन सुख कामी
लक्षण यही है “आप्त” पुरुष महान का।
कर्म में “स्वतंत्र” फल भोगने में “परतंत्र”-
जीव “वशवर्ती” सदा विधि के विधान का॥५५॥
गुण गण कथन श्रवण औ मनन,ध्यान,
ही है “स्तुति” फल होता जिसका सुप्रीति है।
सत् चित् आनंद की याचना ही “प्रार्थना” है,
“सत्यव्रत” ऋषि मुनियों की यही नीति है॥
ईश्वर के गुण कर्म पावन स्वभाव जैसे,
अपने भी वैसे ही बनाना श्रेष्ठ रीति है।
विभु है हमारे ही समीप मानो विद्यमान,
“उपासना” वही जो कराती यों प्रतीति है॥५६॥
ईश्वर औ जीव औ प्रकृति ये पदार्थ तीनों
नित्य हैं प्रवाह से अनादि इन्हें कहते ।
होते जो संयोग से ही द्रव्य गुण कर्म पैदा
वह सब बाद में वियोग के न रहते ॥
“सृष्टि” कहते हैं उसे पृथक् पृथक् द्रव्य
ज्ञान युक्ति युक्त हो के नाना रूप लहते।
“सृष्टि का प्रयोजन” है- ईश्वर के सृष्टि-गुण,
कर्म औ स्वभाव स्व सफलता हैं गहते ॥५७॥
सृजन में ईश की समर्थता की सफलता
दीखती त्रिगुणमयी सृष्टि के विधान में।
दीखता प्रभुत्व प्रभु का है सब जीवों के ही
कर्म-अनुसार सदा फल भुगतान है॥
स्वयमेव बन नहीं सकती समस्त सृष्टि
वही है समर्थ नित्य नव निर्माण में।
अत: “सृष्टि सकर्तृक” कर्ता परमेश्वर है
ऐसी दिव्य शक्ति उसी सर्वशक्तिमान में॥५८॥
पढ़ता पढ़ाता वेद ,करता कराता यज्ञ,
दान लेता देता है जो उसे विप्र जानिए।
दीन हीन जन की जो रक्षा सदा करता है,
क्षत्रिय वही है,ऐसी ठान उर ठानिए॥
करता जो कृषि औ वाणिज्य वही वैश्य होता
सेवा करे सब की जो उसे शूद्र जानिए।
आनिये न अन्य भाव मन में कदापि “सत्य”
कर्म अनुसार चार वर्ण पहचानिए॥५९॥
जो जो पाप कर्म महा दु:ख फलदायक हैं
उन सब को ही बंधु ! “बन्ध” कहा जाता है।
छूट जाना दु:खों से कहाता “मुक्ति” मुक्तजन
ईश्वर के साहचर्य लाभ को उठाता है॥
उपासना,योगाभ्यास ,धर्म अनुष्ठान,आप्त
संग और सुविचार मुक्ति का प्रदाता है।
ब्रह्मचर्य द्वारा विद्या प्राप्त कर पुरुषार्थ
से ही यह पुरुष परम पद पाता है॥६०॥
“अर्थ” वह है कि प्राप्त धर्म से ही होता है जो
मिले जो अधर्म से अनर्थ कहलाता है।
“काम” वह है जो मिले धर्म और अर्थ द्वारा
“वर्णाश्रम”गुणकर्म से ही जाना जाता है॥
“राजा” वह पक्षपात रहित जो न्याय करे
राजा ही प्रजा का गुरु,पिता और माता है।
“प्रजा” जो पवित्र गुण,कर्म,औ स्वभाव धार
धर्म-कर्म करे,तभी राष्ट्र सुख पाता है॥६१॥
हृदय में प्रेमभाव एक दूसरे के लिए
रखकर स्नेह-सुधा सर्वदा पिया करें।
छोटे और बड़े का मिटा कर के भेदभाव
मिथ्या अभिमान से रहित हो जिया करें॥
आपको भी देंगे मान सब सामाजिक जन
आप भी तो मान सब जनों को दिया करें।
चाहते “अजेय” यदि आयु विद्या यश बल
नमस्ते से आप अभिवादन किया करें॥६२॥
पूछा था “जनक धारी लाल ने ये स्वामी जी से,
किस भाँति करें हम प्रभु की उपासना।
ऋषि ने कहा कि सर्वप्रथम तो प्राणायाम
द्वारा दूर किया करो मन की कुवासना॥
फिर मूलाधार से ले सहस्रार चक्र तक
मन के गमन की “अजेय” करो साधना
जब तुम शून्य में टिकाओगे स्वमन को तो
फलवती होगी तभी ध्रुव ध्यान-धारणा॥६३॥
प्रधी होते “देव” मूर्ख होते हैं “असुर” तथा
पापी होते “रक्ष”औ “पिशाच” अनाचारी हैं।
सुधी-प्रधी माता-पिता गुरु-राजा साधुजन,
यह सब होते “देव-पूजा अधिकारी हैं॥
छोड़कर निखिल असत्य, सत्य गहते जो
पापियों के होते जो “अजेय”नाश्कारी हैं।
सब को ही अपने समान मान मान करें
सभी का जो सुख चाहें,वे ही न्यायकारी हैं॥६४॥
धर्म शुचि सभ्यता जितेन्द्रियतादि बढ़े-
जिनसे “सुशिक्षा” हैं वे,वे ही शुद्ध ज्ञान हैं।
ब्रह्म आदि द्वारा विरचित ऐतरेय आदि
ग्रंथ इतिहास कल्प गाथादि “पुराण” हैं॥
जिनसे कि दैन्य-दु:ख-सागर से पार जाएँ
वे ही सत्य विद्या यम योग “तीर्थ” स्थान हैं।
“पुरुषार्थ प्रारब्ध से बड़ा” इसलिए है कि
पुरुषार्थ से ही होते, भाग्य के विधान हैं॥६५॥
श्यामकृष्ण वर्मा गये पढ़ने विलायत थे
स्वामी जी ने संस्कृत में लिखा पत्र उनको।
विलियम और मैक्समूलर क्या मानते हैं,
मेरी वेद भाष्य करने की पक्की धुन को॥
श्याम जी से दर्शित ये पत्र पढ़ विलियम
मान गये संस्कृत के व्यवहारी गुण को।
कहा-यह माध्यम विचार विनिमय का ही
नहीं, परिभाषित भी करे पाप पुन को॥६६॥
“मानव को चाहिये” कि मानव के साथ सदा
यथायोग्य समुचित किया करे व्यवहार ।
सुख-दु:ख हानि लाभ दूसरों के आत्मवत्
समझे, किसी के लिए हो न कभी अनुदार
जिससे शरीर मन आत्मा होता उत्तम है
सोलह प्रकार के वे कहे गये “संस्कार”
उनका ही पालन विधेय नर जीवन में
उनसे ही होता है “अजेय” जीव भव पार॥६७॥
“यज्ञ” कहते उसे,जिससे कि होता सदा
विद्वत् जनों का मान –विद्या आदि गुण गान।
नित्य प्रति किये गये अग्निहोत्र आदि द्वारा,
होते हैं पवित्र जल,औषध औ पवमान ॥
यज्ञ से ही होती वृष्टि,वृष्टि से अधिक अन्न ,
अन्न से ही पाते जीव,जीवन का अनुदान ।
अशरण शरण निखिल दु:ख हरण है,
संगतिकरण,देव-यजन का संविधान ॥६८॥
पादरी राबिनसन और शूलब्रेड संग
स्वामी जी का हुआ अजमेर में संवाद था।
विषय था जीव,सृष्टि-क्रम और वेदशास्त्र,
स्वामी जी की विजय का गूँज उठा नाद था॥
ऋषिकृत ईसा पर छींटाकसी,द्वारा हुआ
शूल सम शूलब्रेड-उर में विषाद था।
खण्डन तो कर नहीं पाया वह किंतु छाया
उसके हृदय में स्व सत्ता का प्रमाद था॥६९॥
बोला क्रुद्ध होकर कि ऐसी-ऐसी बातों से तो
स्वामी! आप कभी कारागार चले जाएँगे ।
हँसकर स्वामी जी ने कहा- कोई बात नहीं
सत्य-हेतु हम बाजी जान की लगाएँगे॥
सत्य ही है सत्य और सत्य ही है नित्य हम
“सत्यव्रत” सत्य को सदैव अपनाएँगे।
सत्य के लिए तो विषपान भी करेंगे हम
सत्य के सिवा न शब्द जिह्वा पर लाएँगे॥७०॥
नाच और गान से सदैव रहो दूर तुम
हृदय को भर पूर रखो भव्य भाव से।
राग से न देखो युवतियों को,पृथक् रहो
व्यभिचारी भाव अनुभाव औ विभाव से॥
उतनी ही अधिक बढ़ेगी काम-वासना ये,
तृप्ति-यत्न जितना करोगे तुम चाव से।
सदाचार-सहित “प्रणव” मंत्र जपा करो,
मुक्त होना चाहो यदि काम के प्रभाव से॥७१॥
अपनी क्रिया में है प्रवृत्त ये निरंतर ही
निखिल जगत जो “अजेय” दृश्यमान है।
विद्यमान नित्य जो विराट में प्रवृत्ति,गति,
हम में भी वही क्रिया उसी के समान है॥
वेद से विहित कर्म करना “प्रवृत्ति” कर्म-
कुत्सित को त्यागना “निवृत्ति” का बखान है।
“कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समा:”
जीवन वही है श्रेष्ठ जो कि क्रियावान है॥७२॥
विक्रमाब्द उन्नीस सौ इकतीस चैत्र शुक्ल-
पंचमी थी तिथि शुभ दिन शनिवार था।
बम्बई के गिरगाँव मुहल्ले में स्वामी जी ने
स्थापित समाज किया विधि अनुसार था॥
राजमान्य पानाचंद्र आनंद जी पारिख को
नियम बनाने हेतु सौंपा अधिकार था।
सभापति गिरधारी लाल जी थे चुने गये
स्वामी जी ने किया कोई पद न स्वीकार था॥७३॥
विभु ने बनाई सृष्टि,अव्यक्त प्रकृति से है
सृष्टि का प्रकृति ही प्रमुख उपादान है।
सृष्टि का सृजन औ प्रलय क्रम प्रवाह से
अनादि है सृष्टि नियामक भगवान है॥
शुभ कर्म द्वारा प्राणी चारों ही पदार्थ पावें
अत: किया विधाता ने सृष्टि का विधान है।
सत्य आचरण,सत्य विद्या “सत्य सत्संग
योगाभ्यास,ईश-स्तुति,मोक्ष का सोपान है॥७४॥
जिस भाँति मंदिर में बाहर भी भीतर भी
परिपूर्ण नभ किन्तु जाता न निहारा है॥
इसी भाँति परमात्मा जीवात्मा में रमा हुआ,
तो भी है पृथक अति सूक्ष्म अति प्यारा है॥
अथवा ज्यों एक साथ पत्थर में वायु,जल
नभ भूमि अग्नि ब्रह्म सबका पसारा है।
उसी भाँति विश्व में है व्यापक “अजेय” विभु
सब में समाया और सबसे ही न्यारा है॥७५॥
सबका हो एक धर्म,एक भाव,एक लक्ष्य,
एक ध्येय,एक पथ और एक रथ हो।
निज देश-जाति की समुन्नति में जुटें सब
सत्य बोलने की गही सबने शपथ हो॥
तज के कुरीति औ अनीति सब आगे बढ़ें
इति अवनति की हो उन्नति का अथ हो।
गुरुकुल शिक्षा की प्रणाली प्रचलित होवे
जिससे प्रशस्त “सत्यव्रत” सत्य पथ हो॥७६॥
पश्चिम के तम के प्रसार को मिटाने हेतु
पूर्व की उषा की यह अभिनव लाली है।
अक्ल पड़ गया जिनकी हो ताला ,उसे
खोलने के लिए यह अनुपम ताली है॥
देती है पदार्थ चारों धर्म अर्थ काम मोक्ष
वेद विद्यारूपी कल्पवृक्ष की ये डाली है।
भारत को भा-रत बनाने में समर्थ यह
“सत्यव्रत” गुरुकुल शिक्षा की प्रणाली है॥७७॥
मेरे इस कथन को भारतीय आर्य जनो
ज्ञान की तुला पै आप रख कर तौलिये।
विद्या से अमृत तत्त्व प्राप्त करता है नर
अत: विद्यामृत जग जीवन में घोलिये ॥
आत्मबोध कराने के लिए, इसी पद्धति में-
बालकों के उज्ज्वल भविष्य को टटोलिये।
चाहते हैं यदि आप भारत महान बने
ग्राम ग्राम धाम धाम गुरुकुल खोलिये॥७८॥
जिस भव्य भारत भू खण्ड में मैं रहता हूँ
छाया हुआ वहाँ पै अविद्या अन्धकार है।
जिससे स्वदेश वासी दिन दिन दीन हीन
तन क्षीण होते जाते,कष्ट ये अपार है॥
स्वामी दयानंद ने यो कहा-विलियम से कि,
उमड़ा कुरीतियों का महा पारावार है।
उससे उबारना समाज को है धर्म मेरा,
इसका सुधार मेरे लिए सुधा धार है॥७९॥
अपने ही पाँवों पर खड़ा होना सीखो सब
स्वावलम्बी जीवन ही सर्वश्रेष्ठ होता है।
दूसरों से सहारे से जीवन बिताता है जो
आहें भरता है वह दिनरात रोता है॥
खायेगा “अजेय” आम्रफल किस भाँति वह
अविवेकी नर जो बबूल-बीज बोता है।
पाता वही जग में पदार्थ सब जागता जो
खोता वह सब कुछ जो कि पड़ा सोता है॥८०॥
ऋषि का कथन है कि मरने के बाद जीव
कुछ काल तक नभ मंडल में रहता।
वायु,जल,अन्न,आदि-आदि के सहारे फिर
मानव के हृदय में ठौर वह गहता॥
वीर्य में पहुँच फिर गर्भ में पहुँचता है,
नव मास तक भारी वेदनाएँ सहता ।
इस भाँति त्याग कर पुरातन तन “सत्य”
यह जीव पुन: तन नूतन है लहता॥८१॥
दु:ख द्वन्द्व दीन हीन मानवों का दूर कर
उन्हे सुख देना, यही पर –उपकार है।
सर्वसुख भोग भोगना ही “स्वर्ग लोक” और
दु:ख भोग भोगना ही “नरक” का द्वार है॥
जीव का शरीर से संयोग ही है “जन्म” और
उससे वियोग “मृत्यु” शास्त्र अनुसार है।
प्रायश: जो सुविचार,ऋषि को थे अंगीकार
उनका “अजेय” लिख दिया सार सार है॥८२॥
जोधपुर-नरेश श्री महाराजा यशवंत
सिंह को सदुपदेश-सुधा का कराया पान।
निराकार ईश्वर उपासना औ सदाचार
साथ में गोरक्षा का भी उन्हें दिलवाया ध्यान॥
जान गए ऋषिराज यह कि नरेश यश-
वंतसिंह देते वेश्या “नन्हीं जान” पर जान।
ऋषि बोले- महाराज ! राजा होता सिंह सम
कुतिया समान होती वेश्या पातकों की खान॥८३॥
कुतिया से उसकी की तुलना ये जान कर
नन्हीं जान बहुत ही हुई परेशान थी।
उसके कलेजे पर साँप लगा लोटने था
ठान चुकी हृदय में बदले की ठान थी॥
जलती थी अपमान –अनल में प्रतिपल
लेना वह चाहती महर्षि जी के प्राण थी।
बदगुमाँ,बदजुबाँ,बदजात,बदतर
बदमाश,बदकार,नार बेईमान थी ॥८४॥
साठ गाँठ कर दयानंद के विरोधियों से
पाचक जगन्नाथ उसने पटाया था ।
दूध में मिलाकर कराल काल कूट विष
उसने उसी से ऋषि जी को पिलवाया था॥
उदर में होने लगी वेदना असह्य जब
उपचार एक भी न जब काम आया था।
समझ गये वे किसी शत्रु ने जगन्नाथ
द्वारा हलाहल विष उन्हें दिलवाया था॥८५॥
पास में बुलाकर ये कहा जगन्नाथ से कि
तू ने विष दे के विश्वहित नष्ट किया है।
खैर कोई बात नहीं विधि का विधान था ये
जो कि मेरे व्यक्ति ने ही मुझे विष दिया है॥
मैंने तुझे माफ किया पाँच सौ रुपये ले ये
भाग जा, न तेरे लिए ठीक यह ठिया है।
चला जा नेपाल जान अपनी बचाकर तू
मारा जायेगा जो किसी ने भी जान लिया है॥८६॥
अब भी विशेष शक्ति शेष मुझ में है नीच!
चाहूँ तो मैं तेरा अंग अंग अभी तोड़ दूँ।
मसल दूँ तुझको मृणाल तन्तु सदृश मैं
पकड़ के तेरी गरदन को मरोड़ दूँ॥
साँप आस्तीन के पिलाया तुझे दूध वृथा
चाहूँ तो मैं विष तेरा सारा ही निचोड़ दूँ।
किन्तु दुष्ट ! जब तूने दुष्टता न छोड़ी तब
सज्जन मैं सज्जनता किस लिए छोड़ दूँ॥८७॥
बरसाते आज ईंट पत्थर जो मुझ पर
वे ही कल मुझ पर फूल बरसायेंगे ।
देख लेना “सत्यव्रत” जब चला जाउँगा मैं,
मेरा नाम ले-लेकर आँसू वे बहायेंगे ॥
खोजेंगे अवनि और अम्बर में मुझको वे,
हाथ मल मल कर भारी पछतायेंगे।
पायेंगे न खिला हुआ मुझे विश्ववाटिका में
किंतु सुमनों में बसा गंंध सम पायेंगे॥८८॥
उनतीस सितम्बर,अट्ठारा सौ तिरासी को
अघटित घटना घटी ये जोधपुर में।
फैल गया समाचार तार की तरह यह
मुम्बई,मेरठ में लाहौर कानपुर में॥
तीस अक्टूबर,सोमवार, दीपमालिका को
छाया घनघोर अंधकार था त्रिपुर में।
दयानंद दिव्य देह –दीप बुझ गया,किंतु
भर गया ज्ञान-ज्योति वह प्रति उर में॥८९॥
ऋषि दयानंद ने जगाई ज्योति ज्ञान की है,
आर्य धर्म संस्कृति की दुन्दुभि बजाई है।
वेद और संस्कृत का,हिन्दी का बढ़ाया प्रेम
मेट दी अस्पृश्यता-कलंक की सियाही है॥
राष्ट्रपिता गाँधी जी ने इस भाँति ऋषि जी को
दे के श्रद्धांजलि निज निष्ठा दरसाई है।
मरण न होगा कभी ऐसे महापुरुष का
उसका स्मरण तो सदैव चिरस्थायी है॥९०॥
स्वामी दयानंद सरस्वती थे उदारमना
वेदभाष्य रच निज विज्ञता जता गये।
अपने गहन अध्ययन और चिन्तन से
वह “हिन्दू-धर्म सुधारक” पद पा गये॥
भारत के शक्ति-शून्य शरीर में प्राण फूँक
सोये हुए इस हिन्दू राष्ट्र को जगा गये।
उन्हें रोम्याँ रोला, मैक्समूलर विदेशी तक
कर्मयोगी,नेता ,विचारक बतला गये॥९१॥
एमर्सन, माइकेल, अलकाट,विलियम,
ह्यूम,मेकडानल्ड हैं सभी मानते।
मदन मोहन मालवीय औ रवीन्द्रनाथ
लोकमान्य तिलक भी गुणों को बखानते ॥
योगी अरविन्द घोष,नेता जी सुभाष बोस
लाजपत राय आदि महिमा को जानते।
होते जो न दयानंद-दीपक तो तिमिर में
कैसे लोग सत्य का स्वरूप पहचानते॥९२॥
बुराई पै अभय प्रहार वह करते थे
सब पौराणिक भ्रांति उन्होंने नसाई है।
उन्होंने नवीन हिन्दू धर्म की है डाली नींव
उठने उभरने की राह दिखलाई है॥
गर्त से निकाल आर्यावर्त को जगाने हेतु
नगर नगर घूम अलख जगाई है।
जाति-बंध तोड़ कर कहा – सब बराबर
बुरा नहीं कोई भी है ,बुरी तो बुराई है॥९३॥
पाश में बंधे थे पराधीनता पिशाचिनी के
फंद में “अजेय” फ़ंसे सब दुख द्वन्द्व के।
तूर्ण तमतोम की तमिस्रा ने किये थे अंध
मंद थे प्रकाश हुए सूरज के चंद के॥
यूरोपीय अनुवाद पढ़-पढ़ हम लोग
भ्रमर कहाते रहे वैदिक मरंद के।
सर्वथा स्वतंत्र दिव्यनव्य भव्य भारत की
कल्पना असंभव थी बिना दयानंद के॥९४॥
प्रेम की बहाके सुर सरिता धरा पै ऋषि
विकराल ज्वाल पाप ताप की बुझा गया।
भूत छूआछूत का भगा कर सभी को वह
वेद पढ़ने का अधिकार दिलवा गया॥
शत मत मतांतर-कंटक उगे थे यहाँ
काट छाँट उन्हे सत्य पंथ दिखला गया।
अखिल अविद्या का “अजेय” अन्धकार मेट
पुण्य का प्रभात भेंट जग को जगा जगा गया॥९५॥
कलित कषाय वस्त्रधारी ब्रह्मचारी वह
हाथ में प्रचण्ड दण्ड काल का भी काल था।
भव्य मुख मंडल,विशाल वक्ष,लम्बबाहु
दम दम दमकता तेजोमय भाल था॥
छिति पर छोर-छोर छवि छाई ऋषि की थी
मंद मृदुहास युक्त अधर प्रवाल था॥
वह ब्रह्म तेजोबल,ध्रुव धैर्य धर्म धारी
अब्धि-सा गँभीर,हिमगिरि सा विशाल था॥९६॥
वेदत्रयी में था वह ऋक् के समान और
षट्शास्त्र मध्य हृद्य अनवद्य छंद था।
भानु के समान आसमान में था भासमान
तारकों में मानों वह पूनम का चंद था॥
जीव मात्र पर ममता के भाव रखता था
दया-द्वार शत्रु के लिए भी नहीं बंद था।
चिदानंद प्राप्ति वह मानता था दया में ही
ऐसा हृदयानंद महर्षि दयानंद था॥९७॥
लेते जो न जन्म दयानंद इस जगती पै
महामोह मद-अंधकार कौन हरता।
सर्वथैव शुद्ध वेद-भाष्य कर प्रस्तुत यों
ज्ञान का दिगन्त में प्रकाश कौन भरता॥
सोये हुए देश को जगाने हेतु द्वार द्वार
अलख जगाता हुआ कौन यों विचरता।
देने नवजीवन मनुजता को “सत्यव्रत”
निज विषदाता को भी माफ कौन करता॥९८॥
वर्ग देश जाति और काल की दीवारें गिरा
कौन विश्व मानवों में भ्रातृभाव भरता।
देता ऐसा शुद्ध सत्य-ज्ञान कौन “सत्यव्रत”
तर्क की कसौटी पर खरा जो उतरता ॥
आधुनिक युग में स्वतंत्रता का मंत्र फूँक
सर्व-पूर्व वैचारिक क्रांति कौन करता।
भूत छुआछूत का भगाता कौन भारत से
कौन भय भ्रांति मेट भूमि भार हरता॥९९॥
अज्ञ प्रज्ञ सभी हैं कृतज्ञ दयानंद जी के
लेकर प्रतिज्ञा आर्य विश्व को बनायेंगे।
उनसे प्रशस्त मार्ग पर चल स्वयमेव
संसृति समस्त उसी मार्ग पै चलायेंगे॥
पतितों को पावन बनायेंगे सदैव हम
दलितों को दौड़ दौड़ गले से लगायेंगे।
वर्ग अपवर्ग की बहायेंगे मही पै धारा
लायेंगे यहीं पै अभिनव स्वर्ग लायेंगे॥१००॥
सत्य के निकष पर कस कर भली भाँति
नित्य हितकारी सत्य तथ्य अपनायेंगे।
फैली हैं समाज में कुरीतियाँ बुराइयाँ जो
यथाशक्ति हम उन सबको मिटायेंगे॥
खोलकर पोल ढोंग ढोल की “अजेय” हम
आर्य धर्म-ध्वज धरा पर फहरायेंगे।
ऋषि दयानंद के बताये हुए मार्ग पर
चलकर हम ,आर्य विश्व को बनायेंगे॥
इति श्री कविवरेण्य आचार्य डॉ. सत्यव्रत शर्मा “अजेय”
द्वारा विरचित “दयानंद शतक” काव्य संपूर्ण।
॥ओम् तत्सत्॥
Sunday, March 16, 2014
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